'जन गण मन' के लिए जब टैगोर ने दी थी सफ़ाई
इस गाने के बारे में इसके रचयिता टैगोर ने 1912 में ही स्पष्ट कर दिया कि गाने में वर्णित 'भारत भाग्य विधाता' के केवल दो ही मतलब हो सकते हैं: देश की जनता, या फिर सर्वशक्तिमान ऊपर वाला—चाहे उसे भगवान कहें, चाहे देव.
टैगोर ने इसे ख़ारिज करते हुए साल 1939 में एक पत्र लिखा, ''मैं उन लोगों को जवाब देना अपनी बेइज़्ज़ती समझूँगा जो मुझे इस मूर्खता के लायक समझते हैं.''
'गीतांजलि', 'राजर्षि', 'चोखेर बालि', 'नौकाडुबि', 'गोरा'...
रवींद्रनाथ टैगोर के साहित्य संसार के ये कुछ नाम हैं लेकिन उनका फ़लक इनसे भी कहीं ज़्यादा बड़ा है.
साहित्य के लिए नोबेल पुरस्कार पाने वाले रवींद्रनाथ टैगोर को महात्मा गांधी ने सबसे पहले गुरुदेव कहा था.
सात मई 1861 को टैगोर का जन्म तत्कालीन कलकत्ता (अब कोलकाता) में हुआ था.
कहते हैं कि गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने आठ साल की उम्र में ही कविताएं लिखनी शुरू कर दी थीं.
'जन गण मन'
उनका लिखा 'जन गण मन' पहली बार 27 दिसंबर 1911 को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन के दूसरे दिन का काम शुरू होने से पहले गाया गया था.
'अमृत बाज़ार पत्रिका' में यह बात साफ़ तरीके से अगले दिन छापी गई.
पत्रिका में कहा गया कि कांग्रेसी जलसे में दिन की शुरुआत गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर द्वारा रचित एक प्रार्थना से की गई.
'बंगाली' नामक अख़बार में ख़बर आई कि दिन की शुरुआत गुरुदेव द्वारा रचित एक देशभक्ति गीत से हुई.
टैगोर का यह गाना संस्कृतनिष्ठ बंग-भाषा में था, यह बात 'बॉम्बे क्रॉनिकल' नामक अख़बार में भी छपी.
शासक का गुणगान!
यही वह साल था जब अंग्रेज़ सम्राट जॉर्ज पंचम अपनी पत्नी के साथ भारत के दौरे पर आए हुए थे.
तत्कालीन वायसरॉय लॉर्ड हार्डिंग्स के कहने पर जॉर्ज पंचम ने बंगाल के विभाजन को निरस्त कर दिया था और उड़ीसा को एक अलग राज्य का दर्जा दे दिया था.
इसके लिए कांग्रेस के जलसे में जॉर्ज की प्रशंसा भी की गई और उन्हें धन्यवाद भी दिया गया.
'जन गण मन' के बाद जॉर्ज पंचम की प्रशंसा में भी एक गाना गाया गया था.
सम्राट के आगमन के लिए यह दूसरा गाना रामभुज चौधरी द्वारा रचा गया था.
यह हिंदी में था और इसे बच्चों ने गाया: बोल थे, 'बादशाह हमारा....' कुछ अख़बारों ने इसके बारे में भी ख़बर दी.
शायद आप रामभुज के बारे में न जानते हों. उस वक़्त भी लोग कम ही जानते थे.
दूसरी ओर, टैगोर जाने-माने कवि और साहित्यकार थे.
सत्ता-समर्थक अख़बारों ने ख़बर कुछ इस तरह दी कि जिससे लगा कि सम्राट की प्रशंसा में जो गीत गाया गया था वह टैगोर ने लिखा था.
तबसे लेकर आज तक, यह विवाद चला आ रहा है कि कहीं गुरुदेव ने यह गाना अंग्रेज़ों की प्रशंसा में तो नहीं लिखा था?
टैगोर की सफ़ाई
इस गाने के बारे में इसके रचयिता टैगोर ने 1912 में ही स्पष्ट कर दिया कि गाने में वर्णित 'भारत भाग्य विधाता' के केवल दो ही मतलब हो सकते हैं: देश की जनता, या फिर सर्वशक्तिमान ऊपर वाला—चाहे उसे भगवान कहें, चाहे देव.
टैगोर ने इसे ख़ारिज करते हुए साल 1939 में एक पत्र लिखा, ''मैं उन लोगों को जवाब देना अपनी बेइज़्ज़ती समझूँगा जो मुझे इस मूर्खता के लायक समझते हैं.''
इस गाने की बड़ी खासियत यह थी कि यह उस वक़्त व्याप्त आक्रामक राष्ट्रवादिता से परे था. इसमें राष्ट्र के नाम पर दूसरों को मारने-काटने की बातें नहीं थीं.
गुरुदेव ने इसी दौरान एक छोटी सी पुस्तक भी प्रकाशित की थी जिसका शीर्षक था 'नेशनलिज़्म'. यहाँ उन्होंने अपने गीत 'जन गण मन अधिनायक जय हे' की तर्ज़ पर यह समझाया कि सच्चा राष्ट्रवादी वही हो सकता है जो दूसरों के प्रति आक्रामक न हो.
आने वाले सालों में 'जन गण मन अधिनायक जय हे' ने एक भजन का रूप ले लिया. कांग्रेस के राष्ट्रीय अधिवेशनों की शुरुआत इसी गाने से की जाने लगी.
1917 में टैगोर ने इसे धुन में बांधा. धुन इतनी प्यारी और आसान थी कि जल्द ही लोगों के मानस पर छा गई.