आरक्षणः महिलाओं की अनदेखी की वही भारतीय आदत !
सामान्य वर्ग को आरक्षण का बिल दो दिन में पास, महिला आरक्षण बिल बरसों से लटका. मृणाल पांडे के सवाल.
रहीम कह गये कि सच बोलो तो जग रूठता है और झूठ कहो तो राम. इन पंक्तियों की लेखिका ने राम नाम का सहारा लेकर आरक्षण की बाबत कुछ अप्रिय सच सामने रखना सही समझा है जिनको सही तरह समझना मीडिया और उसके करोड़ों दर्शक-पाठकों के लिये अच्छा होगा. भूल-चूक लेनी देनी.
गैर आरक्षित (सवर्ण बहुल) तबके के लिये 10% आरक्षण के नवीनतम शोशे पर तमाम दलों के पुरुषों (तथा चंद महिलाओं) के बीच एक विस्मयकारी एकता के दर्शन हुए.
सब जानते हैं कि चुनाव के ठीक पहले बिना नोटिस, बिना बहुदलीय विमर्श के असंवैधानिक होते हुए भी यह ब्रह्मास्त्र किस लिये चलाया गया.
पर चुनाव करीब हैं और खुद को आरक्षण का विरोधी कह कर कोई दल अपयश का भागी नहीं बनना चाहता.
महिला आरक्षण पर मौन संसद
लेकिन महिलाओं को उनकी कुल संख्या के अनुपात से भी कम महज़ 33% आरक्षण दिलवाने को एक विधेयक जो चौथाई सदी से लटका हुआ है, उस पर सांसद बाहर भले बहुत सकारात्मक रुख दिखाते हों सदन के भीतर उसे एक मूक सहमति से टाल जाते हैं.
देश की 50% महिला आबादी के लिये 33% आरक्षण के इस वेताल को राजनीति के पीपल से उतार कर लाने का साहस छप्पनइंची छातीवाले प्रधानमंत्री जी तक ने नहीं किया. क्यों भाई ?
जब महिला सशक्तीकरण पर लगातार गोष्ठियाँ होती हैं तब तो शब्दों के धनी प्रधानमंत्री लगातार माताओं बहनों के सशक्तीकरण के लिये अपनी सरकार के वादों इरादों की बाबत इतने कसीदे पढ़ते रहते हैं.
लेकिन इस बार जब आरक्षण की परिधि बढ़ाने का समय आया तो राजा दुष्यंत की तरह उनको खुद अपने वादे याद नहीं रहे, यह क्या परम अचंभे का विषय नहीं है?
इस 10 फीसदी आरक्षण पर संसद में हो रही बहस में दो बातें हर समझदार महिला को खटकती रहीं. पहली तो यह, कि आयोजन लगभग पूरी तरह पुरुषों द्वारा युवा पुरुषों को नौकरी दिलवाने, सवर्ण गरीबों की इज़्ज़त बहाली की दलीलों का पुरुषों की अदालत में प्रस्तुतीकरण था.
सरकारी नौकरियों या कालेज तक कुल महिलाओं में से सात आठ फीसदी से अधिक की योग्यता ही नहीं, सो ज़ाहिर है इससे उनको तो कोई उल्लेखनीय फायदा होने से रहा.
आख़िर मौन क्यों हैं महिलाएं
अचरज तो यह है कि लंबे, हिम्मती और पुरुषों से अधिक शारीरिक जोखिम मोल लेकर सत्ता से दो दो हाथ करनेवाली, खतरनाक मोर्चों की खबरें जनता तक पहुँचानेवाली वरिष्ठ महिला पत्रकार भी टीवी चर्चाओं में इस मुद्दे को लाँघ गईं जैसे यह 10 फीसदी आरक्षण से कहीं बड़ा मुद्दा नहीं.
इस विषय पर अपने विचार रेखांकित करने का खयाल पुरुष एंकरों को भले न आया हो पर महिला एंकरों को भी नहीं आया यह भी गौरतलब है.
संसद से सड़क तक शादी ब्याह या रसोई छोड़कर अन्य मोर्चों , जैसे खेती बाड़ी, रोज़गार या हुनरमंदी की बेहतरी पर महिला वर्ग की अनदेखी करने की इसी भारतीय आदत के ही कारण किसान आंदोलन की कवरेज में भी हमको महिलाओं की सिरे से अनुपस्थिति दिखी थी.
यह महिलायें हमारी ख़बरों में आत्महत्या या पुलिस गोली से मरने वालों की विधवाओं और माताओं के रूप में ही पर्दों पर आती हैं.
मी टू मुद्दे पर मीडिया का रवैया
दूसरी बात 10% आरक्षण को पिछवाड़े के रास्ते इस अफरातफ़री से लाना निश्चय ही दुर्भाग्यपूर्ण है.
लेकिन क्या वजह है कि संसद में आरक्षण की कवरेज कर रहे मीडियाकर्मियों ने सरकार द्वारा सरकारी विज्ञापनों की दरें 25% बढ़ाये जाने की ख़बर तो लगातार साथ में चलाई पर महिलाओं तथा बच्चियों के शोषण का कोई ज़िक्र नहीं किया जो सीधे उनकी पुलिस, प्रशासन और राजनीति तक पहुँच न होने से जुड़ते हैं.
मी टू के बाद जिस तरह के शोषण की घटनायें मीडिया जमात के बीच से निकली हैं, उनको देखते हुए खुद मीडिया महिला कर्मियों के लिये इस ज्वलंत मुद्दे का वैसा महत्व नहीं बनता था जितना सवर्ण आरक्षण का?
कई बार हम वरिष्ठ मीडियाकर्मी यह सब देख सुन कर गहरी दुविधा से भर जाते हैं. एक पक्ष जनरल आरक्षण को लेकर एक स्पष्टीकरण देता है, दूसरा पक्ष दूसरा.
पर दोनों ही दशकों से लंबित महिला आरक्षण मुद्दे पर राज समाज की नैतिकता का उल्लंघन करते आये हैं. यहाँ आकर संसद या मीडिया में महिला आरक्षण मुद्दे पर चुस्त और ज़िद से धुकानेवाले प्रवक्ताओं का शून्य उजागर होता है.
इधर मीडिया का तेज़ी से विस्तार होने के साथ उसके मालिकों की ताकत और उनके द्वारा गढ़ा व्यवसायीकरण का स्वरूप लगातार बदल रहा है.
नई कंपनी की मालिकी और उसके कार्पोरेट आर्थिक स्रोत खुद भी महिलाकर्मियों की तनख्वाह, सुरक्षा और प्रसूति सुविधा जैसे मोर्चों पर आर्थिक और नैतिक रेखाओं का साफ उल्लंघन करने के दोषी रहे रहे हैं.
समुचित कानून बगैर इस अन्याय का निराकरण असंभव है. लेकिन कानून बनाती है संसद जहाँ महिलाओं की तादाद 10 फीसदी भी नहीं. इस विडंबना को समझें.