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नज़रिया- अगर करणी सेना की जगह दलित या मुसलमान होते तो क्या होता?

'केंद्र सरकार और राज्य सरकारों की करणी सेना के कारनामों पर चुप्पी लोकतांत्रिक देश के विवेक को गिरवी रखना है.'

By BBC News हिन्दी
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दिल्ली में एक सिनेमा हॉल की सुरक्षा करते जवान
DOMINIQUE FAGET/AFP/Getty Images
दिल्ली में एक सिनेमा हॉल की सुरक्षा करते जवान

क़ानून के राज का मतलब है कि क़ानून सबसे ऊपर है. साथ ही, क़ानून सबसे समान व्यवहार करता है. क्या आज हम ये बात तार्किक और तथ्यपूर्ण ढंग से कह सकते हैं कि भारत में क़ानून की ये हैसियत बची हुई है?

गुड़गांव में बच्चों से भरी स्कूल बस पर हुए हमले से यह साफ़ हो गया है कि जब क़ानून के राज की अनदेखी होती है, तो उसके नतीजे किस तरफ़ और किस हद तक जा सकते हैं.

सोचने की बात यह है कि अगर करणी सेना के 'उग्रवादियों' को लगता कि सरकार सख़्ती कर सकती है, तो क्या वे वैसी दहशत फैला पाते, जैसी फ़िलहाल उन्होंने कई राज्यों में फैला रखी है?

पहली नज़र में ये साफ़ हो जाता है कि करणी सेना वहीं सक्रिय है, जहां भारतीय जनता पार्टी की सरकारें हैं, यह महज़ संयोग नहीं है बल्कि उन्हें आश्वस्ति है कि उन पर कोई कार्रवाई नहीं होगी.

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करणी सेना का हंगामा
AFP/Getty Images
करणी सेना का हंगामा

आख़िर इन दोनों के बीच क्या संबंध है?

इन दोनों के बीच संबंध यह है कि केंद्र में भाजपा की सरकार बनने के बाद से सरकारों ने कुछ ख़ास तरह के गुटों की गतिविधियों को संरक्षण दिया है, जबकि दूसरे संगठनों के विरोध के प्रति दमन का रुख अपनाया गया है.

ग़ौर करें, करणी सेना के लोगों ने सिनेमाघरों पर हमले किए हैं, गाड़ियों में आग लगाई है, बंद आयोजित किए हैं, संजय लीला भंसाली और दीपिका पादुकोण की नाक काटकर लाने या उन पर हमला करने के लिए इनाम घोषित किए हैं, लेकिन क्या उनमें से किसी पर राष्ट्रीय सुरक्षा क़ानून लगाया गया है?

क्या किसी पर राजद्रोह का मुकदमा दर्ज हुआ है?

अब कन्हैया कुमार, जिग्नेश मेवाणी, उमर ख़ालिद, हार्दिक पटेल और चंद्रशेखर आज़ाद रावण को याद करें, इन सबको कभी न कभी जेल की हवा खानी पड़ी है. क्यों?

क्या उन्होंने एक काल्पनिक महारानी के सम्मान की रक्षा के लिए क़ानून को चुनौती दी? जाहिर है, नहीं.

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फ़िल्म के विरोध में गुरुग्राम में जलाई गई एक बस का निरीक्षण करते सुरक्षा दस्ते के जवान
AFP/Getty Images
फ़िल्म के विरोध में गुरुग्राम में जलाई गई एक बस का निरीक्षण करते सुरक्षा दस्ते के जवान

उन्होंने कुछ राजनीतिक मांगें उठाईं.

चंद्रशेखर आज़ाद रावण की भीम आर्मी ने दलितों के उत्पीड़न के ख़िलाफ़ ज़रूर आवाज़ उठाई थी, आज वे कोर्ट से ज़मानत मिलने के बावजूद जेल में पड़े हैं, क्योंकि उत्तर प्रदेश सरकार ने उन पर रासुका लगा दिया, लेकिन उत्तर प्रदेश सरकार ने यही कदम उन सवर्णों के ख़िलाफ़ नहीं उठाया, जिनकी वजह से भीम आर्मी का गठन हुआ.

इस संदर्भ को ध्यान में रखते हुए हमें फिल्म पद्मावत के सिलसिले में सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियों पर ध्यान देना चाहिए.

कोर्ट ने कोई नई बात नहीं कही. न्यायिक निर्णयों में ऐसी टिप्पणियां बहुत बार की गई हैं. जो आदेश दिया, वह भी इस तरह के मामलों में पहले दिए गए आदेशों के अनुरूप ही है मगर अब संदर्भ बिल्कुल बदला हुआ है.

मुद्दा कई राज्यों में 'पद्मावत' को प्रतिबंधित करने से जुड़ा था.

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अतीत में राज्य सरकारों ने फ़िल्मों के प्रदर्शन पर प्रतिबंध लगाने की कोशिश फ़ौरी हालात से निपटने के लिए की, बेशक यह भी अपने संवैधानिक दायित्व से बचने का प्रयास था.

निर्वाचित सरकारों की यह ज़िम्मेदारी है कि संविधान से मिले अपने अधिकारों का इस्तेमाल कर रहे व्यक्ति या संस्था को वो संरक्षण दें.

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत हर भारतीय नागरिक को 'विवेकपूर्ण सीमाओं' के अंदर अभिव्यक्ति की आज़ादी मिली हुई है. फिल्म बनाना बेशक इसी बुनियादी हक़ के तहत आता है, किसी फ़िल्म में हुई अभिव्यक्ति विवेकपूर्ण सीमाओं के अंदर है, यह तय करना केंद्रीय फ़िल्म प्रमाणन बोर्ड (सीबीएफ़सी) का काम है.

किसी फिल्म को इस संस्था ने सर्टिफ़िकेट जारी कर दिया, तब सरकारें उस पर रोक नहीं लगा सकतीं. वे 'सुपर सेंसर' की भूमिका नहीं निभा सकतीं.

दिल्ली में एक सिनेमा हॉल की सुरक्षा करते जवान
DOMINIQUE FAGET/AFP/Getty Images
दिल्ली में एक सिनेमा हॉल की सुरक्षा करते जवान

सुरक्षा सुनिश्चित करना सरकार की ज़िम्मेदारी है.

2012 में फ़िल्म 'डैम-999' पर तमिलनाडु सरकार की पाबंदी को ख़ारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने बात साफ़ कर दी थी, तब कोर्ट ने यह भी साफ़ किया था कि क़ानून-व्यवस्था भंग होने की आशंका किसी फ़िल्म पर रोक लगाने का आधार नहीं हो सकता, क़ानून व्यवस्था सुनिश्चित करना राज्य सरकार का संवैधानिक दायित्व है. ये बात न्यायपालिका ने बहुत से दूसरे मौक़ों पर भी स्षष्ट की है.

यही बात संजय लीला भंसाली की फिल्म 'पद्मावत' के प्रदर्शन पर गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश और हरियाणा में लगाई गई रोक के ख़िलाफ़ स्टे देते हुए प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्र, जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड़ और जस्टिस ए.एम. खनविलकर की खंडपीठ ने भी दोहराई.

ये बातें उसूलों पर आधारित किसी भी संविधान की आत्मा हैं, इसलिए न्यायपालिका के ऐसे फ़ैसले भारतीय संविधान के संबंधित अनुच्छेदों और क़ानूनों की स्वाभाविक व्याख्या माने गए.

अतीत में ऐसे निर्णय आने के बाद समाज के विवेकशील तबके तब आश्वस्त हो गए क्योंकि कोर्ट ने प्रतिबंधित की गई फ़िल्मों का प्रदर्शन सुनिश्चित कराने का निर्देश सरकारों को दिया था.

इन राज्य सरकारों की भारतीय संविधान और उसके उसूलों में आस्था है या नहीं, ऐसी कोई बहस तब नहीं थी, कम से कम ऊपरी तौर पर वे आस्था का प्रदर्शन कर रही थीं.

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AFP/Getty Images
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लेकिन अब एक बड़ा फ़र्क आ गया है.

आज केंद्र और देश के ज़्यादातर राज्यों में ऐसी सरकारें हैं, जिनकी वर्तमान संविधान और इसके मूल्यों में आस्था संदिग्ध है.

ऐसा उनकी वैचारिक पृष्ठभूमि के कारण है, इस बदलाव का असर व्यापक रूप से समाज में देखने को मिला है, पिछले साढ़े तीन वर्षों में एक ऐसा माहौल बना है, जिसमें परंपरागत रूप से दबंग रही ताकतें अपनी दबंगई और पूर्वाग्रहों का खुलेआम इज़हार कर रही हैं.

ऐसा अक्सर हिंसक तरीकों से भी किया गया है.

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'पद्मावत' से जुड़े विवाद को इस मंजर से अलग करके नहीं देखा जा सकता, इस फिल्म के निर्माण से लेकर उसे सीबीएफ़सी का सर्टिफ़िकेट मिलने तक संवैधानिक प्रावधानों को अनेक चुनौतियां मिलीं, खुद भीड़तंत्र को तुष्ट करने के लिए सीबीएफ़सी ने समझौते किए, वरना 'पद्मावती' 'पद्मावत' में तब्दील नहीं होती.

इसी पृष्ठभूमि में प्रधान न्यायाधीश जस्टिस मिश्र की ये टिप्पणी महत्त्वपूर्ण है कि 'मेरा संवैधानिक विवेक आहत है.' और इसी पृष्ठभूमि के कारण सुप्रीम कोर्ट के स्पष्ट आदेश के बाद भी यह भरोसा नहीं बंधा है कि संवैधानिक मूल्यों में आस्था रखने वाले तबकों का विवेक आगे और आहत नहीं होगा.

दरअसल, ये विवेक ही आज दांव पर लगा है इसलिए इन तबकों को आश्वस्त नहीं होना चाहिए, संविधान की रक्षा का संघर्ष लंबा है, इसे राजनीतिक ज़मीन पर लड़ने के अलावा कोई और विकल्प हमारे सामने नहीं है.

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(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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English summary
padmavat row if Dalits or Muslims were in place of karni sena
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