भारत के भीतर 'मिनी पाकिस्तान' का जुमला कैसे ज़ोर पकड़ता गया
सईद नक़वी कहते हैं, "मेरे कुछ रिश्तेदार पाकिस्तान जाकर बस गए थे और हमेशा इस बात को दोहराते थे कि आप तो भाईजान बड़े सेक्युलर मुल्क में रहते हैं और आपका सबके साथ बराबरी का दर्जा है. लेकिन अब उन्हें भी शायद मेरे हालात खटकने लगे हैं."
"हम और हमारे माँ-बाप यहीं पैदा हुए, यहीं काम करते हैं और यहीं मरेंगे. लेकिन मरने के पहले बस यही सुनना चाहते हैं कि हम भारत में जिए और भारत में ही मरे. मिनी पाकिस्तान में नहीं".
58 साल की साहिबा बीबी जब ये बता रहीं थीं, उस समय उनके डेढ़ सौ मीटर पीछे एक बुलडोज़र दिल्ली के जहांगीरपुरी इलाक़े में एक 'अनाधिकृत इमारत' गिरा रहा था.
क़रीब आधे घंटे बाद उसी इलाक़े की एक कॉलोनी में मुलाक़ात सुदेश कुमार से हुई जिन्हें लगता है, "सड़क के उस पार तो मिनी पाकिस्तान है, जहाँ अब बांग्लादेश से घुसपैठिए भी आकर बस चुके हैं. देर रात निकल जाइए बस, आपका मोबाइल छिनना तय है".
इस इलाक़े ने कुछ ही दिन पहले साम्प्रदायिक हिंसा और तनाव देखा है और उसके बाद 'कड़ी' सरकारी कार्रवाई भी.
वहाँ से लौटते समय ज़हन में 'मिनी-पाकिस्तान' और 'बांग्लादेशी घुसपैठिए' ही दो शब्द गूंज रहे थे.
आप में से कितनों ने बचपन से लेकर आज तक, एक आज़ाद-स्वतंत्र भारत के भीतर 'मिनी-पाकिस्तान' या 'बांग्लादेशी कॉलोनी' जैसे बातें सुनीं हैं?
दिल्ली से मात्र डेढ़ घंटे की दूरी पर बसे मेरठ शहर का योगदान भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में लाजवाब है.
1857 में भारत में शासन कर रही ईस्ट इंडिया कंपनी के ख़िलाफ़ पहली बार बंदूक़ें मेरठ में ही उठी थीं.
भारत की आज़ादी के 75 साल बाद उसी मेरठ की कैंची बाज़ार के पास काम करने वाले राम लाल अक़सर अपने रिश्तेदारों से सुनते हैं, "तू यार, रोज़ मिनी पाकिस्तान काहे को जाता है. पूरे मेरठ में काम न है और कहीं?"
- पाकिस्तान ज़िंदाबाद के नारे लगाना राजद्रोह है या नहीं?
- वो समझौता जब पाकिस्तान और भारत ने अल्पसंख्यकों की रक्षा की ठानी
"अब हम तो ठहरे कारीगर, साहब. दिहाड़ी, मुस्लिमों के यहाँ काम करने से ही मिलती रही है. इससे क्या फ़र्क़ पड़ता है कि उनके मोहल्ले जाकर रोज़ कमा लेते हैं. जिसे लोग मिनी-पाकिस्तान समझते हैं, हमारे घर में तो लक्ष्मी जी वहीं से होकर आती हैं", राम लाल ने मुस्कुराते हुए बताया.
अगर राम लाल को इस बात से फ़र्क़ नहीं पड़ता कि वो मेरठ शहर में किसी हिंदू या मुसलमान के यहाँ काम करते हैं तो फिर ये 'मिनी पाकिस्तान' का जुमला कहाँ से निकला?
नामचीन पत्रकार और लेखक सईद नक़वी के मुताबिक़ "ये तो उन लोगों की देन है, जिन्हें ये पता ही नहीं कि पाकिस्तान क्यों बना और भारत, भारत क्यों रहा".
सईद नक़वी कहते हैं, "मेरे कुछ रिश्तेदार पाकिस्तान जाकर बस गए थे और हमेशा इस बात को दोहराते थे कि आप तो भाईजान बड़े सेक्युलर मुल्क में रहते हैं और आपका सबके साथ बराबरी का दर्जा है. लेकिन अब उन्हें भी शायद मेरे हालात खटकने लगे हैं",
- हिंदू-मुसलमान वाले भड़काऊ भाषण देकर लोग बच कैसे जाते हैं?
- 'पाकिस्तान ज़िंदाबाद' सुनकर जब गुस्सा हुए ओवैसी
"हमारे लोग" और "उनके लोग"
इतिहास को खंगालें तो साफ़ दिखता है कि हिंदुस्तान के बँटवारे की आवाज़ ब्रितानी शासन काल में ही पनपी और तेज़ भी होती चली गई.
मुस्लिम लीग की स्थापना भारत के मुसलमानों के 'हितों की रक्षा करने के लिए' हुई बताई जाती है जबकि हिंदू महासभा की स्थापना भी उसी दौरान हुई जब कांग्रेस और मुस्लिम लीग में हुए समझौते से सभी प्रांतों में मुसलमानों को 'विशेष अधिकार और संरक्षण मिले'.
लेकिन इलाक़ों की 'ब्रैंडिंग' आज़ादी के पहले वाले भारत में ही शुरू हो चुकी थी.
राजनीतिक विश्लेषक नाज़िमा परवीन अपनी किताब 'कंटेस्टेड होमलैंड्स: पॉलिटिक्स ऑफ़ स्पेस एंड आइडेंटिटी' में इलाक़ों के सांप्रदायिक बँटवारे के इतिहास की वजह को "एक मॉडर्न वाक़या बताती हैं".
नाज़िमा परवीन के मुताबिक़, "भारत पर हुक़ूमत करने वाली ब्रिटिश सरकार ने धर्म के आधार पर मोहल्लों को पहचान दी. उन्होंने तीन तरह के इलाक़े बनाए, हिंदू इलाक़ा, मुस्लिम इलाक़ा और मिक्स्ड ज़ोन. अब 1940 में जब विभाजन की मांग बढ़ती चली गई तो हिंदू राष्ट्र या पाकिस्तान की डिमांड इसी आधार पर गहराती गई".
इस बात का शायद सबसे बड़ा उदाहरण राजधानी दिल्ली में ही दिख जाता है.
शहर के करोलबाग़, पहाड़गंज, सब्ज़ी मंडी और आस-पास के इलाक़ों में अल्पसंख्यक ही सही लेकिन एक बड़ी मुस्लिम आबादी रहती थी, जिसे बँटवारे के दौरान दूसरे ऐसे इलाक़ों में जाना पड़ा, जहाँ उनके रिश्तेदार वग़ैरह पहले से रहते थे.
- शोएब अख़्तर ने क्यों कहा, 'भारत नहीं अल्लाह पालता है मुझे'
- 'हम पाकिस्तान ज़िंदाबाद के नारे क्यों लगाएंगे'
ज़ाहिर है, पाकिस्तान से आने वाले सिख और हिंदू शरणार्थियों को भी बसाने की ज़िम्मेदारी केंद्र सरकार की ही थी.
ख़ास बात ये है कि 'स्पेशल ज़ोन' के नाम से जाने जाने वाले इन इलाक़ों की तब तक कोई 'क़ानूनी वैधता' नहीं थी क्योंकि इन्हें 'स्टेट ऑफ़ इमर्जेंसी' के दौरान राष्ट्रीय सरकार के एक आदेश के ज़रिए बसाया जा रहा था.
ग़ौरतलब है कि भारतीय स्वतंत्रा संग्राम में कांग्रेस के बड़े नेता और आज़ादी के बाद में नेहरू कैबिनेट में मंत्री रहने वाले मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ने विभाजन के क़रीब 24 साल पहले ही आगे आने वाले दिनों और "दो अलग देशों में अल्पसंख्यकों की दशा' पर अपनी चिंता ज़ाहिर कर दी थी.
इंडियन पॉलिटिकल साइंस जर्नल में छपे एक लेख "मौलाना अबुल कलाम आज़ाद: ए क्रिटिकल एनालिसिस, लाइफ़ एंड वर्क" के मुताबिक़ 1923 के कांग्रेस पार्टी अधिवेशन में अध्यक्ष होते हुए अपने भाषण में मौलाना आज़ाद ने कहा था, "अगर बादलों के बीच से एक फ़रिश्ता उतर कर आए और दिल्ली की क़ुतुब मीनार पर बैठ कर कहे कि भारत को स्वराज मिल सकता है, बस हिंदू-मुसलमान एकता छोड़नी पड़ेगी तो मैं स्वराज को त्याग हिंदू-मुस्लिम एकता को चुनूँगा".
https://www.youtube.com/watch?v=Ad5v_jDgGS8
ज़ाहिर है, देश में धर्म के आधार पर बँटवारे के स्वर ने तेज़ी पकड़ ली थी.
नामचीन इतिहासकार इरफ़ान हबीब बताते हैं कि, "बँटवारे के तुरंत बाद नए रिहायशी इलाक़ों को लेकर अक़्सर "हमारे लोग" और "उनके लोग" सुनने को मिलता था. "हमारे लोग" उनके लिए सिख या हिंदू पाकिस्तान से आए थे और "उनके लोग" पाकिस्तानी मुसलमानों के लिए".
उनके मुताबिक़, "ये सही है कि एंटी-इंडिया या प्रो-इंडिया या एंटी-पाकिस्तान या मिनी-पाकिस्तान जैसे शब्द अब बहुत ज़्यादा आम होते जा रहे हैं. लेकिन 1947 के बँटवारे के पहले भी जब मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा के भाषण होते थे, बहस होती थी तब भी इस तरह के शब्दों का इस्तेमाल होता था. इन मसलों पर सरदार पटेल और जवाहरलाल नेहरू अपनी-अपनी बातें और ख़याल लेकर गांधी जी के पास भी अक़्सर जाया करते थे".
https://www.youtube.com/watch?v=oS3-eIZNkKY
तब और अब
लौटते हैं, साल 2013 में.
दुनिया के महानतम बल्लेबाज़ों में से एक सचिन तेंडुलकर मुंबई में अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट को संन्यास कहते हुए वेस्टइंडीज़ के ख़िलाफ़ अपना आख़िरी टेस्ट खेल रहे थे.
पूरा देश उस हफ़्ते जैसे 'सचिनमय" हो चुका था और एक्सपर्ट्स कहते नहीं थक रहे थे कि कैसे क़रीब दो दशक तक सचिन के बल्ले ने हर धर्म, जाति और मज़हब के लोगों को एक कर डाला था.
टेस्ट मैच का तीसरा दिन था और मुंबई के एक स्थानीय अख़बार के सांतवे पन्ने पर नज़र एक एक छोटी सी खबर पर टिकी हुई थी. हेडलाइन थी, "छोटा पाकिस्तान और ठाणे के बांग्लादेश की होगी जांच"
तो मुंबई और ठाणे के बीच में एक इलाक़ा है, जिसे नालासोपारा के नाम से जाना जाता है. यहाँ 1000 के क़रीब झोपड़पट्टियाँ हैं, जिसमें अधिकांश मुसलमान रहते रहे हैं. अब 2012-2013 के बीच में कई दफ़ा यहाँ के नागरिकों के बिजली बिलों में पता "छोटा पाकिस्तान" लिखा हुआ पहुँचा.
इसके कुछ दिनों बाद मुंबई के ही मीरा-भायंदर इलाक़े में बसी गाँधीनगर कॉलोनी में एक नवजात के बर्थ सर्टिफ़िकेट में लिखे हुए पते में "बांग्लादेश झोपड़पट्टी" लिखा हुआ था.
मामले ने तूल पकड़ा, मीडिया में खबरें आईं और सरकार ने तुरंत 'कड़ी कार्रवाई' का वादा किया.
लेकिन आज भी बोलचाल में इन दोनों इलाक़ों को वही बुलाया जाता है जो 2012-2013 में "ग़लती" से सरकारी दस्तावेज़ में दर्ज कर दिया गया था.
जौनपुर, उत्तर प्रदेश के रहने वाले मनीष यादव पिछले 15 साल से मुंबई में ड्राइवर हैं. उन्होंने बताया, "छोटे थे तो जौनपुर या सुल्तानपुर के कुछ इलाक़ों को मुस्लिम बस्ती या मुसलमानी कॉलोनी के नाम से सुना करते थे. मुंबई पहुँचने पर एक महीने ड्राइविंग और सड़कों को पहचानने की अनौपचारिक ट्रेनिंग में रोज़ ही सुनने को मिलता था, ये लादेन नगर है, वहाँ छोटे पाकिस्तान से होकर गुज़रे तो बटुवा छिन जाएगा. आज भी वही सुनते हैं".
लेकिन भारत में एक सोच ये भी है कि, "बँटवारे से जो हासिल होना था वो पूरी तरह नहीं हो सका".
जाने-माने लेखक-पत्रकार और भारतीय जनता पार्टी के पूर्व सांसद और उपाध्यक्ष बलबीर पुंज का मत है कि, "पाकिस्तान की डिमांड कहाँ से आई? ये डिमांड पाकिस्तान के लाहौर या पेशावर से नहीं आई. इसकी 90% डिमांड तब के उत्तर प्रदेश और बिहार राज्यों के मुस्लिमों ने की थी और वे बँटवारे के बाद वहाँ गए भी नहीं. उनका माइंडसेट भी वही है, लोग भी वही हैं. बस उन्होंने दो काम किए हैं. पहला, घर के बाहर मुस्लिम लीग का बैनर हठा कर कांग्रेस का बोर्ड लगा लिया और दूसरा 1930 और 1940 के दशक में जैसे वे कांग्रेस को गाली देते थे, अब वैसी ही गालियाँ भाजपा को देते हैं".
दरअसल, बलबीर पुंज का इशारा 2014 और उसके बाद के राजनीतिक-सामाजिक भारत में जारी एक बहस पर है.
बहस ये कि जब से केंद्र में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा सरकार ज़ोर-शोर से आई, तब से भारत में अल्पसंख्यक समुदाय थोड़ा 'असहज' महसूस करता जा रहा है.
ये भी पढ़ें - बँटवारे के लिए मुसलमान दोषी नहीं, तो फिर कौन?
अल्पसंख्यकों की बेचैनी
बहस ये कि जब से भाजपा सरकार दोबारा आई तब से गोरक्षा और गोहत्या के मामलों में कई मुस्लिम निशाना बनते रहे हैं.
बहस ये भी कि जब से केंद्र में भाजपा सरकार आई उसने एनआरसी और सीएए जैसे क़ानून जगाए हैं, जिनसे 'राष्ट्रवाद' की एक नई भावना जन्म लेने की कोशिश कर रही है और उसका आधार 'पड़ोसी पाकिस्तान की मुख़ालफ़त' और 'पड़ोसी बांग्लादेश से आए घुसपैठियों को निकाल भगाने' पर टिकी हुई है.
बहस ये भी कि जब भी कहीं साम्प्रदायिक तनाव या दंगे की घटनाएँ होती हैं तो "मुसलमानों को पाकिस्तान भेजो" या "रोहिंग्या शरणार्थियों को बर्मा बॉर्डर के बाहर खदेड़ो' का स्वर तेज हो जाता है.
इन संजीदा हालात में देश में रहने वाले 25 करोड़ से ज़्यादा अल्पसंख्यकों की बेचैनी भी बढ़ी दिखी है.
प्रोफ़ेसर अर्चना गोस्वामी काशी विद्यापीठ, वाराणसी में इतिहास की प्रोफ़ेसर हैं और उन्हें लगता है कि, "जहाँ तक एनआरसी या मिनी-पाकिस्तान और घुसपैठियों को भगाओ जैसी बातों का सवाल है तो पहली चीज़ मानवता होती है. हिंदू-मुसलमान उसके बाद आता है."
उन्होंने कहा, "देश का विभाजन हुआ और क्यों हुआ, इस बात को अब पचासों साल बीत चुके हैं. लेकिन विभाजन की राजनीति अभी भी चल रही है, जिसके पीछे हमारे अपने नेता हैं और उन्हें वोट देने वाली जनता है. लेकिन अगर ये कहा जाए कि आम आदमी भी इस फेरे में पड़ चुका है तो शायद अतिशयोक्ति होगी क्योंकि साधारण आदमी तो कमाने-खाने की जद्दोजहद में हैं. अब इसमें मिनी पाकिस्तान और मंदिर मस्जिद करने के बजाय सामाजिक और आर्थिक चुनौतियों पर ज़्यादा ध्यान देने की ज़रूरत है".
लेकिन हक़ीक़त ये भी है कि भारत में अनेकों पीढ़ियाँ 'मिनी-पाकिस्तान' या 'बांग्लादेशी कॉलोनी' जैसे आइडियाज़ को देखते-सुनते और जीते हुए पली-बढ़ी हैं. उनके ज़हन में सवाल पहले भी थे, आज भी हैं.
महाराष्ट्र के बड़े शहरों में औरंगाबाद भी शुमार है. सरकारी आँकड़ों की मानें तो यहाँ अल्पसंख्यक मुस्लिमों की आबादी 31% है.
बीबीसी सहयोगी और वरिष्ठ पत्रकार आशीष दीक्षित भी औरंगाबाद में पले-बढ़े हैं जहाँ हिंदू-मुस्लिम दंगों और मराठा बनाम दलितों के बीच दंगों का इतिहास रहा है. लेकिन अपने शहर की यादें "इधर" या "उधर" वाली ही हैं.
आशीष याद करते हैं, "क्योंकि शहर में ज़्यादातर इलाक़े धर्म और काम के आधार पर चिह्नित हैं तो जब मैं बड़ा हो रहा था तो कभी मुस्लिम इलाक़ों में जाने की ज़रूरत ही नहीं पड़ी. स्कूल, ट्यूशन, बाज़ार, थिएटर जैसी सारी चीज़ें अपने-अपने इलाक़ों में होती थीं. कॉलेज जाने पर एक बार घनी मुस्लिम आबादी वाले इलाक़े में पहुँचा तो लगा कहीं और आ गया हूँ. वहाँ हरे झंडे लगे थे और मराठी भाषा नहीं बल्कि उर्दू में बोर्ड्स लगे थे. प्रचार होता था कि हरे झंडे, चाँद-तारे वाले पाकिस्तान के हैं जो कि सच्चाई नहीं थी. बहुत बुरा लग रहा था कि कि इस तरह की सोच और चीज़ें क्यों होती हैं".
आमतौर पर देखा गया है कि जब समाज का एक पहलू दूसरे को देखता है, उससे जुड़ता है तो चीज़ें बेहतर और आसान होती हैं. आज आशीष दीक्षित को भी ख़ुशी है कि डर से ही सही लेकिन ये औरंगाबाद के उस 'मिनी-पाकिस्तान' में पहुँचे तो सही.
उन्होंने आगे बताया, "फिर वहाँ के मुस्लिम मेरे दोस्त होते चले गए. होली-दिवाली और ईद हम एक दूसरे के घर में मनाने लगे".
अमेरिका की ब्राउन यूनिवर्सिटी में राजनीति शास्त्र के प्रोफ़ेसर आशुतोष वार्ष्णेय अपनी किताब "एथनिक कॉन्फ़्लिक्ट एंड सिविक लाइफ़: हिन्दूज एंड मुस्लिम्स इन इंडिया" में इस बात पर ज़ोर देते हैं कि समाज में साम्प्रदायिक दूरियाँ काम करने के रास्ते नागरिक सहभागिता से ही संभव है".
उनके अनुसार, "कारोबारी संस्थाएँ, ट्रेड यूनियंस, राजनीतिक दल और प्रोफ़ेशनल संस्थाएँ जातीय हिंसा को रोक सकती हैं, अगर नागरिकों में सहभागिता बढ़ाने के प्रयास किए जाएँ. ऐसा करने से उन ताक़तवर राजनेताओं को भी रोका जा सकेगा जो हिंदुओं और मुसलमानों का धर्म के नाम पर ध्रुवीकरण करते हैं".
गुजरात का ही उदाहरण ले लीजिए. स्वतंत्र भारत के इतिहास में इस राज्य में कई साम्प्रदायिक दंगे हो चुके हैं.
आज की एक हक़ीक़त ये भी है कि राजधानी अहमदाबाद में एक मुस्लिम-बहुल इलाक़ा है, जूहापुरा, जिसे कई लोग 'मिनी-पाकिस्तान' के नाम से बुलाते हैं, जानते हैं. ये भी सच है कि स्थानीय लोग इस इलाक़े और बग़ल के हिंदू-बहुल वेजलपुर के बीच वाली सड़क को 'वागाह बॉर्डर' के नाम से संबोधित करते हैं.
ये भी पढ़ें - विभाजन से ना भारत सुखी, ना इस्लाम के नाम पर माँगने वाले- आरएसएस प्रमुख
पते में लिखा पाकिस्तान
2015 में यहाँ एक आपसी झड़प में अल्पसंख्यक समुदाय के दो युवक भी शामिल थे और उनके ख़िलाफ़ दर्ज हुई एफ़आईआर में उनका पता 'पाकिस्तान' लिखा हुआ था.
तत्कालीन गृह सचिव जीएस मलिक ने मामले पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए कहा था, "कभी-कभी शिकायत दर्ज कराते समय शिकायतकर्ता या दर्ज करने वाले से ग़लती हो जाती है. हमने उस त्रुटि को तुरंत दूर कर दिया है".
गुजरात स्थित समाजशास्त्री प्रोफ़ेसर गौरांग जानी ने याद दिलाए जाने पर बिल्कुल भी हैरानी नहीं जताई.
उन्होंने कहा, "सच्चाई ये है कि दोनों समुदाय एक दूसरे पर आश्रित हैं. बिज़नेस हो या खेती दोनों एक दूसरे पर निर्भर तो रहे लेकिन इस बात पर किसी ने ध्यान नहीं दिया और न ही ध्यान दिलाया गया. तो फ़ंक्शनल यूनिटी को भी बढ़ावा नहीं दिया गया. ये सिस्टम की नाकामी तो है ही, साथ में उन राजनीतिक दलों की भी है जो संविधान को समझ ही नहीं सके. आज किसी भी पार्टी के कार्यकर्ता को साम्प्रदायिक सद्भाव वाले इतिहास का पता ही नहीं है. मैं ख़ुद गुजरात के स्कूल में पढ़ा लेकिन कभी स्कूल में ईद मनाते नहीं देखी. घरों की डाइनिंग टेबल पर जैसे लोग 'मिनी पाकिस्तान' पर बात किया करते थे आज के समाज में उसे गंभीरता से लिया जा रहा है".
ध्यान देने की ज़रूरत है कि उन समुदायों पर क्या बीतती है, जिनके ऊपर इस तरह के आरोप लगते रहे हैं कि वे "भारत के न हो सके", "वे बांग्लादेश से यहाँ मुफ़्त घर और अपनी ग़रीबी दूर करने आ गए", 'वे आईएसआई के गढ़ बन सकते हैं", वग़ैरह-वग़ैरह.
उत्तर प्रदेश के आज़मगढ़ ज़िले में एक इलाक़ा है, संजरपुर. कुछ साल पहले वहाँ कई दफ़ा आना-जाना होता था क्योंकि उस इलाक़े के कई युवकों पर नेशनल सिक्योरिटी एक्ट और पोटा जैसे संगीन क़ानून वाली धाराओं के मुक़दमें चल रहे थे.
मामले संजरपुर के चंद परिवारों से जुड़े थे लेकिन इलाक़े में हर दूसरे घर में शादियों के रिश्ते आने बंद से हो गए थे, युवाओं को दूसरे शहर में घर का पता दूसरा पड़ रहा थे-जिससे किराए का कमरा मिल सके.
गाँव के पूर्व प्रधान इमरान काज़मी ने कहा था, "हम संजरपुर वाले से आईएसआई वाले, पाकिस्तान वाले कब हो गए, पता ही नहीं चला".
जवाब इतिहासकार-प्रोफ़ेसर इरफ़ान हबीब ने दिया.
उन्होंने कहा, "समुदायों पर इस तरह के जुमलेबाज़ी या एक कटघरे में खड़े किए जाने का ट्रॉमा होता है. उनके लिए नौकरियां कम हो जाती हैं, एम्प्लॉयर घबराते हैं कि अगर मुसलमानों को रखेंगे तो कल किसी मुसीबत में न पड़ जाएँ.''
''भारतीय संविधान में लिखा है कि देश के राजनीतिक सिस्टम को चलाने में धर्म की कोई जगह नहीं है. न सिर्फ़ अल्पसंख्यक बल्कि बहुसंख्यक आबादी को भी भी ये लॉंग-टर्म में नुक़सान करने वाला है क्योंकि फिर हर चीज़ में धर्म क्या कहता है, सुना जाने लगा तो ये कौन सुनेगा कि अक़्ल क्या कहती है".
ये भी पढ़ें -
पाकिस्तान से आए सिंधी लोगों ने कैसे नया शहर बसा डाला
प्यार.. निकाह.. 'झांसा'..पाकिस्तान से वापसी.. कहानी उज़मा की
क़र्ज़ में डूबे भारत के राज्य क्या 'मिनी श्रीलंका' बन जाएंगे?
(बीबीसी हिन्दी के एंड्रॉएड ऐप के लिए आप यहां क्लिक कर सकते हैं. आप हमें फ़ेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम और यूट्यूब पर फ़ॉलो भी कर सकते हैं.)