#MeToo: 26 साल पहले महिलाओं की ख़ामोशी को आवाज़ देनेवाली योद्धा
वो कहती हैं, "जो लोग एम जे अकबर के मामले में औरतों को कहते है कि उन्हें विधि सम्मत प्रक्रिया के तहत आवाज़ उठानी चाहिए. हम उनसे पूछना चाहते है कि भंवरी ने इसी प्रक्रिया का पालन किया था, लेकिन 22 साल से निचली अदालत के फ़ैसले के विरुद्ध हाई कोर्ट में अपील विचाराधीन पड़ी है."
"इसके बावजूद भंवरी मामले से पूरे देश में महिला आंदोलन संगठित हुआ और उस क्षेत्र में कुछ हद तक बाल विवाह की कुप्रथा पर लगाम लगी है. क़ानून का डर पैदा हुआ है.
उम्र के तकाजे से ज़्यादा यह उसके हालात और आपबीती को बयां करता है. भंवरी देवी के चेहरे पर उभरी झुर्रियो में उस दौर के '#MeToo आंदोलन' के अल्फ़ाज़ दर्ज हैं.
राजस्थान में जयपुर के निकट भटेरी गांव की भवंरी कथित रूप से उस वक्त सामूहिक बलात्कार का शिकार हुईं जब उन्होंने बाल विवाह की बुराई के विरुद्ध आवाज़ उठाई थी.
सामाजिक कार्यकर्त्ता कविता श्रीवास्तव कहती हैं, "यह महिलाओं की ओर से सितम के ख़िलाफ़ चुप्पी तोड़ने का आगाज़ था."
भंवरी देवी मामले में बेशक आरोपी बरी हो गए, लेकिन वो इंसाफ़ के लिए अपनी लड़ाई जारी रखे हुए हैं. भंवरी देवी खुद कहती हैं, "चटनी रोटी खा कर भी मैं अन्याय के विरुद्ध लड़ती रहूंगी."
भंवरी ने ज़िंदगी की शुरुआत आंगनवाड़ी साथिन के रूप में की. इसी के तहत भंवरी ने अपने क्षेत्र में बाल विवाह के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई. आरोप है कि 22 सितंबर, 1992 के दिन क्षेत्र के प्रभावशाली लोगों ने उसके साथ बलात्कार किया.
लंबी लड़ाई के बाद मुकदमा अदालत तक पहुंचा, लेकिन आरोपी बरी हो गए. अब इस फैसले के विरुद्ध हाई कोर्ट में अपील विचाराधीन है. मामले को 22 साल से ज़्यादा हो गए हैं और इस दौरान तीन अभियुक्तों की मौत भी हो चुकी है.
कितना मुश्किल था उस वक्त का #MeToo
जयपुर से 55 किलोमीटर दूर भटेरी में भंवरी और उनके परिवार की ज़िंदगी बहुत सहज नहीं है. उनके जीवन में कदम-कदम पर उपहास हैं, ताने हैं. भंवरी कहती हैं, "अब भी जाति, समाज और गांव-पंचायत में उन्हें किनारे रखा जाता है."
जब उनसे मिलने पहुंचा तो वो खेतों में मिलीं. पानी को मोहताज दो बीघा धरती का खेत ऊसर है. वैसे ही जैसे कोई इंसानी ज़िंदगी किसी हादसे और हालात से बेनूर हो गई हो.
भंवरी ने खेत से सटा ज़मीन का वो टुकड़ा दिखाया जहाँ कोई 26 साल पहले उसके साथ कथित तौर पर ज़्यादती की गई थी.
वो कहती हैं, "उस वक्त आवाज़ उठाना बहुत मुश्किल था. शुरू में परिवार के सदस्य भी मायूस हो गए. वो बोले कि हमें मर जाना चाहिए. मैंने हिम्मत बटोरी और कहा हमने कुछ ग़लत नहीं किया बल्कि हमारे साथ सितम हुआ है. फिर परिवार ने पूरा साथ दिया."
'#MeToo मुहीम' के बारे में भंवरी परिभाषिक तौर पर इतना ही जानती हैं कि कार्यस्थल पर कुछ मर्द अफ़सरों और बड़े लोगों ने ज़ोर ज़बरदस्ती की है और इसके ख़िलाफ़ लड़कियां और महिलाएं खुल कर लड़ रही हैं.
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वो कहने लगीं, "मुझे यह सुन कर अच्छा लगा कि महिलाओं ने कार्यस्थल पर अन्याय के ख़िलाफ़ मोर्चा खोला है. ऐसे सितमगर अफ़सरों को कड़ी सजा मिलनी चाहिए. वो समाज और सरकार से पूछती हैं, "आखिर मेरा कसूर क्या था? क्या छोटी-छोटी बच्चियों को बाल विवाह से बचाना अपराध है?"
कहने लगीं, "जब आज भी औरत के लिए ज़्यादती के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाना दुश्वार है तो उस वक्त मेरे लिए कितना कठिन रहा होगा. उस वक्त हर निगाह मुझे हिकारत भरी नज़रों से देखती थी. आज भी अगर महिला संगठन मेरे साथ न हों तो जीना मुश्किल है."
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नकारने की संस्कृति
भंवरी को संतोष है कि उस घटना के बाद देश में जागृति पैदा हुई और कार्यस्थल पर महिलाओं की सुरक्षा के लिए नियम-कायदे बने.
पीपुल्स यूनियन फ़ॉर सिविल लिबर्टीज़ की अध्यक्ष कविता श्रीवास्तव उस मुहीम और आंदोलन की प्रमुख किरदार रही हैं, जब भंवरी मामले को लेकर महिलाओं ने जगह-जगह आवाज़ बुलंद की और बाद में सुप्रीम कोर्ट ने कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न रोकने के लिए गाइड लाइन बनाने का निर्देश दिया.
श्रीवास्तव कहती है, "आज सोशल मीडिया की वजह से पीड़िता चेहरा विहीन होकर भी #MeToo अभियान के ज़रिए अपनी आवाज़ उठा सकती हैं. उनकी पहचान उजागर नहीं होती. हालाँकि यह अच्छी बात है कि अब पीड़िता मज़बूती से सामने आकर भी अपनी बात कह रही हैं, लेकिन उस वक्त बहुत कठिन था. भंवरी को हर जगह सामने आना पड़ा."
वो कहती हैं कि ''भंवरी के साथ हुई ज़्यादती के बाद जब हमने जन सुनवाई आयोजित की. जस्टिस कृष्णा अय्यर की मौजूदगी में न औरतों ने चुप्पी तोड़ी और न किसी ने #MeToo कहा. दूसरी बार जब 1997 में धरना आयोजित किया गया, 60 महिलाएं अपने साथ हुई ज़्यादतियों की व्यथा लेकर आईं. भंवरी ने ख़ामोशी की संस्कृति तोड़ी. उस वक्त पूरे समाज में औरत के प्रति हुई नाइंसाफी को नकारने की संस्कृति थी.''
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इंसाफ़ की उम्मीद अभी भी कायम
सामाजिक कार्यकर्त्ता श्रीवास्तव कहती हैं कि यह वो संस्कृति थी जो कहती थी कि औरत झूठी है. न केवल समाज में महिलाओं के प्रति एक पूर्वाग्रह मौजूद था बल्कि वो पुलिस, प्रशासन और राजनीतिक व्यवस्था में भी दिखाई देता था.
वो कहती हैं, "जो लोग एम जे अकबर के मामले में औरतों को कहते है कि उन्हें विधि सम्मत प्रक्रिया के तहत आवाज़ उठानी चाहिए. हम उनसे पूछना चाहते है कि भंवरी ने इसी प्रक्रिया का पालन किया था, लेकिन 22 साल से निचली अदालत के फ़ैसले के विरुद्ध हाई कोर्ट में अपील विचाराधीन पड़ी है."
"इसके बावजूद भंवरी मामले से पूरे देश में महिला आंदोलन संगठित हुआ और उस क्षेत्र में कुछ हद तक बाल विवाह की कुप्रथा पर लगाम लगी है. क़ानून का डर पैदा हुआ है. कार्यस्थल पर यौन हिंसा पर शीर्ष अदालत ने गाइड लाइन जारी की. भंवरी ने तब ख़ामोशी तोड़ी जब पढ़ी-लिखी औरतें अपने साथ हुए उत्पीड़न पर बोलने से बचती थीं."
इन 26 सालों में भंवरी की ज़िंदगी में कभी सदमे तो और कभी संताप का भाव भी आया होगा, लेकिन अब उनकी भावमुद्रा में आक्रोश की अभिव्यक्ति है और लड़ाई को न्याय की मंज़िल तक ले जाने का संकल्प भी.
उन्हें यक़ीन है कि वो सुबह कभी तो आएगी जब इंसाफ़ का सूरज पूरी रोशनी से आसमान में नमूदार होगा.
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