बंदा सिंह बहादुर: अंतिम सांस तक मुगलों से लड़ने वाला निर्भीक सिख योद्धा
नई दिल्ली, 09 जून: सिख धर्म में एक से एक महान योद्धा हुए हैं। लेकिन मुगलों को कड़ी टक्कर देने वाले और अंतिम सांस तक मुगलों का डटकर मुकाबला करने वाले बहादुर, साहसी और निर्भीक सिख योद्धा बाबा बंदा सिंह बहादुर की वीरता का हर कोई कायल है। आज बाबा बंदा सिंह बहादुर की पुण्यतिथि है। वो बंदा सिंह ही थे जिन्होंने मुग़लों के अजेय होने के भ्रम को तोड़ा। छोटी से उम्र में सन्यास की ओर जाना और फिर वापस सांसरिक जीवन में लौटने उनके जीवन की प्रमुख घटना में से एक थी। जिसने उन्हें एक महान योद्धा और काबिल नेता में तब्दील कर दिया था।
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लक्ष्मण
देव
से
माधो
दास
बैरागी
बंदा
सिंह
बहादुर
का
जन्म
27
अक्टूबर
1670
को
जम्मू
कश्मीर
के
राजौरी
के
राजपूत
परिवार
में
हुआ
था।
उसका
बचपन
का
नाम
लक्ष्मण
देव
था।
15
वर्ष
की
उम्र
में
वो
घर
छोड़
कर
बैरागी
हो
गए
और
उन्हें
बंदा
बैरागी
के
नाम
से
जाना
जाने
लगा।
उनके
बैराग
की
कहानी
बेहद
ही
दिलचस्प
है।
तीर
कमान
और
घुड़सवारी
के
शौक
के
चलते
उन्होंने
बचपन
में
ही
शिकार
में
भी
महारत
हासिल
थी।
एक
दिन
लक्ष्मण
देव
जंगल
में
शिकार
के
लिए
गए।
वहां
उसने
एक
हिरनी
का
शिकार
किया।
शिकार
के
बाद
उन्हें
पता
चला
कि
वो
गर्भवती
थी।
पेट
फाड़
कर
देखा,
तो
वहां
दो
बच्चे
थे।
दोनों
ने
उनकी
आंखो
के
सामने
मर
गए।
इस
घटना
के
बाद
लछमन
का
मन
दुनिया
से
उचट
गया।
और
वे
बैरागी
हो
गए।
माधो
दास
से
बने
गुरुबक्श
सिंह
इसके
बाद
वो
घूमते
घूमते
महाराष्ट्र
के
नांदेड़
पहुंचे
और
गोदावरी
नदी
के
किनारे
आश्रम
बनाकर
रहने
लगे।
जब
सिख
गुरु
गुरु
गोविंद
सिंह
के
दो
साहिबजादों
को
पंजाब
में
सरहिंद
के
नवाब
ने
दीवार
में
चुनवा
दिया
तो
गुरु
गोविंद
सिंह
को
राजस्थान
के
पास
नारायणा
में
रहने
वाले
जैतराम
बैरागी
से
नांदेड़
में
रह
रहे
बंदा
बैरागी
के
बारे
में
पता
चला
था।
सितम्बर
1708
में
नांदेड़
के
आश्रम
में
गुरु
गोविंद
सिंह
पधारे।
गुरु
गोविंद
से
वो
इतने
प्रभावित
हुए
कि,
उसी
दिन
से
माधो
दास
ने
चोग़ा
छोड़कर
खालसा
धर्म
अपना
लिया।
वो
गुरु
गोविंद
सिंह
का
शिष्य
बन
गए।
गुरु
ने
नया
नाम
गुरबक्श
सिंह
दिया।
उन्होने
यहीं
से
तपस्वी
जीवन
शैली
त्याग
दी।
इसके बाद गुरु गोविंद सिंह ने उन्हें पंजाब के लोगों को मुगलों से छुटकारा दिलाने का काम सौंपा। गुरु गोबिंद सिंह जी ने बंदा सिंह बहादुर को 1 तलवार, 5 तीर और 3 साथियों के साथ पंजाब कूच करने का निर्देश दिया। गुरु की आज्ञा मानते हुए गुरबक्श ने पंजाब की ओर कूच किया, लेकिन उनके पीछे गुरु गोविंद सिंह की हत्या कर दी गई। इसके बाद सिख साम्राज्य की बागडोर गुरबक्श ने सम्भाल ली। अपनी बहादुरी के चलते वो बंदा सिंह बहादुर के नाम से मशहूर हुए। 1708 में औरंगज़ेब की मौत के बाद मुगल बागडोर आई बादशाह बहादुर शाह के पास। उसके भाई काम बक्श ने दक्कन में विद्रोह कर दिया था। जिस कारण बहादुर शाह को दक्कन के कैम्पेन पर निकलना पड़ा।
सरहिंद
पर
कब्जा
इस
बीच
बंदा
सिंह
बहादुर
पंजाब
में
सतलज
नदी
के
पूर्व
में
जा
पहुंचे
और
सिख
किसानों
को
अपनी
तरफ
करने
के
अभियान
में
जुट
गए।
इस
दौरान
सबसे
पहले
उन्होंने
सोनीपत
और
कैथल
में
मुगलों
का
खजाना
लूटा।
कुछ
ही
महीनों
के
भीतर
बंदा
सिंह
की
सेना
में
करीब
5000
घोड़े
और
8000
सैनिक
शामिल
हो
गए।
कुछ
दिनों
में
सैनिकों
की
संख्या
बढ़
कर
19000
हो
गई।
ये
फौज
मुगलों
से
लड़ी
और
सतलज
और
यमुना
के
बीच
का
इलाका
जीत
लिया।
इसके
बाद
जब
बंदा
सिंह
को
खबर
मिली
कि
यमुना
नदी
के
पूर्व
में
हिंदुओं
को
तंग
किया
जा
रहा
है
तो
उन्होंने
यमुना
नदी
पार
की
और
सहारनपुर
शहर
को
भी
नष्ट
कर
दिया।
इस
दौरान
बंदा
सिंह
के
हमलों
से
उत्साहित
होकर
स्थानीय
सिख
लोगों
ने
जालंधर
दोआब
में
राहोन,
बटाला
और
पठानकोट
पर
कब्जा
कर
लिया।
बंदा सिंह बहादुर ने अपने नए कमान के केंद्र को 'लौहगढ़' नाम दिया। इस दौरान सरहिंद की जीत को याद करते हुए उन्होंने नए सिक्के ढलवाए और अपनी नई मोहर भी जारी की। पंजाब में बंदा बहादुर की बढ़ती ताकत देख मुग़ल बादशाह बहादुर शाह बौखला उठा और वो स्वयं 1710 में बंदा सिंह बहादुर के खिलाफ जंग के मैदान में उतर गए। मगुलों की बड़ी सेना के आगे बंदा सिंह नहीं टिक पाए और वहां से भाग निकले। मुग़ल बादशाह ने बंदा को पकड़ने के लिए लाहौर से अपने सैन्य कमांडर भेजे, लेकिन वे पकड़ में नहीं आए। न 1712 में मुग़ल बादशाह बहादुर शाह का निधन हो गया तो उनके भतीजे 'फ़र्रुख़सियर' को मुगल ताज मिला।
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बंदा सिंह के बेटे का कलेजा निकलकर उनके मुंह में ठूंसा
मुग़ल बादशाह फ़र्रुख़सियर ने कश्मीर के सूबेदार अब्दुल समद खां को बंदा सिंह बहादुर के पकड़ने जिम्मा सौंपा। समद खां नांगल गांव में बने एक किले में मौजूद बंदा सिंह को घेरने में सफल रहा। मुगल बंदा सिंह को आठ महीने तक उसी किले में घेरे रहे। जिससे किले में भूखमरी फैल गई। आखिर में समद खा किले में घुसने में कामयाब रहा। उनके बंदा सिंह को कैद कर लिया। इसके बाद उन्हें पकड़ कर दिल्ली लाया गया। इस बीच उनके हजारों सैनिकों को मार दिया गया। उसके बाद बंदा को इस्लाम कबूल करने के लिए कहा गया, लेकिन उन्होंन इस्लाम कबूल करने से मना कर दिया। इसके बाद उन्हें कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी की दरगाह पर ले ज़ाया गया और दरगाह के चारों ओर घुमाया गया। वहीं फिर से उन्हें इस्लाम कबूल करने के लिए कहा गया। जब वे नहीं माने तो जल्लाद ने उनके बेटे अजय सिंह का सर कलम कर दिया और उनके बच्चे का कलेजा निकाला और बंदा सिंह के मुंह में ठूंस दिया। बंदा सिंह फिर भी डटे रहे। अंत में जल्लाद ने उन्हें भी मार दिया।