कश्मीर: 370 ख़त्म होने के दो साल बाद क्या चरमपंथी गतिविधियों में स्थानीय लोगों की भागीदारी बढ़ी?
जम्मू कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाले संविधान के अनुच्छेद 370 को हटे आज 2 साल हो गए हैं. इन दो सालों में बहुत कुछ बदला है. कुछ लोगों की मुश्किलें कम हुई हैं, तो कुछ अभी भी शांति की उम्मीद लगाए हुए हैं.
बशीर अहमद भट्ट के भाई के घर की दीवारों पर ख़ून के छीटें अब भी मौजूद हैं जो उस शाम की याद दिलाते हैं जब परिवार के तीन लोगों को कश्मीर के पुलवामा ज़िले में मार दिया गया था.
इसी साल 27 जून को बशीर के भाई फ़ैयाज़ अहमद भट्ट जो कि कश्मीर पुलिस में थे, सोने की तैयारी कर रहे थे. तभी उन्होंने दरवाज़े पर किसी के खटखटाने की आवाज़ सुनी. अपनी पत्नी और बीवी के घर पर मौजूद रहने और रात में दरवाज़ा खोलने के जोख़िम को जानते हुए भी उन्होंने दरवाज़ा खोला.और दो कथित चरमपंथियों ने पत्नी और बेटी समेत उनकी गोली मारकर हत्या कर दी.
45 साल के फ़याज़ एक स्पेशल पुलिस अफ़सर (एसपीओ) थे, ये कश्मीर पुलिस के अंतर्गत एक कम तनख्वाह वाली नौकरी है. उनकी पोस्टिंग पास के ही एक शहर में थी.
फ़याज़ के भाई जो कि पास के ही एक घर में रहते हैं, उन्होंने गोलियां की आवाज़ सुनी थी. वो भाग कर अपने भाई के घर पहुंचे. वहां जो उन्होंने देखा उसकी कभी कल्पना भी नहीं की थी. दरवाज़े पर उनके भाई फ़याज़ की लाश पड़ी थी और बगल में ही उनकी पत्नी और बेटी की.
बशीर भट्ट अपने भाई और परिवार के बारे में कहते हैं, "उन गोलियों ने मेरे फूल से भरे बगीचे को एक मिनट में तबाह कर दिया."
"उनकी क्या ग़लती थी?"
जम्मू कश्मीर का विशेष दर्जा ख़त्म होने होने और राज्य को दो केंद्र शासित प्रदेशों में बांटे जाने के दो साल पूरे हो गए हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार का दावा था कि इलाके में शांति के लिए ये क़दम ज़रूरी था. लेकिन आज दो साल बाद भी सुरक्षाबलों के लिए काम करने वाले कई आम और स्थानीय लोगों को निशाना बनाया जा रहा है.
दिल्ली के इंस्टीट्यूट फ़ॉर कॉन्फ़्लिक्ट मैनेजमेंट के एक्ज़ेक्यूटिव डायरेक्टर अजय साहनी के मुताबिक, "ये वो लोग और उनके परिवार हैं जिन्हें सीमा के उस पार पुलिस इंफ़ॉर्मर या सहयोगी कहा जाता हैं. वो हमेशा ही एक आसान और पहला टार्गेट होते हैं."
रिपोर्ट्स के मुताबिक, कश्मीर में चरमपंथ से जुड़ी घटनाओं में जुलाई तक 19 आम लोगों और 15 सुरक्षाकर्मियों की मौत हो चुकी थी. केंद्रीय गृह मंत्रालय की 2019-20 सालाना रिपोर्ट के मुताबिक, 1990 में कश्मीर में चरमपंथ की शुरुआत के बाद से दिसंबर 2019 तक, 14,054 नागरिकों और 5,294 सुरक्षाकर्मियों की मौत हो गई. हालांकि माना जाता है कि असल आंकड़े इससे बहुत ज़्यादा हैं.
भारत लंबे समय से पाकिस्तान पर अशांति फैलाने का आरोप लगाता रहा है. हालांकि पाकिस्तान इससे इनकार करता रहा है.
कश्मीर की सुरक्षा एजेंसियों का कहना है कि पाकिस्तान की तरफ़ से चरमपंथियों का आना सीज़फ़ायर के कारण कम हुआ है, लेकिन हिंसा अभी रुकी नहीं है.
जम्मू कश्मीर के इंस्पेक्टर जनरल विजय कुमार ने जून में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा था,"पिछले कुछ दिनों में निर्दोष लोगों और छुट्टी पर गए या मस्जिद के अंदर मौजूद पुलिसवालों को निशाना बनाया गया. वो (चरमपंथी) भय का वातावरण बनाना चाहते हैं. वो यहां शांति और स्थिरता नहीं चाहते."
चरमपंथियों गतिविधियों का हाल
मरने वालों के आंकड़ों से मुताबिक, केंद्र सरकार द्वारा जम्मू कश्मीर का विशेष दर्जा ख़त्म किए जाने के बाद इलाके में स्थानीय चरमपंथियों की हत्या बढ़ी है. सैन्य बलों और चरमपंथियों के बीच मुठभेड़ की संख्या भी पिछले कुछ समय में बढ़ी है. इस साल जनवरी से अभी तक जम्मू कश्मीर के अलग-अलग इलाकों में 90 कथित चरमपंथी मुठभेड़ में मारे गए हैं.
इनमें से 82 कथित चरमपंथी स्थानीय थे, कुछ की उम्र सिर्फ़ 14 साल थी. कुछ तो अलगाववादी चरमपंथी संगठनों से जुड़ने की जानकारी मिलने के तीन दिनों के अंदर मारे गए.
समाचार एजेंसी पीटीआई की एक रिपोर्ट के मुताबिक साल 2020 में 203 चरमपंथी जम्मू कश्मीर में मारे गए थे, इनमें से 166 स्थानीय चरमपंथी थे. साल 2019 में 152 चरमपंथी मारे गए थे. इनमें से 120 लोकल कश्मीरी थे.
एक वरिष्ठ सुरक्षा अधिकारी ने बीबीसी को बताया कि कश्मीर में अभी 200 से अधिक सक्रिय चरमपंथी हैं. माना जा रहा है इनमें से 80 विदेशी हैं और 120 लोकल.
ये अधिकारी मीडिया से बात करने के लिए अधिकृत नहीं हैं, इसलिए उन्होंने नाम न लिखने की शर्त पर ये जानकारी दी.
उनके मुताबिक, "इस साल जनवरी से जुलाई के बीच क़रीब 76 कश्मीरियों ने हथियार उठाए और ये संख्या बढ़ सकती है."
सुरक्षा एजेंसियों का कहना है कि कश्मीर में चरमपंथ में पिछले सालों की तुलना में कमी आई है, लेकिन जानकारों का कहना है कि स्थानीय चरमपंथियों की भागीदारी बढ़ रही है, जो कि इस मुस्लिम बहुल इलाके के लिए चिंताजनक ट्रेंड है.
भारत ने हमेशा ही पाकिस्तान को कश्मीर में चरमपंथ को बढ़ावा देने का और कश्मीर में चरमपंथियों को ट्रेनिंग देने और हथियार सप्लाई करने का ज़िम्मेदार ठहराया है, पाकिस्तान इन आरोपों से इनकार करता रहा है.
दिल्ली के रक्षा थिंक टैंक के अजय साहनी कहते हैं कि केंद्र सरकार की नीतियों को लेकर असंतोष लोगों के चरमपंथी गुटों से जुड़ने का कारण हो सकता है."
{image-जम्मू-कश्मीर में हिंसा की घटनाएं. . . hindi.oneindia.com}
सीमा पर शांति
एलसोसी पर फ़रवरी से, दोनों देशों के बीच सीज़फ़ायर के फ़ैसले के बाद से शांति है. लेकिन कश्मीर में चरमपंथी हमले और मुठभेड़ जारी हैं. श्रीनगर में मौजूद भारतीय सेना के एक अधिकारी के मुताबिक सीज़फ़ायर का एलओसी पर एक बार भी उल्लंघन नहीं हुआ है.
श्रीनगर से चिनार कॉर्प्स से प्रमुख लेफ़्टिनेंट जनरल देवेंद्र प्रताप पांडे कहते हैं, "जहां तक हमें जानकारी है, कश्मीर इलाके में सीमापार से उल्लंघन का एक भी मामला सामने नहीं आया है."
एलओसी के आसपास रहने वाले लोगों ने पहले काफ़ी भुगता है.
1998 में शाज़िया महमूद की मां की मौत पाकिस्तान से होने वाली गोलीबारी के कारण हो गई थी जब निशाने पर उनका घर आ गया था. साल 2020 में सीमापार से हुई गोलीबारी में उनके पति की मौत हो गई.
शाज़िया कहती हैं कि एक दिन सुबह 11 बजे दोनों ओर से गोलीबारी शुरू हुई. उन्होंने ने अपनी पति को फ़ोन किया जो काम पर गए हुए थे. "उन्होंने हमें छुपने के लिए और उनका इंतज़ार करने के लिए कहा."
लेकिन वो कभी लौट कर नहीं आए. एक गोला लगने से ताहिर महमूद की मौत हो गई. शाज़िया कहती हैं, "जब उनकी मौत हुई तो मेरी छोटी बेटी सिर्फ़ 12 दिनों की थी, जब वो अपने पिता के बारे में पूछेगी तो मैं क्या कहूंगी?"
एलओसी पर फ़िलहाल शांति है, लेकिन लोग इस बात से आशंकित है कि क्या 2003 में जिस सीज़फ़ायर समझौते पर दोनों देशों ने दस्तख़त किए थे, उनका पालन होता रहेगा.
लेकिन बॉर्डर से दूर कश्मीर के शहरों और गांवों बशीर अहमद भट्ट जैसे लोगों के लिए ये दौर अशांति का ही है.
वो कहते हैं, "भारत और पाकिस्तान दोनों देशों के नेता हमारी ज़िंदगियों से खेल रहे हैं, उन्हें बातचीत करनी चाहिए. मैं कहना चाहता हूं कि कृपया इंसानियत को बचाएं. इस विवाद का एक हल निकलना चाहिए, ताकि कश्मीरियों को मरना न पड़े और इंसानियत को बचाया जा सके."
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