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Rohingya crisis: शरणार्थी का जाति-धर्म नहीं होता

रोहिंग्या मुसलमानों को शरण देने या नहीं देने के सवाल पर ऐसी चिन्ता लाजिमी है।

By प्रेम कुमार
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प्रेम कुमार।रोहिंग्या शरणार्थी को भारत में शरण नहीं देने के केन्द्र सरकार के फैसले का समर्थन करने का जी चाहता है तो इसकी ठोस वजह है। पहली वजह ये है कि बिना केन्द्र सरकार की इच्छा के भारत में 40 हज़ार रोहिंग्या घुसपैठिए आ चुके हैं। ये घुसपैठिए कश्मीर और बंगाल में और थोड़े बहुत बिहार, यूपी व दिल्ली में ठौर तलाश चुके हैं। ज़ाहिर है कि बिना स्थानीय सहानुभूति या मदद के इनकी घुसपैठ नहीं हो सकती थी। कौन लोग हैं जिन्होंने इनकी मदद की है? इन्हें मदद करने का आधार क्या है?

in depth analysis of rohingya crisis in india and myanmar

डेमोग्राफी की फिक्र पर भी दो मानदंड!

ये वही बंगाल है जहां की डेमोग्राफी लगातार बदल रही है। अब जबकि बंगाल में दंगे होते हैं तो वहां से हिन्दुओं को खदेड़ा जाता है। ये वही कश्मीर है, जहां की राजनीति खदेड़े गये हिन्दुओं को दोबारा बसने देने के लिए भी तैयार नहीं हैं। उन्हें अपने डेमोग्राफी की फिक्र है।

रोहिंग्या क्या हिन्दुस्तान में अपना स्वभाव बदल पाएंगे?

दूसरी बात ये है कि ये रोहिंग्या मुसलमान म्यांमार से क्यों खदेड़े जा रहे हैं? इस बार की हिंसा के लिए तो सीधे तौर पर रोहिंग्या मुसलमान ही ज़िम्मेदार बताए जा रहे हैं जिन्होंने म्यांमार के सुरक्षा बलों पर हमला कर 12 जवानों की जान ले ली थी। राजनीतिक अधिकार की लड़ाई लड़ने का ये तरीका रोहिंग्या मुसलमान क्या हिन्दुस्तान आकर भूल जाएंगे?

राजनीतिक है चिन्ताओं का आधार

दरअसल रोहिंग्या मुसलमानों को शरण देने या नहीं देने के सवाल पर ऐसी चिन्ता लाजिमी है। मगर, ये चिन्ता भी हमारी राजनीतिक मानसिकता को दर्शाता है। हिन्दू-मुसलमान, वोट बैंक, भावी राजनीति, डेमोग्राफी जैसे मानदंड से ऊपर उठकर व्यापक फलक पर मानवीयता को आधार बनाने से यह मानसिकता हमें रोकती है।

हम सहिष्णु रहे हैं तो अब क्यों नहीं?

एक बात कही जाती है कि हम हमेशा से सहिष्णु रहे हैं। हमने शरणार्थियों का स्वागत किया है। वसुधैव कुटुम्बकम की सोच रही है हमारी। लेकिन, यह सोच निराधार लगती है। हम तो सैकड़ों साल गुलाम रहे हैं। कभी अंग्रेज, कभी मुगल, कभी पुर्तगाली, कभी डच, कभी हूण तो कभी कोई और। हर किसी ने ताकत के बल पर हमें अपने वश में किया है और हम पर अपनी परम्परा व संस्कृति थोपी है। कोई ऐसा उदाहरण नहीं मिलता कि किसी ने हमसे शरण मांगी हो और हमने उन्हें शरण दी हो। व्यापार, घुसपैठ और युद्ध ही वो तरीके रहे हैं जिनके सामने हमारी सहिष्णुता कसौ टी पर कसी गयी है। एक राष्ट्र के रूप में और सामाजिक स्तर पर जातीय आधार पर बंटे होने की वजह से हम कभी ढंग से ऐसे तत्वों का विरोध भी नहीं कर पाए। अब उन स्थितियों को सहिष्णुता का जामा पहना कर आखिर क्या कहना चाहते हैं? अगर यह बात ही कहना चाहते हैं कि सहिष्णुता हमारा संस्कार है, तो यह संस्कार भारत सरकार के आचरण से आज क्यों विलुप्त होने दिया जाए?

चिरस्थायी रही है शरणार्थी की समस्या

भारत का मानवाधिकार आयोग सुप्रीम कोर्ट में अपनी ही सरकार के खिलाफ तर्क देने को अगर तैयार है तो इसकी वजह वही मानवता है जिसे आधार बनाने की ज़रूरत महसूस की जानी चाहिए। हमें अपने रुख का मूल्यांकन करना चाहिए। क्यों हम शरणार्थी की समस्या को धर्म और राष्ट्रीयता के आधार पर ही देखें? शरणार्थी की समस्या न कभी अतीत में अनजान थी, न भविष्य में यह थमने वाली है। इसकी वजह कभी प्राकृतिक हो सकती है, कभी मानवनिर्मित। भूकम्प, बाढ़, ज्वालामुखी से लेकर गैस रिसाव, परमाणु बम विस्फोट, युद्ध, नस्ली हिंसा, जातीय हिंसा, धार्मिक हिंसा ऐसे तमाम कारण हैं जिस वजह से शरणार्थी की समस्या बनी रहने वाली है।

महाराष्ट्र में बिहारियों का हश्र भी रोहिंग्या जैसा होता अगर...

जरा सोचिए कि महाराष्ट्र में मराठी मानुष बिहारियों के साथ मारपीट करें, उन्हें खदेड़ें और उनके पास महाराष्ट्र छोड़ने का विकल्प ना हो। आज की तारीख में वे हिंसा के दौरान लौटकर बिहार, यूपी या दूसरे इलाकों में चले जाते हैं। अगर ये सुविधा उनके पास नहीं होती, भारत भौगोलिक रूप से विशाल नहीं होता, तो वे क्या करते? उनकी भी हालत रोहिंग्या मुसलमानों जैसी होती। वे भी शरण नहीं मिलने की स्थिति में घुसपैठ ही करते। वे भी ऐसा करने के लिए धर्म, जाति, संप्रदाय, राष्ट्रीयता, नस्ल या जो कुछ भी संभव है उन आधारों पर घुसपैठ के लिए मदद मांगते।

मानवीयता का चश्मा ही सुधारेगा नज़रिया

घटना को क्यों न इस तरह से देखने का अवसर बनाया जाए कि कश्मीर के मुसलमान भी यह सोचने को विवश हों कि जिस मानवीयता के आधार पर उन्होंने रोहिंग्या मुसलमानों को घुसपैठ कराया है, उसी मानवीयता के आधार पर कश्मीरी हिन्दुओं को विस्थापित न होने दें, उन्हें दोबारा बसाया जाए, गलती को सुधारा जाए?

राजनीति से ऊपर उठने पर ही समझ में आएगी समस्या

रोहिंग्या मुसलमान और उनके साथ घट रही घटनाएं समाज को जागृत करने का माद्दा रखती हैं। मगर, ऐसा तभी हो सकता है जब हम राजनीति से ऊपर उठेंगे। हर शरणार्थी की जाति एक होती है। वह विवश होता है, लाचार होता है, भूखा-नंगा होता है। उसे धरती के ऊपर जगह चाहिए। आसमान के नीचे रहने का हक चाहिए। रोहिंग्या मुसलमानों की जगह कोई बिहारी खुद को रखकर सोच सकता है। कोई तिब्बती उनके दर्द को समझ सकता है। भारत में शरण ले रहा श्रीलंकाई तमिल भी उस दर्द को समझ सकता है। क्या रोहिंग्या मुसलमानों का दर्द समझने के लिए हमारा भी शरणार्थी होना जरूरी है? ईश्वर किसी को ऐसे दिन न दिखाएं। हममें से कोई शरणार्थी नहीं होना चाहता, कोई घुसपैठिया होना नहीं चाहता। ऐसे में हमारी सरकार क्यों शरणार्थी विरोधी हो गयी है? क्यों सहिष्णुता के दावों वाली महान परम्परा का उल्लंघन कर रही है? ऐसा मौका क्यों दे रही है कि खुद अपने ही देश का मानवाधिकार आयोग और संयुक्त राष्ट्र संघ भी भारत सरकार को गलत ठहरा रहा है? रोहिंग्या मुसलमानों ने एक मौका दिया है कि हम अपनी सोच को सही करें।

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English summary
In depth analysis of rohingya crisis in india and myanmar .
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