किसान आंदोलन: एपीएमसी एक्ट ख़त्म होने के बाद बिहार में क्या किसानों के हालात बदले?
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार एपीएमसी एक्ट को बिहार में ख़त्म करने का ज़िक्र करते दावा करते हैं कि इससे किसानों की हालत में सुधार हुआ.
साल 2006 में बिहार में नीतीश सरकार ने एग्रीकल्चर प्रोड्यूस मार्केट कमिटी यानी कृषि उपज और पशुधन बाज़ार समिति को ख़त्म कर दिया था. देश में तीन कृषि क़ानूनों का जब विरोध शुरू हुआ तो मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने एपीएमसी एक्ट को बिहार में ख़त्म करने का ज़िक्र करते हुए ये दावा किया कि बिहार में किसानों की हालत में सुधार हुआ है.
लेकिन क्या वास्तव में किसानों की हालत में सुधार हुआ है? इस सवाल को दो स्तरों पर देखा जा सकता है. पहला आंकड़ों के नज़रिए से और दूसरा ख़ुद किसानों से पूछकर कि वो क्या कहते हैं?
बिहार राज्य में 77 फ़ीसद कार्यबल खेती-किसानी में लगा हुआ है. राज्य के घरेलू उत्पाद का लगभग 24 फ़ीसद कृषि से ही आता है. साल 2011 की जनगणना के मुताबिक़, राज्य में 71,96,226 खेतिहर हैं जबकि 1,83,45,649 खेत मज़दूर हैं.
कृषि गणना साल 2015-16 के मुताबिक़, बिहार में लगभग 91.2 फ़ीसद सीमान्त किसान है. यानी ऐसे किसान जिनकी जोत एक हेक्टेयर से भी कम है. वहीं बिहार में औसत जोत का आकार 0.39 हेक्टेयर है.
बिहार सरकार के आर्थिक सर्वे के अनुसार, बिहार में सीमांत जोत के मामले में 1.54 फ़ीसद की बढ़ोत्तरी हुई है जबकि बाक़ी सभी जोत (लघु, लघु-मध्यम, मध्यम, वृहद) की संख्या घटी है. आर्थिक सर्वे के अनुसार, जोतों की ऐसी असमानता और ज़मीन का टुकड़ों में बंटना बिहार के कृषि विकास की राह में गंभीर बाधा है.
छोटी जोतों के बढ़ने के क्या मायने है, ये पूछने पर ए एन सिन्हा इन्स्टिट्यूट के पूर्व निदेशक डी एम दिवाकर कहते है, "इसके दो मतलब है. पहला परिवार में ज़मीन का बंटवारा और दूसरा राज्य में कोई उद्योग धंधे नहीं लगे. जिसके चलते लोग किसानी करने या पलायन करने को मजबूर हैं. लॉकडाउन ने कृषि पर इस निर्भरता और उनकी मुश्किलों को बढ़ाया है."
डी एम दिवाकर के मुताबिक़, साल 2006 में एपीएमसी एक्ट हटने के बाद किसानों की आय पर क्या असर पड़ा, इसको लेकर कोई स्टडी नहीं की गई है. लेकिन किसानों की स्थिति को प्रति व्यक्ति आय के आईने में देखा जा सकता है.
वो बताते है, "आप देखिए राज्य में शिवहर ज़िले की प्रति व्यक्ति सालाना आय महज़ 7000 रुपये है तो पटना की 63,000 रुपये. राज्य में 20 से अधिक ज़िलों की प्रति व्यक्ति सालाना आय 10,000 से भी कम है. ऐसे में किसानों की आर्थिक स्थिति बेहतर हो गई, ये कहना कहां तक जायज़ है? दूसरा ये कि कृषि मंत्री रहते हुए नीतीश कुमार कॉर्पोरेट फ़ार्मिंग का बिल लाए थे."
सीमांत किसान और एपीएमसी एक्ट
राज्य में जहां 91.2 फ़ीसद किसान सीमांत है वहां एपीएससी एक्ट के ख़त्म होने के क्या मायने है? दरअसल, सीमांत किसान ज़्यादातर बटैय्या/ मनी (दूसरे से फ़सल या नक़द के बदले) पर खेती लेकर करते है. उनके पास उपज ही इतनी बचती है कि वो अपनी खाद्य ज़रूरतों को पूरा कर सकें. ऐसे में मंडी व्यवस्था का ख़त्म होने से इन किसानों पर असर न के बराबर है.
पटना से 55 किलोमीटर दूर पालीगंज प्रखंड के मढौरा गांव के बुंदेला पासवान और नीतू देवी ऐसे ही किसान है. वो बटैय्या पर काम करते है.
नीतू देवी कहती हैं, "जो उपज होता है, वो खेत मालिक को देने और अपने परिवार के खाने पीने में ख़त्म हो जाता है. हमको पैक्स से क्या मतलब? जब ज़्यादा उपजेगा, तभी बेचने का टेंशन होगा. बाक़ी बाढ़ सुखाड़ भी आ जाए तो पैसा खेत मालिक ही लेता है. इसलिए ना तो हमें सब्सिडी से मतलब है और ना ही पैक्स से. हम तो जो उपजाएगें, वहीं खाएगें."
तलाश पत्रिका की संपादक और अर्थशास्त्री मीरा दत्ता कहती हैं, "बिहार में खेती के सवाल को सिर्फ़ मंडी व्यवस्था तक ही सीमित करके नहीं देखा जाना चाहिए. यहां तो किसानों के सवाल को भूमि सुधार, तकनीक और सिंचाई के साधनों से जोड़कर देखा जाना चाहिए. जो छोटी जोत वाले किसानों का अहम सवाल है."
किसान का बैंक है अनाज
आंकड़ों से इतर अगर ज़मीनी हालात का बात करें तो बीबीसी ने पटना के पालीगंज के प्रखंड के किसानों की प्रतिक्रियाएं जानने की कोशिश की.
पालीगंज वो इलाक़ा है जहां के चावल की माँग 18वीं शताब्दी में ब्रिटेन और पर्शिया में बहुत थी.
'पटना : खोया हुआ शहर' में लेखक अरूण सिंह लिखते है, "पटना और आसपास के इलाक़े में बेहद उम्दा क़िस्म का चावल होता था. तब बिहार में सर्जन विलियम फुलर्टन ने इसका 'पटना राइस' नाम का ब्रांड बनाकर व्यापार किया और बेशुमार धन कमाया."
पालीगंज के अंकुरी गांव के 83 साल के राम मनोहर प्रसाद अपने इस समृद्ध इतिहास से वाक़िफ़ हैं.
वो कहते है, "इतिहास की छोड़िए, हम किसानों का वर्तमान बहुत संकटग्रस्त है. किसान का बैंक अनाज होता है और जब मंडी थी तो इस अनाज को ले जाकर कैश करा लेते थे. अब सरकार ने पैक्स दे दिया है जो सिर्फ़ तीन महीने एक्टिव रहता है. सरकार को तो साल भर न्यूनतम समर्थन मूल्य पर किसान की उपज ख़रीदने की व्यवस्था करनी चाहिए."
'बैंगन वाला अपना रेट लगा सकता है, हम नहीं'
एपीएमसी एक्ट ख़त्म होने के बाद राज्य सरकार ने पैक्स और व्यापार मंडल को मज़बूत किया. जिनका काम न्यूनतम सर्मथन मूल्य पर अनाज ख़रीदना था. साल 2017 तक के आंकड़ों के मुताबिक़, राज्य में 8463 पैक्स और 521 व्यापार मंडल हैं.
साल 2020-21 की बात करें तो 8 दिसंबर तक 5200 पैक्स और व्यापार मंडल ने 3901 किसानों से 31,039 मैट्रिक टन धान की सरकारी ख़रीद की है. जबकि 2019-20 की बात करें तो इस साल 6221 पैक्स और व्यापार मंडल ने 2,79,412 किसानों से 20,01,570 मैट्रिक टन धान की सरकारी ख़रीद की थी.
लेकिन अख़बारों और वेबसाइट के ये आंकड़े आम किसानों की ज़िंदगी में फ़र्क़ नहीं ला रहे.
इसकी वजह बताते हुए किसान शंभू नाथ सिंह कहते हैं, "पहले बिहटा मंडी थी तो अनाज लेकर जाते थे और व्यापारी से मोल भाव करते थे. मंडी में हमारे किसान प्रतिनिधि होते थे अब तो सरकार एसी में बैठकर दाम तय कर देती है. सरकारी दाम पर बेच दीजिए और फिर पैक्स से पैसा मिलने का दस महीने तक इंतज़ार कीजिए."
उनके बग़ल में ही बैठे जयनंदन प्रसाद सिंह खेती किसानी का एक और समीकरण बताते है.
वो कहते है, "अभी तो एक रेट पर पैक्स धान ख़रीद लेता है. लेकिन मंडी में धान की आवक के कुछ महीनों बाद रेट बढ़ता था. यानी पहला महीना 100 रुपये है तो तीसरे महीने तक वो बढ़कर 500 रुपये भी हो जाता था. किसान को फ़ायदा होता था. अभी तो पैक्स ख़रीदेगा या बिचौलिया थर्मामीटर लेकर खड़ा है, गरज (मजबूरी) का बाज़ार लगाने."
वहीं सुधीर कुमार कहते है, "बैंगन बेचने वाला भी दाम ख़ुद तय करता है और हम अषाढ़ से अगहन तक लगे रहकर धान उपजाते है, हमें अपना रेट रखने का अधिकार नहीं है."
क़र्ज़ में डूबे किसान
इस इलाक़े में बासमती चावल की बहुत उम्दा क़िस्म होती है. मढौरा गांव के 73 साल के बृजनंदन सिंह बासमती उपजाते हैं. लेकिन अब उनकी बासमती का कोई ख़रीददार नहीं रहा.
वो बताते हैं, "ये ऐसा चावल है जिसमें कम खाद, कम मेहनत से ही ज़्यादा मुनाफ़ा हो जाता है. नज़ाकत ऐसी कि ज़रा खाद ज़्यादा हो जाए तो बासमती नहीं होगा. एक वक़्त था जब 6500 रुपये क्विंटल मंडी में बेचते थे, लेकिन मंडी ख़त्म हुई तो ख़रीदार भी ख़त्म हो गए."
मंडी ख़त्म होने के साथ-साथ बृजनंदन सिंह क़र्ज़दार हो गए. वो कहते है,"पत्नी को कैंसर हो गया था. इलाज के लिए पैसे नहीं थे, क़र्ज़ लिया. लेकिन पत्नी नहीं बचीं. पहले तो हमारे इलाज, इज़्ज़त, प्रतिष्ठा सब का रख-रखाव चावल ही करता था."
बृजनंदन की तरह ही भोलानाथ भी क़र्ज़ में डूबे हुए है.
वो कहते है,"मंडी तो ख़त्म कर दिया सरकार ने लेकिन धान की ख़रीद भी वक़्त पर नहीं होती है. बिचौलियों को औने पौने दाम में बेचते हैं, लागत भी नहीं निकलती. तो अब क्या करें, क़र्ज़ लिया है. चुकाएंगे- खाएंगे."
नलजल योजना में डूबे खेत
जहां किसान मंडी ख़त्म होने से परेशान हैं, वहीं इस पूरे इलाक़े में कई किसान प्रशासनिक मशीनरी द्वारा उपजाई नई मुश्किल से जूझ रहे हैं. पालीगंज के कई गांव में सरकार ने नल जल योजना को आधा अधूरा छोड़ दिया गया है. पानी निकासी की कोई व्यवस्था नहीं की है जिसके चलते खेतों में पानी भरा है.
आसराम लाल ने मनी पर 1.5 बीघा खेत लिया है. उनके खेत में घुटने भर तक पानी जमा है तो साथ में धान की खेती भी तैयार खड़ी है. रोज उनका बेटा अनिल राम गंदे पानी में खड़े होकर अपनी फ़सल को किसी तरह बचाने की लड़ाई लड़ता है.
वो कहते हैं, "रोज़ जितना बन पड़ता है, उतना काट रहे हैं. बाक़ी खेत मालिक को फ़सल या पैसा देना पड़ेगा. वो इसमें किसी तरह की छूट नहीं देगा. हमारे पास क़र्ज़ लेने के सिवाय कोई चारा नहीं."
पैक्स को पैसा ट्रांसफ़र नहीं हुआ
पैक्स और व्यापार मंडल को सरकार नवंबर मध्य तक धान के सरकारी ख़रीद का आदेश देती है. इस बार ये आदेश 23 नवंबर को दिया गया है. इस वर्ष न्यूनतम समर्थन मूल्य 1868 और 1888 रुपये प्रति क्विंटल है जबकि धान की सरकारी ख़रीद का लक्ष्य 30 लाख से बढ़ाकर अब 45 लाख किया गया है.
लेकिन जहां किसान पैक्स को लेकर शिकायतें करते हैं वहीं पैक्स के पास अपने कारण हैं.
बिहार राज्य सहकारी विपणन संघ लिमिटेड के अध्यक्ष सुनील कुमार सिंह कहते है, "जब पैक्स को पैसा सरकार ने ट्रांसफ़र ही नहीं किया है तो पैक्स क्या करेगी? सरकार किसानों की भलाई का बाजा ज्यादा बजाती है, कुछ करती नहीं है."
81 साल के वाल्मिकी शर्मा पालीगंज वितरणी कृषक समिति के अध्यक्ष है, जिससे 45 गांव जुड़े है.
वाल्मिकी शर्मा पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम के सहयोगी रहे हैं जो इस इलाक़े में खेती के ज़रिए बदलाव लाना चाहते थे और इस मक़सद से कई बार पालीगंज आए भी.
वाल्मिकी शर्मा कहते हैं, "सरकार बस हमें हमारी मंडी वापस लौटा दे. उस पर अपना नियंत्रण रखे और पहले जैसे ही मंडी के प्रबंधन में किसानों का प्रतिनिधित्व हो. हम किसानों की आधी मुश्किलें ख़त्म हो जाएगी."