सत्यार्थी और मलाला को नोबेल कितना वाजिब
नई
दिल्ली
(विवेक
शुक्ला)।
क्या
कैलाश
सत्यार्थी
और
मलाला
युसूफ
को
नोबेल
पुरस्कार
मिलना
चाहिए
था,
क्या
ये
दोनों
इसके
हकदार
हैं,
अब
यह
सवाल
पूछा
जा
रहा
है।
कई
लेखकों
और
चिंतकों
को
लगता
है
कि
इन
दोनों
ने
इस
तरह
का
कोई
महान
काम
नहीं
किया
जिससे
कि
इन्हें
नोबेल
पुरस्कार
ही
मिल
जाए।
हैरान हैं चिंतक
वरिष्ठ चिंतक अवधेश कुमार कहते हैं कि वे कैलाश सत्यार्थी तथा मलाला युसूफ जई दोनों को नोबेल पुरस्कार पाने की सूचना से हैरत में हैं।
शायद इस पर उत्साह और उमंग प्रदर्शित करने वालों को उनकी बात से धक्का पहुंच सकता है। उनकी समझ में अभी तक यह नहीं आया कि इन दोनों ने शांति के क्षेत्र में ऐसा क्या किया है जिससे इन्हें शांति का नोबेल पुरस्कार मिलना चाहिए था।
नोबेल की गिरेगी गरिमा
वरिष्ठ हिन्दी कथाकार प्रताप सहगल को भी लगता है कि कैलाश सत्यार्थी और मलाला को नोबेल पुरस्कार मिलने से इसकी गरिमा घटी है। इन्हें शांति के लिए यह सम्मान दिया गया। जबकि शांति के पर्याय बन गए महात्मा गांधी को इस सम्मान से कभी नवाजा नहीं गया।
वे आगे कहते हैं कि एक समय मैगसेसे पुरस्कार को लेकर उनके मन में बहुत आकर्षण था। छात्र जीवन में मैगसेसे मिलने वालों का नाम रटता था, उनकी जीवनियां पढ़ता था। लेकिन देखा कि भारत में एक से एक एनजीओ चलाने
वालों को समाज सेवा या संघर्ष के नाम पर मैगसेसे मिलने लगा उसके बाद से उऩके लिए उसका महत्व खत्म हो गया। तो फिर उसके प्रति वितृष्णा सी हो गई। अब फिर नोबेल में।
लॉबिंग का कमाल!
जानकारों का कहना है कि दुनिया भर के एनजीओ के लौबिंग करने वाले मलाला के लिए तो पहले से ही लगे थे। उसे आईकॉन बना ही दिया था। अमेरिका एवं यूरोप को लगता था कि इसे हीरोइन बनाकर शायद अतंकवादियों को एक जवाब दे सकते हैं।
कैलाश सत्यार्थी हमारे भारत के हैं, दिल्ली केन्द्र बनाकर काम करते हैं, बाल अधिकार पर उनका एनजीओ है। बस, अब पूरी दुनिया में एनजीओ जिन्दाबाद है। असली बाल विकास के लिए काम करने वाले, संघर्ष करने वाले, या
समाज की असली सेवा करने वाले का तरीका और भाषा पुरस्कार चयन करने वालों की समझ में नहीं आ सकता।