चरण सिंह जिन्होंने सबसे पहले तोड़ा उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का वर्चस्व
गोविंद वल्लभ पंत के मुख्यमंत्री काल में यूपी में कांग्रेस का वर्चस्व हुआ करता था, लेकिन उनके दिल्ली जाने के बाद 1967 में हुए भारत के चौथे आम चुनाव ने देश की राजनीति में ख़ासी खलबली मचा दी और यहीं से कांग्रेस के पतन और उसके विकल्प के उदय की शुरुआत हुई.
बात उन दिनों की है जब उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का बोलबाला था और गोविंद वल्लभ पंत उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री हुआ करते थे. वो उत्तर प्रदेश की राजनीति को एक तरह का स्थायित्व प्रदान करते थे. उनके गृह मंत्री के रूप में दिल्ली जाने के बाद इस स्थायित्व में थोड़ी कमज़ोरी आनी शुरू हो गई थी.
पंत पर नेहरू की निर्भरता इतनी अधिक थी कि वो अपने ख़ासमख़ास रहे रफ़ी अहमद किदवई को दिल्ली ले गए थे ताकि पंत को उत्तर प्रदेश में किसी तरह की चुनौती न मिल सके. चरण सिंह गोविंद वल्लभ पंत को बहुत मानते थे और ऐसा कोई काम नहीं करते थे जो पंत को बुरा लगे. पंत के केंद्र में जाने से पहले तक चरण सिंह ने वो राजनीतिक तेवर नहीं अपनाए थे जिनकी वजह से आज उन्हें हर जगह जाना जाता है.
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उत्तर प्रदेश की सत्ता की उठापटक में चंद्रभानु गुप्ता चरण सिंह पर भारी पड़ रहे थे और कांग्रेस के अंदर गुप्ता के समर्थकों की तादाद चरण सिंह के समर्थकों से कहीं ज़्यादा थी. चरण सिंह की जीवनी लिखने वाले पॉल ब्रास अपनी किताब "ऐन इंडियन पॉलिटिकल लाइफ़, चरण सिंह ऐंड कांग्रेस पॉलिटिक्स' में लिखते हैं, "बाद में चरण सिंह पर जिस अवसरवाद के आरोप लगाए गए, वो उत्तर प्रदेश की राजनीति में उनके प्रासंगिक बने रहने के लिए एक तरह से उनकी ज़रूरत बन गया था."
1967 के चुनाव में कांग्रेस पहली बार बहुमत जीतने में असफल रही
भारत के राजनीतिक इतिहास में चौथे आम चुनाव ने ख़ासी खलबली पैदा कर दी थी. यहीं से कांग्रेस के पतन और उसके विकल्प के तौर पर एक सशक्त लेकिन विभाजित विपक्ष के उदय की शुरुआत हुई थी.
उत्तर प्रदेश में ये पहला चुनाव था जब कांग्रेस पूर्ण बहुमत हासिल करने में असफल रही थी. 423 सदस्यों की विधानसभा में 198 सीटें जीत कर वो सबसे बड़े दल के रूप में उभरी ज़रूर थी लेकिन मुख्यमंत्री सीबी गुप्ता को अपनी सीट बचाने में नाकों चने चबाने पड़ गए थे और वो मात्र 73 वोटों से विजयी हुए थे.
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चूँकि दूसरे सबसे बड़े दल जनसंघ को कांग्रेस से काफ़ी कम 97 सीटें मिली थीं, कांग्रेस ने 37 निर्दलीय सदस्यों और दूसरी छोटी पार्टियों के साथ मिल कर किसी तरह सरकार तो बना ली थी लेकिन उसके स्थायित्व पर पहले दिन से ही सवाल उठाए जाने लगे थे. कांग्रेस को इससे भी मदद मिली थी कि जीतने वाले 37 निर्दलीय विधायकों में 17 कांग्रेस के विद्रोही उम्मीदवार थे.
इसी वातावरण में चरण सिंह ने नेता पद के लिए सीबी गुप्ता को चुनौती देने का फ़ैसला किया था. लेकिन केंद्र ने हस्तक्षेप करते हुए चरण सिंह को मुक़ाबले से हट जाने के लिए मना लिया था और सीबी गुप्ता निर्विरोध कांग्रेस विधायक दल के नेता चुन लिए गए थे.
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सीबी गुप्ता के सामने चरण सिंह ने रखी अपनी शर्तें
लेकिन जब मंत्रिमंडल गठन की बात आई तो चरण सिंह ने सीबी गुप्ता से माँग की कि वो अपने कुछ समर्थकों को अपने मंत्रिमंडल में न शामिल कर उनके यानि चरण सिंह के कुछ समर्थकों को मंत्रिमंडल में जगह दें.
सुभाष कश्यप अपनी किताब 'द पोलिटिक्स ऑफ़ डिफ़ेक्शन: अ स्टडी ऑफ़ स्टेट पॉलिटिक्स इन इंडिया' में लिखते हैं, "चरण सिंह चाहते थे कि सीबी गुप्ता अपने मंत्रिमंडल में राम मूर्ति, मुज़फ़्फ़र हुसैन, सीता राम और बनारसी दास को न शामिल करें लेकिन गुप्ता ने उनकी ये बात नहीं मानी. चरण सिंह ये भी चाहते थे कि उनकी जगह उनके दो ख़ासमख़ास उदित नारायण शर्मा और जयराम वर्मा को मंत्रिमंडल में शामल किया जाए लेकिन सीबी गुप्ता ने उनकी ये माँग भी ठुकरा दी."
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चरण सिंह ने कांग्रेस छोड़ी
बाद में चंद्रभानु गुप्ता ने अपनी आत्मकथा 'ऑटोबायोग्राफ़ी: माइ ट्रायंफ़्स एंड ट्रेजिडीज़' में लिखा, "मैं 26 मार्च को होली के दिन चरण सिंह से मिलने गया था. लेकिन वो उन्हीं लोगों से घिरे हुए थे जिन्हें वो मंत्रिमंडल में शामिल करवाना चाहते थे. उस समय उनसे बात करना संभव नहीं. इसलिए मैं वापस चला आया. मैंने उनसे कहा कि हम लोग 2 अप्रैल को बात करेंगे लेकिन 1 अप्रैल को ही दोपहर 3 बज कर 45 मिनट पर मुझे पता चला कि चरण सिंह ने पार्टी छोड़ दी है."
वे लिखते हैं, "मैं चरण सिंह की सलाह पर जयराम वर्मा को मंत्रिमंडल में शामिल करने के लिए राज़ी भी हो गया था. इसके अलावा मैं इस बात पर भी राज़ी था कि चरण सिंह के विरोधियों को मंत्रिमंडल में न शामिल करूँ सिवाए सीता राम के. लेकिन बात बनी नहीं. चरण सिंह को डर था कि मैं उन्हें अलगथलग करने की कोशिश कर रहा हूँ."
https://www.youtube.com/watch?v=FWr3sjBq8F4
चरण सिंह संयुक्त विधायक दल के अध्यक्ष बनाए गए
उस समय तक न तो चंद्रभानु गुप्ता के पास पूर्ण बहुमत था और न ही संयुक्त विधायक दल के नेता राम चंद्र विकल के पास. लेकिन इसके बावजूद राज्यपाल गोपाल रेड्डी ने गुप्ता को सरकार बनाने का न्योता दिया.
सुभाष कश्यप अपनी किताब में लिखते हैं, "चरण सिंह ने गुप्ता सरकार में शामिल होने से इंकार कर दिया और ग़ैर कांग्रेसी दलों से बातचीत में लग गए. 3 अप्रैल को उन्हें संयुक्त विधायक दल का नेता चुन लिया गया. हाँलाकि चरण सिंह इस दल के नेता थे लेकिन इसमें सबसे अधिक 98 सदस्य जनसंघ के थे जो दूसरे सबसे बड़े घटक संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी से दोगुने से भी अधिक थे. उनके सदस्यों की संख्या चरण सिंह के अपने विधायकों की संख्या से पाँच गुनी अधिक थी."
वे लिखते हैं, "चरण सिंह को इस गठबंधन का नेता बनाया गया था. भारतीय जनसंघ के राम प्रकाश उप मुख्यमंत्री थे जबकि दूसरे सबसे बड़े दल एसएसपी को महत्वपूर्ण वित्त विभाग दिया गया था."
कहा जाता है कि चरण सिंह को कांग्रेस से अलग करवाने में राज नारायण ने बहुत बड़ी भूमिका निभाई थी. वो कई बार दिल्ली से लखनऊ गए. चरण सिंह पर बनारसी दास जैसे कई नेताओं का दवाब था कि वो कांग्रेस से इस्तीफ़ न दें लेकिन राज नारायण ने इसके लिए उन्हें मना ही लिया.
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मुसलमानों ने पहली बार कांग्रेस का विरोध किया
संयुक्त विधायक दल की सरकार भारतीय राजनीति का एक अनूठा प्रयोग थी जिसमें धुर वामपंथियों से लेकर धुर दक्षिणपंथी लोग शामिल थे.
पॉल ए ब्रास अपनी किताब में लिखते हैं, "स्वतंत्र पार्टी पूरी तरह से दक्षिणपंथी पार्टी थी. इसके 13 में से 5 विधायक रामपुर से जीत कर गए थे. उनके नेता अख़्तर अली को आबकारी और वक्फ़ मामलों का मंत्री बनाया गया था. वो संयुक्त विधायक दल मंत्रिमंडल के अकेले मुस्लिम मंत्री थे. उन्होंने ही मुझे बताया था कि इस चुनाव में पहली बार कांग्रेस को मुसलमानों का समर्थन नहीं मिला था. हालांकि अब भी विपक्ष की तुलना में कांग्रेस के मुस्लिम विधायकों की संख्या अधिक थी लेकिन यहाँ से कांग्रेस के प्रति मुसलमानों के विमुख होने की शुरुआत हुई थी क्योंकि पहले कांग्रेस को उत्तर प्रदेश में लगभग ऑटोमेटिक समर्थन मिला करता था."
शुरू से ही गठबंधन में पड़ी फूट
संयुक्त विधायक दल सरकार को सबसे पहली चुनौती तब मिली जब चंद्रभानु गुप्ता के नेतृत्व में कांग्रेस ने उनके ख़िलाफ़ अविश्वास प्रस्ताव पेश किया. लेकिन ये प्रस्ताव फेल हो गया. सरकार के समर्थन में 220 और विपक्ष में 200 वोट पड़े. लेकिन शुरू से ही इस गठबंधन में दरार पड़नी शुरू हो गई.
जनसंघ चूँकि सबसे बड़ा घटक था इसलिए चरण सिंह ने उसे शिक्षा, स्थानीय प्रशासन और सहकारिता के तीन महत्वपूर्ण विभाग दिए. बाद में चरण सिंह ने उनसे ये विभाग ले कर उन्हें सार्वजनिक कार्य और पशुपालन विभाग दे दिए.
ज़ाहिर है जनसंघ ने इसे पसंद नहीं किया. मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने सरकारी कर्मचारियों की छंटनी के मुद्दे पर सबसे पहले सरकार से किनारा किया. जब संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी ने अंग्रेज़ी हटाओ आँदोलन शुरू किया तो चरण सिंह से उनके गंभीर मतभेद शुरू हो गए.
कृष्णनाथ शर्मा अपनी किताब 'संविद गवर्नमेंट इन उत्तर प्रदेश' में लिखते हैं, "ये मतभेद इस हद तक बढ़े कि दो कैबिनेट मंत्रियों ने अंग्रेज़ी हटाओ मुद्दे पर अपनी गिरफ़्तारी दी और चरण सिंह सरकार को सरेआम बेइज़्ज़त किया. 5 जनवरी, 1968 को एसएसपी भी संयुक्त विधायक दल सरकार से बाहर आ गई. चरण सिंह ने इस बात पर अपना विरोध जताया कि एसएसपी के मंत्रियों ने अपने इस्तीफ़े उन्हें न सौंप कर राज्यपाल को सौंपे."
चरण सिंह की राह में सबसे बड़ा काँटा थे संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के अध्यक्ष अर्जुन सिंह भदोरिया. हाँलाकि भदोरिया प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के अध्यक्ष थे और किसी भी सदन के सदस्य नहीं थे लेकिन तब भी एसएसपी उनके ही कदमों पर चली.
कृष्णनाथ शर्मा लिखते हैं, "विधानसभा में एसएसपी के नेता और गठबंधन सरकार की समन्वय समिति के महासचिव उग्रसेन ने अपने केंद्रीय नेतृत्व के निर्देश का पालन करते हुए इस्तीफ़ा दे दिया और सभी एसएसपी सदस्यों से कहा कि वो संयुक्त विधायक दल की सभी इकाइयों से अपनेआप को अलग कर लें."
18 फ़रवरी. 1968 को चरण सिंह ने राज्यपाल को अपना इस्तीफ़ा सौंपते हुए विधानसभा भंग करने और नए चुनाव करवाने की सिफ़ारिश की. राज्यपाल ने उनकी सिफ़ारिश नहीं मानी और राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफ़ारिश कर दी.
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चरण सिंह की तारीफ़ और आलोचना
कहने को चरण सिंह की सरकार मात्र कुछ महीने ही चली लेकिन उनकी सरकार में उप मुख्यमंत्री रहे और बाद में प्रदेश के मुख्यमंत्री बने राम प्रकाश ने कहा, "चौधरी चरण सिंह बहुत अच्छे प्रशासक हैं लेकिन दिक्कत ये है कि वो प्रशासन में राजनीतिक विचारों का लिहाज़ नहीं करते जिसकी वजह से कभी कभी मुश्किलें आ जाती हैं. चरण सिंह मंत्रिमंडल में प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के एकमात्र सदस्य प्रताप सिंह ने भी चरण सिंह की तारीफ़ करते हुए कहा कि चरण सिंह एक महान नेता थे जिनकी ईमानदारी पर सवाल नहीं उठाए जा सकते थे. दूसरी तरफ़ कांग्रेस नेता नवल किशोर थे जिन्होंने चरण सिंह पर जातिवाद के समर्थक होने का आरोप लगाया. चरण सिंह इससे इतने आहत हुए कि उन्होंने इस इंटरव्यू को छापने वाले अख़बार नेशनल हेरल्ड के ख़िलाफ़ क़ानूनी कार्रवाई करने की धमकी दे डाली.
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https://www.youtube.com/watch?v=BsrF_SgwxcU
इंदिरा गांधी से दूरी
यहीं से चरण सिंह और प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के बीच दूरी की भी शुरुआत हुई. चरण सिंह ने इंदिरा गाँधी को पत्र लिख कर कहा, "इस चुनाव में कांग्रेस को सिर्फ़ 198 सीटें मिलीं हैं जबकि विपक्ष 227 सीटों पर विजयी हुआ. अगर मैं तुरंत विपक्ष की तरफ़ चला जाता तो ये संख्या 275 को पार कर जाती. लेकिन मैंने ऐसा नहीं किया और चंद्रभानु गुप्ता के ख़िलाफ़ कांग्रेस विधायक दल के नेता का चुनाव लड़ने का फ़ैसला किया. लेकिन जब आपके संदेशवाहकों ने मुझे ऐसा करने के लिए रोका तो मैंने अपना नाम वापस ले लिया. इतना ही नहीं मैंने नेता पद के लिए चंद्रभानु गुप्ता का नाम ख़ुद प्रस्तावित किया."
इतना ही नहीं इंदिरा गांधी को एक दूसरे पत्र में उन्होंने लिखा कि जब वे गठबंधन सरकार में मुख्यमंत्री थे तो न सिर्फ़ उन्होंने इंदिरा गाँधी के ख़िलाफ़ हो रहे प्रदर्शन को पुलिस से तुड़वाया बल्कि गठबंधन में अपने साथियों राजनारायण और दूसरे लोगों को गिरफ़्तार कर जेल भी भिजवाया.
लेकिन इंदिरा गांधी और चरण सिंह के बीच आई दूरी कभी पट नहीं पाई. जब चरण सिंह केंद्र में गृह मंत्री बने तो उन्होंने इंदिरा गाँधी को गिरफ़्तार करवा कर जेल भेजा.
मोरारजी देसाई के ख़िलाफ़ मुहिम में इंदिरा गांधी ने पहले तो उनका साथ दिया लेकिन जब वो प्रधानमंत्री बन गए तो कुछ ही दिनों के अंदर उन्होंने उनकी सरकार से समर्थन वापस ले लिया.
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