क्विक अलर्ट के लिए
नोटिफिकेशन ऑन करें  
For Daily Alerts
Oneindia App Download

बॉलीवुड ने दर्शकों को सिनेमाघरों तक लाने का फ़ार्मूला ढूँढ लिया है?

ओटोटी, कोरोना और महँगे टिकट के दौर में बॉलीवुड आख़िर कैसे दर्शकों को थिएटर तक खींच पाएगा

By BBC News हिन्दी
Google Oneindia News
अजय देवगन
Twitter/ssrajamouli
अजय देवगन

पहले ओटीटी का हमला और फिर कोरोना की मार, इनकी वजह से बेदम बॉलीवुड के सामने दर्शकों को सिनेमाघरों तक खींचने की जो चुनौती सामने आई है उसने सिनेमा बनाने वालों को गहरी परेशानी में डाल दिया है.

फ़िल्म मेकर्स को ये तो समझ में आ ही चुका है कि हथेली में सिमट चुकी मनोरंजन की दुनिया से दर्शकों को बाहर निकाल कर सिनेमाघरों तक पहुंचाना अब इतना आसान नहीं होगा और इसके लिए किसी 'करिश्मे' की जरूरत होगी, और वो करिश्मा होगा - लॉर्जर दैन लाइफ़ यानी बहुत भव्य फिल्में.

दरअसल, हाल में आई एसएस राजामौली की फिल्म आरआरआर ने ये साफ कर दिया है कि अब अगर दर्शकों को सिनेमाघर तक लेकर आना है तो उसके लिए इस तरह का भव्य सिनेमा बनाना होगा जिसके बारे में दर्शक ये मान लें कि उसे बड़े परदे पर ही देखने में मज़ा आएगा.

तो बड़ा बजट, बड़े स्टार, बड़ा स्केल और भारी भव्यता समय की मांग हैं.

बॉलीवुड वाले समझने लगे हैं कि 600 रुपये का टिकट लेकर थिएटर में जाने वाले को अगर भव्यता के अनुभव के साथ पूरा एंटरटेनमेंट नहीं मिलेगा तो वह ओटीटी के मायाजाल से बाहर नहीं निकलेगा.

ऐसा नहीं है कि बॉलीवुड वालों ने कभी भव्य सिनेमा बनाया ही नहीं. अलग-अलग दौर में भव्यता का पैमाना अलग-अलग रहा है. सत्तर और अस्सी के दशक में मल्टीस्टारर फिल्में खूब बना करती थीं और चलती भी थीं.

लेकिन नाइनटीज के बाद से उसमें कमी आई और फिर एक समय तो ये उंगलियों पर गिनी जाने वाली फिल्मों में शुमार हो गईं. यशराज, करण जौहर, संजय लीला भंसाली और साजिद नाडियाडवाला जैसे फ़िल्मकारों ने लगातार बड़े बजट और बड़े स्केल की फिल्में बनाकर दर्शकों को सिनेमाघरों तक खिंचने का सिलसिला जारी रखा था.

फिर भी हाल के वर्षों में राजामौली की बाहुबली (भाग एक और दो) ही एक ऐसी फिल्म रही जिसे दर्शकों ने जितनी बार भी देखा, थिएटर में ही जाना पसंद किया. इधर सूर्यवंशी, पुष्पा, गंगूबाई काठियावाडी और आरआरआर देखने के लिए सिनेमाघर भरे हैं तो इसमें उनकी मेकिंग और कुछ बड़ा करने की सोच जिम्मेदार है.

जाने-माने ट्रेड एक्सपर्ट तरण आदर्श बताते हैं कि एक समय था जब लोग कह रहे थे कि ओटीटी के आने से ब़ड़े पर्दे का चार्म खत्म हो जाएगा लेकिन कोरोना के बाद अब पुष्पा, गंगूबाई काठियावाडी, आरआरआर और कश्मीर फाइल्स जैसी फिल्मों की कमाई की वजह से ऐसा लगता है कि बड़े पर्दे का जादू पूरी तरह खत्म नहीं होगा.

ओटीटी आपके घर में है वो आप कभी भी देख सकते हैं लेकिन बड़ी फिल्मों का मज़ा बड़े पर्दे पर ही आता है.

तरण आदर्श मानते हैं कि कम्युनिटी व्यूइंग का जो अनुभव थिएटर में हो सकता है वो घर में नहीं मिलेगा. बड़े पर्दे का मतलब ही होता है कि बड़ी फिल्में. आज जब टिकट महँगे हैं तो दर्शकों को बड़ा मनोरंजन भी चाहिए.

बड़ा स्केल भी चाहिए और बड़े सितारे भी चाहिए. आरआरआर से एक बेंचमार्क सेट हुआ है. 500 या 600 रुपये देकर जो देखने मिला है उससे अब आने वाली फिल्मों को उसी तराजू में तौला जाएगा. और इसीलिए अब बॉलीवुड प्रोड्यूसर्स को बड़ा एंटरटेनमेंट देना ही पड़ेगा. बड़ा स्केल बनाना ही पड़ेगा.

आने वाली फिल्मों की लिस्ट देखकर कुछ उम्मीद बंधती दिखती है.

केजीएफ
KGF Facebook
केजीएफ

रणवीर कपूर- आलिया भट्ट की ब्रहमास्त्र, प्रभास और सैफ की आदिपुरूष, केजीएफ का दूसरा भाग, अजय देवगन-अमिताभ बच्चन की रनवे 34, रणबीर की शमशेरा, टाइगर श्राफ की हीरोपंती 2, शाहरूख खान की पठान, अक्षय कुमार की पृथ्वीराज जैसी कुछ फिल्में होंगी, जो दर्शकों को सिनेमाघर तक खींच लाने में सफल हो सकती हैं, क्योंकि इन फिल्मों को लार्जर दैन लाइफ बनाने की कोशिश की गई है.

अभी हाल ही की बात है जब सलमान खान ने 'लार्जर दैन लाइफ' फिल्मों की वकालत करते हुए कहा था कि "हमारी फिल्मों का साउथ वालों की तरह नहीं चलने का एक कारण ये भी है कि वो लोग हीरोगिरी को खूब बढ़ावा देते हैं. कुछ लोगों को तो ये लगता है कि इंडिया मे जो कुछ है वह बस कफ परेड और अंधेरी के बीच में ही है, बाहर निकलो और देखो."

दरअसल, बॉलीवुड वालों को एक समय गुमान हो गया था कि फ़िल्में सिर्फ स्टार वैल्यू से चलती हैं लेकिन शाहरूख से लेकर अक्षय तक सबने इसका खामियाजा भुगता है.

कोरोना काल के पहले के कुछ वर्षों में छोटे शहरों की मैसेज बेस्ड कहानियों का खूब बोलबाला रहा था लेकिन वह ज़ॉनर अलग है और थिएटर्स को हाउस फुल करने के लिए काफी नहीं है.

निर्देशक संजय पूरन सिंह कहते हैं, "मुझे लगता है कि ऑडियंस ने डिसाइड कर लिया है कि अब हम थियेटर में उसी चीज़ के लिए जाएँगे जिसका मज़ा ओटीटी या छोटी स्क्रीन पर नहीं आएगा, तो अब मेकर्स को लगने लगा है कि अगर फिल्म को एक इवेंट नहीं बनाएँगे, अगर वो लार्जर देन लाइफ वाली फीलिंग नहीं देगी, तो नहीं चलेगा."

उनका कहना है, "एक जमाना था जब हमारे यहां मल्टीस्टारर बड़ी-बड़ी फिल्में बनती थीं, हम इंतजार करते थे, थिएटर्स में जाते थे और फिल्में हिट हो जाती थीं. साउथ तो पहले ही इस दिशा में आगे बढ़ चुका है. हर एक-डेढ़ महीने में उनके पास एक पैन-इंडिया फिल्म है .ऐसे में बॉलीवुड को कमर कसनी होगी. ये ट्रेंड कभी आउट ऑफ फैशन नहीं होगा. 90 के दशक से हमने ऐसी फिल्में बनानी बंद की थी लेकिन अब उनकी वापसी होगी."

देश में जब सोशल मीडिया का बूम आया तो पब्लिसिटी और प्रमोशन को मुख्य हथियार बनाया गया. नए-नए आइडिया और खूब सारे पैसे झोंककर दर्शकों को रिझाने की कोशिश होती रही है.

हालांकि निर्माता और स्टार्स पब्लिक को मूर्ख समझने की भूल कर बैठते हैं और कई बार उन्हें मुंह की खानी पड़ती है. फिल्मी दुनिया में माउथ पब्लिसिटी आज भी सबसे बड़ा जरिया है और इसका उदाहरण हालिया 'कश्मीर फाइल्स' में देखा गया जहां महज 500 स्क्रीन्स से शुरू हुई फिल्म एक हफ्ते में चार हज़ार स्क्रीन्स तक पहुंच गई.

ये बात तो एकदम सच है कि अगर अच्छा कन्टेंट न हो तो दर्शक सिनेमाघरों में फिल्में देखने नहीं जाएँगे लेकिन उन्हें वहां तक लाने के लिए थिएटर वाली फीलिंग तो दिलानी जरूरी ही है.

फिल्में जब तक मास एंटरटेनर नहीं होंगी, ओटीटी तक ही सिमटकर रह जाएँगी.

(बीबीसी हिन्दी के एंड्रॉएड ऐप के लिए आप यहां क्लिक कर सकते हैं. आप हमें फ़ेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम और यूट्यूब पर फ़ॉलो भी कर सकते हैं.)

BBC Hindi
Comments
देश-दुनिया की ताज़ा ख़बरों से अपडेट रहने के लिए Oneindia Hindi के फेसबुक पेज को लाइक करें
English summary
Bollywood formula to bring the audience to the theatres?
तुरंत पाएं न्यूज अपडेट
Enable
x
Notification Settings X
Time Settings
Done
Clear Notification X
Do you want to clear all the notifications from your inbox?
Settings X
X