नज़रियाः पूर्वोत्तर में बीजेपी की धमक पूरे देश में कितनी असरदार?
त्रिपुरा में हुए पिछले विधानसभा चुनावों में 50 सीटों पर लड़ने वाली और उनमें से 49 सीटों पर ज़मानत जब्त करवाने वाली भारतीय जनता पार्टी ने इस बार के विधानसभा चुनावों में जिस तरह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को शून्य पर समेट दिया और वापमंथ के मजबूत गढ़ को जिस तरह से ढहाया वह भारतीय राजनीति में अभूतपूर्व घटना है.
त्रिपुरा में हुए पिछले विधानसभा चुनावों में 50 सीटों पर लड़ने वाली और उनमें से 49 सीटों पर ज़मानत जब्त करवाने वाली भारतीय जनता पार्टी ने इस बार के विधानसभा चुनावों में जिस तरह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को शून्य पर समेट दिया और वापमंथ के मजबूत गढ़ को जिस तरह से ढहाया वह भारतीय राजनीति में अभूतपूर्व घटना है.
सीपीआई(एम) के नेता माणिक सरकार को भारत के सबसे बेहतरीन मुख्यमंत्रियों में से एक माना जाता है, वे देश में सबसे कम आय वाले मुख्यमंत्री हैं, और त्रिपुरा राज्य की राजनीति में उनकी मजबूत पकड़ रही है.
रबड़ उत्पादन के मामले में त्रिपुरा (केरल के बाद) देश का दूसरा बड़ा राज्य और पूर्वोत्तर में आर्म्ड फोर्स स्पेशल पावर एक्ट (आफ्स्पा) हटाने वाला एकमात्र राज्य है.
यहां विद्रोह को समाप्त किया गया, 30 से अधिक कल्याणकारी योजनाओं की शुरुआत की गई और यहां का मानव विकास सूचकांक भी अच्छा है.
जब त्रिपुरा की सरकार ने अपने राज्य के लिए इतना कुछ किया तो फिर उसे इन चुनावों में हार का सामना क्यों करना पड़ा, आखिर माणिक सरकार ने क्या गलत कर दिया? ये सवाल सभी जगह पूछे जा रहे हैं.
लेफ्ट से मोहभंग क्यों?
भारतीय वोटर के दिमाग से वामपंथी सरकार के प्रति आकर्षण खत्म क्यों होने लगा है.
किसी भी सरकार के लिए 25 साल एक लंबा वक्त होता है कि वह एक बार फिर अपने वोटरों को अपनी तरफ आकर्षित कर सके और जीत सके. चुनाव में खड़े सभी दल अपने पाले में ज़्यादा वोट और जीत चाहते हैं.
माणिक सरकार की सबसे बड़ी ग़लती इस बार यह रही कि वह अपने वोटरों का दिमाग सही तरीके से पढ़ने में कामयाब नहीं रही. माणिक सरकार ने यह बात स्वीकार की कि वे नई नौकरियां पैदा करने में वो नाकामयाब रहे. राज्य की शैक्षिक दर तो ऊंची है, लेकिन शहरी इलाकों में बेरोज़गारी का प्रतिशत 17 फ़ीसदी है.
राज्य में 7वां वेतन आयोग अभी तक लागू नहीं किया गया है. सीपीआई(एम) के कैडरों पर भाई भतीजावाद के आरोप लगते रहे हैं. बंगाली आदिवासियों को इन्होंने कभी गंभीरता से नहीं लिया.
बीजेपी को कैसे मिली जीत?
पिछले दो सालों से बीजेपी ने त्रिपुरा में खुद को खड़ा करने के लिए ज़मीनी स्तर पर काम किया. वे जानते थे कि लेफ्ट से मुकाबला करने के लिए उन्हें अपना कैडर धीरे-धीरे ही तैयार करना होगा.
इस काम के लिए बीजेपी और आरएसएस के 50 हज़ार से अधिक कार्यकर्ता जुटे हुए थे. उन्होंने अपनी कार्यप्रणाली को सीमावर्ती राज्य के अनुसार ढाल लिया था.
पन्ना प्रमुख का अहम किरदार
मोर्चा, विस्तारक, पन्ना प्रमुख और संपर्क के आधार पर पांच स्तरीय प्रणाली तैयार की गई थी.
तीन तरह के मोर्चे तैयार किए गए- महिला, युवा और एससी/एसटी/ओबीसी. विस्तारकों ने यह बात सुनिश्चत की कि मंडलों में आपसी कलह पैदा न होने पाए और इस काम को पार्टी की युवा ब्रिगेड ने बखूबी निभाया.
पन्ना प्रमुख पेज इंचार्ज बनाए गए और प्रत्येक पेज ने 60 वोटरों की ज़िम्मेदारी संभाली उनकी ज़रूरतों का ख्याल रखा.
संपर्क वो कैडर था जो जगह-जगह जाकर लोगों से जुड़ता, जैसे ट्रेन में यात्रा कर रहे लोगों की बीच जाकर उनकी समस्याएं पूछना और फिर उनकी जानकारी गांव के मंडल तक पहुंचाना.
चुनाव से पहले बीजेपी ने आदिवासी सीटों पर अपनी पकड़ मजबूत की. यह लेफ्ट के वोट में बड़ी सेंध थी.
साफ़तौर पर समझा जा सकता है कि बीजेपी ने अपनी जीत की रूपरेखा बहुत पहले से तैयार कर ली थी और वे उसे हासिल करने में कामयाब भी रहे.
वहीं दूसरी तरफ लेफ्ट जहां आत्मसंतुष्टि की भावना लिए हुए थी तो वहीं कांग्रेस ने चुनाव से पहले ही हथियार डाल दिए थे.
हिंदू वोट बैंक
सवाल यह भी है कि क्या त्रिपुरा में बाकी मुद्दे जैसे हिंदू वोट बैंक ने भी कुछ असर डाला? इसका जवाब हां है, लेकिन ये मुद्दे बीजेपी को उसकी स्वप्निल जीत से दूर नहीं कर सके.
पूर्वोत्तर के बाकी दो राज्यों नगालैंड और मेघालय की बात करें तो यहां भी बीजेपी ने अपने सहयोगी दलों के साथ अच्छा प्रदर्शन किया है. और यही उनकी योजना भी थी. जहां त्रिपुरा ने सभी को निशब्द कर दिया वहीं इन दोनों राज्यों ने भी थोड़ा बहुत तो हैरान किया है.
नगालैंड में एनडीए की सरकार थी लेकिन उसमे बीजेपी की धमक कम थी. लेकिन इस बार बीजेपी ने अपनी स्थिति पहले से जहां बेहतर की है, वहीं क्षेत्रीय दलों के चुनाव से बहिष्कार करने बावजूद बीजेपी सभी को चुनावी मैदान तक खींच लाने में कामयाब रही.
बीजेपी की चाणक्य नीति
जिस शांति समझौते के खुलासे के ना होने पर चुनावों का बहिष्कार किया जा रहा था, बीजेपी ने अपनी सफल रणनीति से उस मुद्दे को ही गायब कर दिया.
एक ऐसा राज्य जहां पैसा, बंदूक और ग्राम परिषद के फरमानों का ही बोलबाला हो वहां किसी तरह की विचारधारा काम नहीं आती.
पूर्व मुख्यमंत्री और अब बीजेपी के सहयोगी नेफू रियो ने नामांकन के दौरान अपने प्रतिद्वंदी को रोकने के लिए सड़क ही ब्लॉक करवा दी थी जिससे वे समय पर नामांकन ना कर सकें.
मेघालय में गौवध पर प्रतिबंध एक तरह से बीजेपी के लिए नुकसान भरा कदम समझा जा रहा था लेकिन ज़मीनी हकीक़त कुछ और ही है. कोयला और चूना पत्थर खदानों में लगा प्रतिबंध लोगों के लिए गौवध पर प्रतिबंध से ज़्यादा बड़े मुद्दे हैं.
राष्ट्रीय राजनीति पर कितना असर?
कई लोग यह तर्क देते हैं कि संसद में इन राज्यों का प्रतिनिधित्व बहुत कम है और इसलिए इनके नतीजे राष्ट्रीय राजनीति पर ज़्यादा असरदार साबित नहीं होंगे.
लेकिन एक दल जो उम्मीदों की उड़ान पर सवार है, उसके लिए इससे अच्छे नतीजे इस मौके के अलावा और कभी नहीं आ सकते थे.
अगले दो महीनों के भीतर कर्नाटक में चुनाव होने वाले हैं, इसके अलावा राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में बीजेपी को अपनी सत्ता बचाने की चुनौती है.
यह जीत आने वाले चुनावों में बीजेपी के भीतर और अधिक उत्साह भरेगी.
आम धारणा से परे, विपक्ष के लिए एक सीख यह है कि बीजेपी अपनी हरेक सीट पर और अधिक ज़ोर आजमाइश कर रही है.
कांग्रेस मुक्त भारत के अपने अभियान को बीजेपी साकार करती नज़र आ रही है.
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