शिवसेना का दो धड़ों में बँटे रहना बीजेपी के लिए ज़्यादा फ़ायदेमंद है
शिवसेना के आंतरिक संघर्ष से बीजेपी को महाराष्ट्र में फौरी तौर पर क्या मिलेगा और दीर्घकालिक फायदा कितना होगा?
महाराष्ट्र की राजनीति में पिछले कई दिनों से जारी घमासान में आख़िरकार शिवसेना दो धड़ों में विभाजित हो गई है - शिंदे गुट और उद्धव ठाकरे गुट.
40 विधायकों के समर्थन वाले शिंदे गुट ने बीजेपी के समर्थन से सरकार बना ली है. शिंदे गुट ने सोमवार को महाराष्ट्र विधानसभा में हुए फ़्लोर टेस्ट में भी 164 वोटों के साथ जीत दर्ज की है.
और स्पीकर के चुनाव में भी शिंदे गुट के राहुल सुरेश नार्वेकर को 164 वोटों से जीत मिली है. उद्धव ठाकरे के गुट के पास अब सिर्फ 16 विधायकों का समर्थन शेष है.
इसके बाद भी दोनों पक्षों में खुद को असली शिवसेना साबित करने का संघर्ष जारी है. शिंदे गुट ने सोमवार को 16 विधायकों के ख़िलाफ़ अयोग्यता का नोटिस जारी करने का एलान किया है.
इस सबके बीच बीजेपी एक विजेता बनकर उभरी है. नई सरकार में डिप्टी सीएम बनने वाले देवेंद्र फडणवीस ने विधानसभा में कहा है कि जब वह वापसी करने की बात करते थे तो लोगों ने उनका मज़ाक उड़ाया था, अब वो अपने साथ-साथ और लोगों को भी लाए हैं.
फडणवीस के बयान से एक सवाल खड़ा होता है कि शिवसेना के दोनों धड़ों में जारी संघर्ष क्या बीजेपी के लिए फ़ायदे वाली स्थिति है?
ये सवाल अहम है क्योंकि एकनाथ शिंदे को सीएम बनाने की जगह बीजेपी बाग़ी विधायकों को अपनी ओर लाकर फडणवीस को सीएम बना सकती थी. लेकिन बीजेपी ने ऐसा नहीं किया.
बीजेपी की राजनीतिक हैसियत
महाराष्ट्र में बीजेपी की राजनीतिक हैसियत का ग्राफ़ उतार-चढ़ाव से भरा रहा है. एक समय में शिवसेना के संस्थापक बाला साहेब ठाकरे कहा करते थे कि 'कमलाबाई की चिंता मत करो. वो वही करेगी जो मैं कहूंगा.'
और आज वो दौर है जब ठाकरे परिवार का अपनी ही पार्टी से नियंत्रण ख़त्म होता दिख रहा है.
पार्टी के 55 में से 40 विधायकों ने बीजेपी के साथ मिलकर सरकार बना ली है और ठाकरे परिवार के पास सिर्फ 16 विधायकों का समर्थन शेष है.
और इन विधायकों पर भी अयोग्य ठहराए जाने की तलवार लटक रही है.
ऐसे में सवाल उठता है कि महाराष्ट्र में बीजेपी की राजनीतिक हैसियत पर इस सियासी संग्राम का क्या असर पड़ेगा.
वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी मानती हैं कि शिवसेना के कमजोर होने से बीजेपी को बड़ा फायदा होगा.
इसकी वजह बताते हुए वह कहती हैं, "बीजेपी एक लंबे समय से शिवसेना को दो हिस्सों में बांटना चाहती थी. शिवसेना बीजेपी की सबसे पुरानी सहयोगी रही है. लेकिन साल 2019 में दोनों के बीच दरार आई जिसके बाद शिवसेना दूसरे पाले में चली गयी. लेकिन तब तक बीजेपी शिवसेना को जूनियर पार्टनर के दर्जे पर पहुंचा चुकी थी.
ऐसे में शिवसेना पर आंतरिक फूट पड़ने से वह कमजोर हो सकती थी जो कि होना जारी है. इस समय एकनाथ शिंदे के साथ काफ़ी विधायक हैं लेकिन इनमें से ज़्यादातर विधायक बीजेपी के साथ जा सकते हैं. हालांकि, ये तुरंत नहीं होगा."
बीजेपी ने ऐसा क्यों किया
पिछले ढाई सालों की राजनीति को देखें तो बीजेपी और उसके समर्थकों ने बार-बार ठाकरे सरकार पर हिंदुत्व विरोधी तत्वों के साथ हाथ मिलाने का आरोप लगाया है.
इसमें हनुमान चालीसा विवाद सबसे अहम है जिसमें सांसद नवनीत राणा के मुद्दे पर दोनों दल आमने-सामने आ गए थे.
सरल शब्दों में कहें तो बीजेपी ये चाहती है कि महाराष्ट्र में हिंदुत्व की झंडाबरदारी उसके नाम रहे. क्योंकि इससे पहले सिर्फ बीजेपी के अलावा शिवसेना ही हिंदुत्व का झंडा उठाया करती थी.
बीजेपी की राजनीति को समझने वाले वरिष्ठ पत्रकार शरद गुप्त बताते हैं, "शिवसेना अब बँटने नहीं, ख़त्म होने की ओर बढ़ रही है. देश में अब तक हिंदुत्व के दो झंडाबरदार थे - बीजेपी और शिवसेना. अगर एक दावेदार ख़त्म होता है तो सिर्फ एक दावेदार रह जाएगा जिसे देश भर में हिंदुत्व समर्थकों का समर्थन मिलेगा.
बाल साहेब ठाकरे के जाने के बाद उद्धव ठाकरे ने जिस तरह समावेशी राजनीति करने की कोशिश की, तो वो शिवसेना की मूल आत्मा के ख़िलाफ़ था. बाल ठाकरे की पूरी राजनीति उग्र थी, वह हिंदुत्व के पक्ष में थी. उत्तर भारतीय और दक्षिण भारतीयों के ख़िलाफ़ और मराठी मानुष के समर्थन में थी.
उद्धव ठाकरे ने समावेशी राजनीति करने की कोशिश की जिसमें सभी को साथ लेकर चलने की कोशिश की. इसमें मुसलमान भी शामिल थे. इस वजह से मूल मराठी मानुष वाली राजनीति पीछे हो रही थी. "
गुप्त बताते हैं, "आज हुआ ये है कि एकनाथ शिंदे के ख़िलाफ़ या मतदान से दूर रहने वाले 16 विधायकों के ख़िलाफ़ नोटिस जारी किया गया है. ये ठाकरे गुट के विधायक हैं. अगर दल बदल कानून के तहत इन विधायकों को अयोग्य ठहरा दिया जाता है और फिर उपचुनाव होंगे तो इनमें से कितने दोबारा विधायक बन पाएंगे ये एक बड़ा सवाल है. क्योंकि इन चुनावों में बीजेपी की ताकत लगेगी, राज्य सरकार से लेकर केंद्र सरकार की ताक़त उसके पास है.
और अभी बीएमसी का चुनाव भी आने वाला है, ऐसे में बीजेपी की रणनीति है कि किसी तरह शिवसेना को ख़त्म किया जाए. उद्देश्य बांटना नहीं, ख़त्म करना है जिस तरह उन्हें कांग्रेस को लगभग ख़त्म कर दिया है, एलजेपी को लगभग ख़त्म कर दिया.
ऐसे में वे जिसको चाहते हैं, ख़त्म कर देते हैं. और इसमें अब एक बड़ी भूमिका जांच एजेंसियों की भी हो रही है. और बीजेपी का फायदा इसमें यही है कि विपक्ष जितना कमज़ोर होता जाएगा, बंटता जाएगा, उतनी ही बीजेपी की जीत की संभावनाएं बढ़ती जाएँगी. चाहे वह बिहार हो, पंजाब हो या महाराष्ट्र हो."
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कांग्रेस नहीं क्षेत्रीय पार्टियां पर नज़र
उत्तर प्रदेश, बिहार और महाराष्ट्र के राजनीतिक समीकरणों पर नज़र डालें तो पता चलता है कि क्षेत्रीय पार्टियों के कमजोर होने से बीजेपी को फायदा हुआ है.
उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के शीर्ष परिवार में आंतरिक कलह का फायदा बीजेपी को 2017 के चुनाव में हुआ.
बिहार में लोजपा और जदयू के बीच टक्कर और उसके बाद लोजपा में बंटवारे से भी बीजेपी को फायदा हुआ.
और अब महाराष्ट्र में शिवसेना में दरार के बाद बीजेपी ने साथ मिलकर सरकार बनाई है.
ऐसे में सवाल उठता है कि क्या ये अलग-अलग राज्यों के राजनीतिक समीकरणों की वजह से हुआ है या इसके पीछे बीजेपी की रणनीति काम कर रही है.
नीरजा चौधरी बताती हैं, "बीजेपी की नज़र अब कांग्रेस पर नहीं है. उनकी नज़र में कांग्रेस बहुत कमजोर हो गई है. अब बीजेपी क्षेत्रीय पार्टियों पर ध्यान दे रही है जो कि अलग-अलग राज्यों में सरकारें चला रही हैं. इस बात की संभावना है कि बीजेपी इस फॉर्मूले को दूसरी जगहों पर भी इस्तेमाल करे जिससे क्षेत्रीय पार्टियों में फूट पड़े, उनके साथ एक ग्रुप आकर सरकार बनाए. ऐसा लगता है कि बीजेपी की यही रणनीति है और उन्होंने इस बारे में हैदराबाद में इशारा भी किया है."
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