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अखिलेश की राजनीतिक मजबूरी क्यों नहीं हो सकते मुलायम और पिछड़े

By आर एस शुक्ला
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नई दिल्ली। लोकसभा चुनाव परिणामों के बाद अब कई दिन बीत चुके हैं, लेकिन विपक्षी पार्टियां अभी भी हार के सदमे से नहीं उबर पाई हैं। ऐसे समय जब भाजपा और एनडीए ने परिणामों की घोषणा के तत्काल बाद से अपनी भावी रणनीतियों पर पूरी मुस्तैदी से काम करना शुरू कर दिया है, विपक्ष की शायद ही कोई पार्टी हो जो कुछ नया कर पा रही हो। इसमें वे सभी पार्टियां हैं जो खुद को भाजपा के विरोध में खड़ी रही हैं और जिन्हें करारी हार का सामना करना पड़ा है। इनमें से एक समाजवादी पार्टी (सपा) भी है जो यह मानकर और इस दावे के साथ लोकसभा चुनाव में बसपा और रालोद के साथ महागठबंधन बना कर गई थी कि न केवल बहुत सारी सीटों पर जीत हासिल करेंगे बल्कि भाजापा को सत्ता में आने से रोकेंगे। इन दोनों में ही यह गठबंधन असफल रहा। इतना ही नहीं, सपा को अपेक्षा के विपरीत इतनी कम सीटें मिल पाईं जितनी किसी को कल्पना नहीं थी।

हार को लेकर सपा में गंभीर मंथन

हार को लेकर सपा में गंभीर मंथन

गठबंधन और सपा को मिली हार सपा प्रमुख अखिलेश यादव की राजनीति के लिए बड़ा सबक लेकर आई है जिसे अभी भी वे समझने में ही लगे हैं और इसे समझ पाना संभवतः उनके लिए अभी भी टेढी खीर साबित हो पा रहा है। इसके बावजूद पार्टी में इस हार को लेकर गंभीर मंथन चल रहा है और पार्टी नेताओं-कार्यकर्ताओं में यह उम्मीद है कि शायद कुछ ऐसा निकलकर आएगा जिसके आधार पर सपा नए सिरे से आगामी विधानसभा चुनावों के लिए खुद को तैयार कर पाएगी और कुछ प्रभावी हस्तक्षेप कर पाने में सक्षम हो सकेगी। यह भी आशा की जा रही है कि पार्टी नए सिरे से संगठन को मजबूत बनाने में लगेगी और अपने वोट जिसमें अल्पसंख्यक और पिछड़े भी हुआ करते थे, फिर से अपने पक्ष में गोलबंद कर सकेगी। पार्टी के भीतर चल रहे गंभीर मंथन से कुछ इस तरह के प्रयासों की जानकारी सामने आ रही है जिसमें हार के हर संभावित कारणों की छानबीन की जा रही है और यह भी सोचा जा रहा है कि इसे कैसे दूर किया जा सकता है और नए सिरे से पार्टी को मजबूती प्रदान की जा सकती है।

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बसपा के साथ गठबंधन राजनीतिक मजबूरी भी बना

बसपा के साथ गठबंधन राजनीतिक मजबूरी भी बना

इसमें दो राय नहीं कि सपा में एक खास तरह का विचार काम कर रहा था कि उसका जातीय समीकरण बहूत मजबूत है और किसी भी हालत में उसके साथ खड़ा होगा। इसे और पुख्ता करने के लिए ही जातीय आधार पर ही मजबूत मानी जाने वाली बसपा के साथ बहुत लचीलेपन के साथ गठबंधन बनाया गया। असंभव सा माना जाने वाला यह गठबंधन वक्त की जरूरत के अलावा राजनीतिक मजबूरी भी बन गया था क्योंकि भाजपा ने राज्य में अपने को इतना मजबूत कर लिया था कि उससे पार पाना कोई आसान काम नहीं रह गया था। दूसरा यह कि बीते लोकसभा और विधानसभा चुनाव में इन दोनों पार्टियों की हालत इतनी कमजोर हो चुकी थी कि इस लोकसभा में भी उन्हें हस्तक्षेपकारी नहीं माना जा रहा था। इनका अस्तित्व ही एक तरह से संकट में माना जा रहा था। इसीलिए यह इनकी राजनीतिक मजबूरी थी कि अगर अस्तित्व बचाना है तो पुरानी सारी दुश्मनी भुलाकर एक साथ आना होगा और वे आए भी है। लेकिन इसके अलावा इन दोनों ही पार्टियों की ओर से और ज्यादा कुछ नहीं किया गया जो जीत को आसान बना सकते।

पिछड़ों पर ध्यान भी नहीं दिया गया

पिछड़ों पर ध्यान भी नहीं दिया गया

दोनों ही पार्टियां और दोनों नेता इस मुगालते में रहे कि गठबंधन हो जाने के बाद कम से कम यादव, दलित और अल्पसंख्याक उन्हें वोट करेंगे हीं। इसमें पिछड़ों पर तो ध्यान भी नहीं दिया गया जो एक तरह से काफी पहले से भाजपा के साथ जा चुका था। पिछड़े कभी सपा का वोटर माने जाते थे और मुलायम सिंह यादव उनके नेता। लेकिन अखिलेश यादव के पार्टी और सत्ता संभालने के समय से ही वे छिटकने लगे और अपना नया ठौर तलाशने लगे थे। दूसरी तरफ मुलायम सिंह को भी एक तरह से किनारे कर दिया गया था जिसका न केवल भाजपा ने उपयोग किया बल्कि राजनीतिक हलकों में भी खराब संदेश गया था। हालांकि तब पार्टी के भीतर और बाहर भी बहुत सारे लोग अखिलेश के इस तरह के फैसलों को उचित भी माना करते थे, लेकिन शायद उन्हें इसके दूरगामी परिणामों का अंदाजा नहीं था। अब इस चुनाव परिणाम के बाद यह राय बहुत मजबूती के साथ उभरकर सामने आई है कि जिस तरह लालू यादव के न होने का खामियाजा आरजेडी को बिहार में नुकसानदेह साबित हुआ, उसी तरह उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह को किनारे करना भी हानिकारक साबित हुआ। इसके अलावा एक बड़ा फैक्टर शिवपाल यादव का सपा से बाहर जाना और अपनी पार्टी बनाकर प्रत्याशी उतार देना भी नुकसान के कारणों में एक माना जा रहा है। इसके पीछे कारण भले ही कुछ भी रहे हों, लेकिन यह आम राय है कि अगर शिवपाल यादव अलग न होते तो भी कुछ कम नुकसान होता।

सीएम रहते अखिलेश की राजनीति पर होती रही चर्चाएं

सीएम रहते अखिलेश की राजनीति पर होती रही चर्चाएं

इसमें कोई दो राय नहीं कि 2012 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में सपा को मिली बड़ी जीत में अखिलेश यादव की भूमिका को चिन्हित किया गया था जिन्होंने उस बसपा को पराजित किया था जो 2007 के चुनावों में न केवल अकेले दम पर बहुमत के साथ सत्ता में आई थी बल्कि मायावती ने उन चुनावों में बहुत बड़ी सोशल इंजीनियरिंग की थी और ब्राह्मणों के रूप में एक नया मतदाता वोट बैंक को भी अपने साथ जोड़ा था। तब एक तरह से निर्विवाद रूप से अखिलेश यादव सपा के नेता बने थे। उस समय के उनके बहुत सारे कड़े फैसले भी जिनमें उन्होंने अपराधी चरित्र के और भ्रष्टाचार आदि के आरोपी नेताओं को पार्टी में शामिल होने तक से मना कर दिया था औऱ जिसकी राजनीतिक हलकों में काफी प्रशंसा भी मिली थी। तब यह भी कहा जाने लगा था कि अखिलेश यादव साफ-सुथरी राजनीति के पैरोकार हैं।

मुलायम सिंह के करीबियों को अलग करने से गया गलत संदेश

मुलायम सिंह के करीबियों को अलग करने से गया गलत संदेश

यह क्रम जैसे-जैसे आगे बढ़ता गया उनकी ओर से कुछ अनपेक्षित फैसले भी किए जाने लगे। हालांकि उनमें कई ऐसे भी थे जिन पर उनकी टीम की एक तरह से सहमति बताई जाती थी। इसमें एक मुलायम सिंह यादव को धीरे-धीरे किनारे करना और बाद में पार्टी की बागडोर अपने हाथ में ले लेना भी था। इतना ही नहीं, मुलायम सिंह के करीबी माने जाने वालों को अलग-थलग कर दिया गया जिनमें अमर सिंह से लेकर शिवपाल सिंह यादव तक का नाम लिया जा सकता है। इस सबके काफी गलत संदेश भी गए। भाजपा ने इसका फायदा भी उठाया। इसके अलावा सपा की ओर से यह भी किया गया कि पिछड़ों पर से ध्यान एकदम से हटा लिया गया।

पिछड़ों ने अपना नया आसरा खोजना शुरू कर दिया

पिछड़ों ने अपना नया आसरा खोजना शुरू कर दिया

माना जाता है कि सपा से मुलायम सिंह को किनारे कर दिए जाने का यह असर भी हुआ कि पिछड़ों ने अपना नया आसरा खोजना शुरू कर दिया जिसकी भरपाई भाजपा ने की और वे उनके साथ चले गए। यह सपा के लिए एक बड़ा नुकसान साबित हुआ। दरअसल सपा और अखिलेश यादव का पूरा ध्यान यादवों पर टिका रहा और कहा जा रहा है कि इस बार पूरा यादव वोट भी सपा को नहीं मिला बल्कि काफी कुछ राष्ट्रवाद के नाम पर भाजपा के साथ चला गया। वरना कोई कारण नहीं कि यादव परिवार के भी सदस्यों को भी लोकसभा चुनाव में हार का सामना करना पड़ता जिनमें खुद अखिलेश यादव की पत्नी डिंपल यादव भी रहीं जिन्हें सपा के बाहर भी एक गंभीर नेता के रूप में जाना जाता है। हालांकि इस हार में अल्पसंख्यकों का भी एकमुश्त वोट सपा को न मिलना और शिवपाल यादव के प्रत्याशियों का भी होना एक कारण रहा है। लेकिन कहीं न कहीं सपा की राजनीतिक निष्क्रियता भी रही जिसकी वजह से उसके अपने वोट भी गोलबंद नहीं रह सके।

मुलायम का अभी भी काफी ज्यादा सम्मान

मुलायम का अभी भी काफी ज्यादा सम्मान

इस सबके मद्देनजर अगर सपा के भीतर नए सिरे से मुलायम सिंह के महत्व को स्वीकार करने पर विमर्श किया जा रहा है और अगर ऐसा होता है तो यह उम्मीद की जा सकती है कि तमाम किंतु-परंतु के बावजूद सपा को कुछ लाभ हो सकता है। ऐसा इसलिए कि मुलायम सिंह न केवल अभी भी बड़े नेता माने जाते हैं बल्कि उनका काफी सम्मान भी है। उनके इर्दगिर्द वे लोग फिर से आ सकते हैं जो किन्ही भी कारणों से अलग हो चुके हैं। इसके अतिरिक्त पिछड़ों और अल्पसंख्यकों को भी नए सिरे से पार्टी के इर्दगिर्द इकट्ठा किया जा सकता है। लेकिन इस सबके लिए यह जरूरी होगा कि खुद अखिलेश यादव भी अपने रुख में कुछ लचीलापन लाएंगे और पार्टी को नए सिरे से मजबूत व सक्रिय कर आगामी विधानसभा में खोई हुई ताकत प्राप्त करने के प्रति गंभीर होंगे।

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English summary
akhilesh yadav and his political compulsions towards mulayam singh yadav
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