'मैं जिस गर्भ से पैदा हुई उसी से मेरा बच्चा भी पैदा होगा'
अहमदाबाद में दो महिलाओं के गर्भाशय उनकी बेटियों को प्रत्यारोपित किए गए हैं. डॉक्टरों का कहना है कि यूटेरस ट्रांसप्लांट एक नए जीवन का वाहक बनता है.
- गुजरात के अहमदाबाद में दो महिलाओं ने अपनी बेटियों को यूटेरस या गर्भाशय दिए.
- दोनों महिलाओं के गर्भाशय में दिक़्क़तें थीं.
- 27 सिंतबर को मांओं का गर्भाशय निकालकर उनकी बेटियों को प्रत्यारोपित किया गया.
- दुनिया का सबसे पहला यूटेरस ट्रांसप्लांट स्वीडन में हुआ था.
अहमदाबाद के 'इंस्टीट्यूट ऑफ़ किडनी डिज़ीज़ एंड रिसर्च सेंटर' में एक ही दिन दो यूटेरस ट्रांसप्लांट किए गए. इस सर्जरी को करने में 12-14 घंटे लगते हैं.
जूनागढ़ की रीना वाघासिया ने अपने यूटरेस ट्रांसप्लांट के बाद बीबीसी से कहा, "मेरी मां ने मुझे यूटेरस दिया है. जिस गर्भ से मैं पैदा हुई थी, उसी से मेरा बच्चा भी पैदा होगा."
उन्होंने बताया , "जन्म के बाद ही मेरा गर्भाशय दो हिस्सों में बंट गया था. शादी के बाद मुझे इसका पता चला. मुझे बच्चा नहीं हो रहा था. जब मैंने इलाज कराना शुरू किया तो पता चला कि मैं ज़िंदगी भर मां नहीं बन सकती."
रीना के पति भी इस ट्रांसप्लांट के बाद बेहद ख़ुश हैं.
वे कहते हैं, "हमें पता चला कि यूटेरस का ट्रांसप्लांट पुणे में होता है लेकिन इसका ख़र्च लाखों में था. मेरे पिता किसान हैं और मैं छोटा मोटा काम करता हूं. लेकिन अहमदाबाद के इस सरकारी अस्पताल में हमें ये सुविधा मिल गई और मेरी सास ने मेरी बीवी को अपनी कोख दे दी."
बड़ी कामयाबी
'इंस्टीच्यूट ऑफ़ किडनी डिज़ीज़ एंड रिसर्च सेंटर' के डॉक्टर विनीत मिश्रा ने बताया, "हमने पहली बार दो महिलाओं का सफलतापूर्वक यूटेरस ट्रांसप्लांट किया है. पहले हमें अनुमति नहीं थी लेकिन अब जिन भी महिलाओं को ऐसी समस्याएं हैं उनकी मदद हो सकेगी."
डॉक्टर शैलेश पुणतांबेकर कैंसर विशेषज्ञ हैं और भारत में हुए पहले यूटेरस ट्रांसप्लांट के लिए जाने जाते हैं.
वे बताते हैं कि स्वीडन और अमेरिका के बाद भारत तीसरा देश है जहां यूटेरस ट्रांसप्लांट किया गया और भारत ही पहला देश है जहां लैप्रोस्कोपी के ज़रिए ऐसा ट्रांसप्लांट किया गया था, यानी ये ट्रांसप्लांट डोनर के पेट में बड़ा चीरा लगाए बिना ही किया गया.
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कैसे किया जाता है ट्रांसप्लांट?
डॉक्टरों का कहना है कि गर्भाशय का ट्रांसप्लांट उन्हीं लड़कियों या महिलाओं में किया जाता है जिनके शरीर में पैदा होने के बाद से यूटेरस न हो या जिनके यूटेरस में स्वास्थ्य संबंधी दिक़्क़तें हों.
या फिर किन्हीं कारणों से उसे निकाला गया हो लेकिन इनमें ओवरी या अंडाशय सामान्य होते हैं.
डॉ. शैलेश पुणतांबेकर ने बीबीसी को बताया कि यूटेरस ट्रांसप्लांट केवल मां और बेटी में ही हो सकता है क्योंकि उनके जीन्स में समानता होती है. इसमें मां डोनर होती है और बेटी रेसिपीएंट होती है.
डोनर मां कौन हो सकती हैं?
- मां की उम्र 49-50.
- उन्हें पीरियड्स होते हों.
- अगर पीरियड्स न हो रहे हों तो दवा देकर शुरू कराए जाते हैं.
रेसिपिएंट लड़कियां कौन हो सकती हैं?
- लड़की शादीशुदा होनी चाहिए
- लड़की 18-35 साल के बीच होनी चाहिए
- क्रोमोसोम या गुणसूत्र 46 XX होने चाहिए यानी वो जेनिटिकली या आनुवांशिक तौर पर महिला होनी चाहिए
क्या है प्रक्रिया?
डॉ. शैलेश पुणतांबेकर कहते हैं कि ट्रांसप्लांट के लिए इन सभी मानदंडों का पूरा होना जरूरी है. आगे की प्रक्रिया समझाते हुए वो कहते हैं, "मां के पेट के सबसे निचले भाग में लैप्रोस्कोप के ज़रिए दो इंच का कट किया जाता है और रिट्रैक्शन के ज़रिए यूटेरस को निकाला जाता है. साथ ही ब्लड वैसल या रक्तवाहिनियों (सप्लाई और बाहर जाने वाली दोनों) को भी निकाला जाता है."
डॉ पुणतांबेकर आगे कहते हैं, "ये वैसे ही होता है जैसे किडनी या हार्ट ट्रांसप्लांट में होता है. इसके बाद उसकी सफ़ाई की जाती है. फिर बेटी के पेट में चीरा लगाकर यूटेरस डाल दिया जाता है और रक्तवाहिनियों को वजाइना से जोड़ दिया जाता है."
डॉ. पुणतांबेकर के अनुसार ट्रांसप्लांट होने के बाद 30 से 35 दिनों में उस रेसिपिएंट को पीरियड शुरू हो जाता है जिसे कभी इसका अनुभव नहीं था.
हालांकि पीरियड के लक्षण सामान्य ही रहते हैं. लेकिन जिन महिला में ट्रांसप्लांट होता है उन्हें पीरियड्स के दौरान दर्द नहीं होता और साथ ही वे 'कंसिव' कर सकती हैं यानी मां बन सकती हैं.
डॉ शैलेश कहते हैं, "हार्ट और किडनी जैसे ट्रांसप्लांट में हम जहां लोगों को नई ज़िंदगी देते हैं वहीं यूटेरस ट्रांसप्लांट से हम एक नई ज़िंदगी को जीवन में लाते हैं."
हालांकि डॉक्टर कहते हैं कि गर्भधारण से पहले भ्रूण तैयार किया जाता है जो महिला के अंडाणु और पुरुष के शुक्राणु से तैयार किया जाता है और फिर यूटरेस में स्थापित कर दिया जाता है.
एक ही जीन
लेकिन मां के शरीर से निकला यूटेरस ही बेटी के शरीर में क्यों डाला जाता हैं?
इस सवाल के जवाब में डॉ. मानसी चौधरी बताती हैं कि मां और बेटी में जीन एक जैसे ही आते हैं. ऐसे में सेल या कोशिकाएं एक सी ही होती हैं.
उनके अनुसार शरीर उसे फ़ॉरेन पार्टिकल या बाहरी तत्व नहीं मानता. ऐसे में मां का यूटेरस जो बेटी के शरीर में डाला जाता है वो उसे आनुवांशिक तौर पर रिजेक्ट नहीं करता है.
विज्ञान ने बहुत तरक़्क़ी कर ली है. जहां आधुनिक मशीनों के ज़रिए गर्भवती महिला की स्क्रीनिंग या जांच की जा सकती है और गर्भ में किसी प्रकार की आनुवांशिक एब्नार्मेलिटी (genetic abnormality) के बारे में पता चल जाता है.
लेकिन ऐसे में सवाल उठता है कि ऐसी जांचों के दौरान ही क्या एक बच्ची में गर्भाशय न होने का पता नहीं चल सकता है?
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इस पर डॉक्टरों का कहना है कि किसी बच्ची में यूटेरस है या नहीं इसका पता इसलिए नहीं चल पाता क्योंकि ये लिंग जांच में शामिल माना जाता है और यह जांच नहीं की जाती हैं क्योंकि ये क़ानून के विरूद्ध है.
भारत में बेटों की चाह में भ्रूण के लिंग पता लगाकर, गर्भपात कराने के चलन को रोकने के लिए 1994 में पीसीपीएनडीटी क़ानून लाया गया था. इसमें 2003 में संशोधन भी किया गया.
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डॉ शैलेश पुणतांबेकर कहते हैं, "हर साल प्रति 5000 बच्चों में से एक बच्ची यूटेरस के बिना पैदा होती है. किसी लड़की या महिला में यूटेरस का न होना जेनेटिक एब्नार्मेलिटी या आनुवांशिक असामान्यता मानी जाती है.
वो आगे कहते हैं, "लेकिन कई बार सिस्ट होने या यूटेरस के ख़राब होने के कारण भी उसे निकाल दिया जाता है. इसमें ऐसे मामले भी आते हैं जहां कैंसर की वजह से यूटेरस निकाला गया था."
डॉ शैलेश पुणतांबेकर के मुताबिक यूटेरस ट्रांसप्लांट केवल गर्भधारण के लिए किया जाता है. वो ऐसा ट्रासप्लांट कराने वाली महिलाओं को पांच साल बाद यूटरेस निकालने की सलाह देते हैं.
इसका कारण बताते हुए वे कहते हैं, "जिन महिलाओं में यूटरेस ट्रांसप्लांट होता है उन्हें इम्यून-सप्रेसेंट दी जाती है. ये दवा इसलिए दी जाती है ताकि रेसिपिएंट का शरीर यूटरेस रिजेक्ट न करे."
उनके अनुसार, "किडनी या हार्ट ट्रांसप्लांट के दौरान इम्यून-सप्रेसेंट दवाएं अहम होती हैं क्योंकि ज़िंदगी उसी पर निर्भर करती है लेकिन जब बच्चा पैदा हो जाता है तो यूटरेस ट्रांसप्लांट की कोई ज़रूरत नहीं रहती. दवा न लेने पर यूटरेस पर प्रभाव भी पड़ने लग जाता है."
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