BSP से 'जबरन तलाक' मिलने के बाद चौराहे पर खड़े अखिलेश के सामने बचे हैं ये 3 रास्ते
महागठबंधन से मायावती के अलग होने के बाद अब अखिलेश यादव के सामने तीन रास्ते बचे हैं।
नई दिल्ली। 2019 के लोकसभा चुनाव का ऐलान होने से ठीक पहले इसी साल 12 जनवरी को लखनऊ में प्रेस कॉन्फ्रेंस कर घोषित किए गए सपा-बसपा महागठबंधन का आखिर अंत हो गया। पूरे 6 महीने भी नहीं टिक पाए इस महागठबंधन में उम्मीद के मुताबिक सीटें ना मिलने के बाद मायावती ने सपा के ऊपर हार का दोष मंढते हुए मंगलवार को अलग होने का ऐलान कर दिया। मायावती का कहना है कि जब अपने मबजूत गढ़ों यानी कन्नौज, बदायूं और फिरोजाबाद में ही समाजवादी पार्टी को यादव वोट नहीं मिले तो फिर हमारे प्रत्याशियों को बाकी सीटों पर क्या मिले होंगे। मायावती ने कह दिया है कि अखिलेश यादव पहले यूपी में अपनी पार्टी का प्रदर्शन सुधारें, इसके बाद ही आगे साथ चलने को लेकर कोई फैसला हो पाएगा। महागठबंधन से बसपा के अलग होने के बाद अब अखिलेश यादव के सामने तीन विकल्प हैं।
अखिलेश के लिए सहानुभूति, फायदा उठाएं
लोकसभा चुनाव के लिए सपा और बसपा का गठबंधन बनने के बाद दोनों पार्टियों के युवा कार्यकर्ताओं में एक जोश देखने को मिला था। इसकी झलक उस वक्त मिली, जब महागठबंधन की रैलियों में जमकर भीड़ उमड़ी। गठबंधन से मायावती के बाहर निकलने के फैसले से बसपा और सपा दोनों पार्टियों के कार्यकर्ताओं को एक झटका लगा है। हो सकता है कि मायावती ने अपनी आगे की किसी रणनीति को सोचते हुए यह फैसला लिया हो लेकिन बीएसपी से जुड़े कुछ युवा कार्यकर्ताओं ने 'वन इंडिया' से बातचीत में बताया कि बसपा सुप्रीमो के इस फैसले से वो निराश और हताश हैं। महागठबंधन टूटने के बाद अखिलेश यादव के पक्ष में एक सहानुभूति पैदा हुई है। अखिलेश यादव को अब इस सहानुभूति को ध्यान में रखते हुए ही आगे की रणनीति बनानी चाहिए। एक युवा नेता के तौर पर उनकी जो पहचान है, उसके जरिए जमीन पर उतरकर और युवाओं के मुद्दों को उठाकर उन्हें अपनी तरफ मोड़ सकते हैं।
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बसपा, कांग्रेस और भाजपा से बनाएं समान दूरी
महागठबंधन से बीएसपी के अलग होने के बाद अखिलेश यादव ने अपनी पहली प्रतिक्रिया के तौर पर कहा कि वो भी यूपी के उपचुनाव में अकेले ही उतरेंगे। यानी स्थिति स्पष्ट है कि सपा और बसपा की राहें अब पूरी तरह अलग हो चुकी हैं। ऐसे में अब अखिलेश यादव ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक के नक्शेकदम पर चलते हुए यूपी में बसपा, कांग्रेस और भाजपा से समान दूरी बना सकते हैं। इसका फायदा यह होगा कि यूपी में वो भाजपा के सामने विपक्ष के बड़े चेहरे के तौर पर उभर सकते हैं। 2019 के लोकसभा चुनाव में यूपी में कांग्रेस का प्रदर्शन बेहद खराब रहा है और अगले कुछ सालों में भी उसके प्रदर्शन में कोई सुधार होगा, कहा नहीं जा सकता। 2022 के विधानसभा चुनाव में फिलहाल तीन साल का लंबा समय है और अखिलेश यादव के पास खुद को यूपी में विपक्ष के नेता के तौर पर एक बड़ा चेहरा बनने के लिए काफी मौके हैं।
खुलकर अपने बेस वोटर के पक्ष में उतरें अखिलेश
समाजवादी पार्टी की मजबूती उसके बेस वोटर- यादव, मुस्लिम और पिछड़ा वर्ग हैं। अगर पिछले कुछ चुनावों पर नजर डालें तो यूपी में मुस्लिम वोटरों का बंटवारा सपा, बसपा और कांग्रेस के बीच होता रहा है। 2019 के लोकसभा चुनाव में हालांकि मुस्लिम वोट सपा-बसपा महागठबंधन के पक्ष में ही गया लेकिन दोनों के अलग होने के बाद इस वोट बैंक में फिर से बिखराव हो सकता है। वहीं, अपने मजबूत गढों यानी यादव बाहुल्य क्षेत्रों में समाजवादी पार्टी का हारना भी उसके लिए शुभ संकेत नहीं हैं। ऐसे में अखिलेश यादव को अपने बेस वोटर पर पकड़ मजबूत करने के लिए इनके बीच जाना होगा। जमीनी कार्यकर्ताओं की पहचान कर अखिलेश उनसे सीधे संपर्क बनाए रखने की रणनीति पर भी काम कर सकते हैं। हाल ही में अखिलेश यादव ने कहा था कि लोकसभा चुनावों के बाद से ही भाजपा राज में समाजवादी कार्यकर्ताओं की हत्याओं की कई घटनाएं सामने आई हैं। मुलायम सिंह यादव की रणनीति पर चलते हुए अखिलेश को अब कार्यकर्ताओं की लड़ाई लड़नी होगी।
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