बिहार में जातीय जनगणना पर गरमाई सियासत, क्या अब JDU और RJD एक साथ उठाएगी आवाज़ ?
बिहार में जातीय जनगणना को लेकर सियासी पारा चढ़ चुका है, एक बार फिर राष्ट्रीय जनता दल और जनता दल यूनाइटेड जातीय जनगणना के मुद्दे पर सहमत नज़र आ रही है।
पटना, 10 मई 2022। बिहार में जातीय जनगणना को लेकर सियासी पारा चढ़ चुका है, एक बार फिर राष्ट्रीय जनता दल और जनता दल यूनाइटेड जातीय जनगणना के मुद्दे पर सहमत नज़र आ रही है। इसी कड़ी में नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव ने जातीय जनगणना को लेकर पटना से दिल्ली तक पैदल यात्रा की बात कही है। मीडिया से मुखातिब होते हुए उन्होंने कहा कि जातीय जनगणना को लेकर अब कोई चारा नज़र नहीं आ रहा है। बस एक ही चारा है कि बिहार से दिल्ली तक जाती जनगणना को लेकर करनी पड़ेगी।
बिहार में जातीय जनगणना पर गरमाई सियासत
तेजस्वी यादव के बयान के बाद जदयू के मुख्य प्रवक्ता नीरज कुमार ने कहा कि सभी लोगों को आंदोलन, पद यात्रा औऱ गाड़ी से चलने का अधिकार है। जिसकी जो मर्ज़ी हो वह कर सकता है लेकिन जनता दल यूनाइटेड का जातीय जनगणना को लेकर रुख साफ़ है। उन्होंने कहा कि हम इस मुद्दे पर गंभीर हैं, हम श्रेय लेने के नही गणना होने के पक्ष में हैं। अब सभी लोगों के ज़ेहन में यह सवाल ज़रूर उठ रहा होगा कि आखिर जातीय जनगणना को लेकर अचानक सियासी पारा क्यों चढ़ गया है, इसके नफा और नकसान क्या हैं ? आइए जानते हैं कि आखिर जातीय जनगणना क्या है, क्यों इस पर बवाल मचा हुआ है ?
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जातीय जनगणना के समर्थन में RJD-JDU
जातीय जनगणना का मुद्दा नेताओं द्वारा समय-समय पर उठाया जाता रहा है। कई नेता जातीय जनगणना के पक्ष मंक होते हैं वहीं कुछ नेता इसके पक्ष में नहीं रहते हैं। ग़ौरतलब है कि ज्यादातर यही देखा गया है कि जातीय जनगणना के मुद्दे को विपक्ष ही उठाता रहा है। इस बार बिहार में राजद और जदयू दोनो ही जातीय जनगणना के पक्ष में नज़र रही है। ग़ौर करने वाली बात है कि जदयू एनडीए गठबंधन की साथी है और भाजपा ने साफ़ तौर पर यह कह दिया है कि बिहार में जातीय जनगणना नहीं होगी। इसके बावजूद जदयू जातीय जनगणना के समर्थन में है।
2011 में जारी नहीं हुए थे आंकड़े
जातीय जनगणना पर सियासत की क्या वजह है, अगर इस मुद्दे पर ज़िक्र किया जाए तो इसके पीछे बड़ा सियासी खेल है। 2010 में केंद्र में कांग्रेस की सरकार के वक़्त भाजपा नेता गोपीनाथ मुंडे ने संसद में जातिगत जनगणना की मांग की थी। लेकिन अब जब केंद्र में भाजपा की सरकार है तो केंद्र सरकार जातीय जनगणना नहीं लागू करना चाह रही है। ग़ौरतलब है कि 2011 में केंद्र की कांग्रेस सरकार ने भी जातीय जनगणना करवाई थी लेकिन आंकड़े जारी नहीं किए गए थे। देश की बड़ी राष्ट्रीय पार्टियों में कांग्रेस और भाजपा है लेकिन दोनों ही जातीय जनगणना नहीं कराने के समर्थन में है।
भाजपा और कांग्रेस दोनों को हो सकता है नुकसान
भाजपा और कांग्रेस का जातीय जनगणना को लेकर रुख एक ही है, इसके पीछे की सियासी वजहों को देखा जाए तो भाजपा की हिंदुत्व की सियासत करती है। जातीय जनगणना की वजह से क्षेत्रीय राजनीति में वोटों का बंटवारा हो सकता है जिसका सीधा फ़ायदा क्षेत्रीय दलों को होगा और भाजपा को वोट बैंक का ध्रुवीकरण हो जाएगा। ठीक इसके उलट कांग्रेस भी राष्ट्रीय पार्टी है और वह भाजपा की खामियों पर सियासत कर रही है। अब सियासी समीकरण बदल चुके हैं कई क्षेत्रीय पार्टियां खास जाती की ही सियासत कर रही हैं। ऐसे में जातीय जनगणना होने से राष्ट्रीय पार्टियों के वोट बैंक का ध्रुवीकरण होना मुमकिन है। क्योंकी जातीय जनगणना से क्षेत्रीय पार्टियों की सियासत को पंख लग सकता है।
1931 में हुई थी आखिरी बार जातीय जनगणना
एक लफ़्ज़ में कहा जाए तो जाति के आधार पर हुई गणना को जातीय जनगणना की संज्ञा दी जाती है। इस जनगणना की मदद से सही आबादी की जानकारी मिल जाती है। अंग्रेज़ों के हुकुमत के दौरान भारत में आखिरी बार 1931 में जातीय जनगणना हुई थी। भारत आजाद होने के बाद आज तक जातीय जनगणना नहीं हुई। 1942 में एक बार जातीय जनगणना हुई भी तो उसके आंकड़े जारी नहीं किए गए। फिर 2011 में यूपीए की कार्यकाल के दौरान जातीय जनगणना लेकिन कुछ कमिया बताते हुए रिपोर्ट जारी नहीं हुए। जातीय जनगणना के नफा की बात की जाए तो इससे देश की पिछड़ी जातियों का सही आंकड़ा मिल पाएगा। इसके साथ ही पिछड़ेपन की शिकार जातियों को आरक्षण का देकर सशक्त भी बनाया जा सकता है। इससे किसी भी जाति की आर्थिक, सामाजिक और शिक्षा की भी सही जानकारी मिल पाएगी। जिससे विकास योजनाएं बनाने में भी आसानी होगी।
सरदार पटेल ने भी खारिज किया था प्रस्ताव
बिहार में एक बार जातीय जनगणना का जिन्न निकल आने के साथ ही सियासत भी शुरू हो चुकी है। जानकारों की मानें तो जातीय जनगणना से अगर फ़ायदे हैं तो उसके नुकसान भी हो सकते है। जातीय जनगणना के बाद अगर किसी समाज को उनके घटने की जानकारी मिलेगी तो वह अपनी तादाद बढ़ाने के लिए परिवार नियोजन छोड़ सकते हैं। जिसकी वजह से देश की आबादी बढ़ेगी। इसके साथ ही समाजिक स्थिरता क़ायम रखने में भी मुश्किल पैदा हो सकती है। इसी वजह तत्कालीन तत्कालीन गृह मंत्री सरदार पटेल ने साल 1951 में इसी तर्क के साथ जातीय जनगणना के प्रस्ताव को खारिज कर दिया था।
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