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बकरी चराने को विवश है नाचा कलाकार

By Ians Hindi
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रायपुर। प्रख्यात रंगकर्मी हबीब तनवीर की मंडली में काम कर चुके और 40 वर्षो से कला की साधना में लीन छत्तीसगढ़ की माटी के 'नाचा कलाकार' चैतराम आज सुविधाओं के मोहताज हैं। वह गांव में बकरी चराकर परिवार का पालन पोषण करने को विवश हैं। चैतराम न केवल राष्ट्रीय फलक पर बल्कि विदेशों में भी अभिनय का जलवा बिखेर चुके हैं।

राजधानी से लगभग 30 किलोमीटर दूर दुर्ग जिले के नारधा के समीप ग्राम रिंगनी में रहने वाले नाचा कलाकार चैतराम यादव को अभिनय की सौगात अपने पिता वरिष्ठ रंगकर्मी व नाचा कलाकार दिवंगत भुलवाराम यादव के संस्कारों से परंपरा के रूप में मिली। मात्र तीन वर्ष की उम्र से पिता को प्रस्तुति करते देखते बड़े हुए चैतराम ने अपनी रुचि के चलते प्राथमिक शिक्षा से पढ़ाई त्याग पूर्णरूप से नाचा से जुड़ गए।

उन्होंने 15 साल की उम्र में नाचा की प्रस्तुति शुरू की और प्रदेश में घूम-घूमकर अपनी मंडली के साथ प्रस्तुति देने लगे।

सन् 1976 में देश के जाने-माने रंगकर्मी हबीब तनवीर ने भिलाई के सेक्टर-6 में एक कार्यशाला आयोजित की, जिसमें पूरे प्रदेश के छोटे-बड़े नाचा पार्टियों के कलाकारों ने हिस्सा लिया। कार्यशाला का उद्देश्य श्रेष्ठ कलाकारों का चयन कर उसे राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलवाना था। हबीब तनवीर चैतराम की अभिनय कुशलता से प्रभावित हुए न रह सके। उन्होंने चैतराम का चयन अपनी 'नया थिएटर' टीम के लिए किया। उनके दो अन्य सहयोगी का भी चयन हुआ।

चैतराम के पिता भुलवाराम पहले ही नया थिएटर से जुड़ चुके थे और राष्ट्रीय स्तर पर प्रस्तुति देने में व्यस्त थे। उधर, चैतराम यादव व प्रतिभाशाली युवाओं की टीम से नया थिएटर भी पूरी तरह से जवां हो चला था। हबीब तनवीर के प्रसिद्ध नाटक 'चरणदास चोर', 'गांव के नाम', 'ससुराल मोर', 'नाम दामाद', 'मिट्टी की गाड़ी' और 'आगरा बाजार' आदि में चैतराम प्रमुख भूमिका अदा करने लगे।

एक समय ऐसा भी आया कि पिता-पुत्र एक ही नाटक में अभिनय करते और खूब तालियां बटोरते। वह दौर भी रंगमंच और कला के लिहाज से बहुत खास था।

तब हबीब साहब के नाटकों के चाहने वाले देश ही नहीं, विदेशों में भी थे। चैतराम नाटकों में अपनी ठेठ छत्तीसगढ़ी बोली में प्रस्तुति देते जिसे दर्शक देख मंत्रमुग्ध हो जाते। उनकी इन मनमोहक प्रस्तुतियों से प्रदेश की छटा विदेशों में बिखेरने लगी। छत्तीसगढ़ी बोली में नाटकों के विदेशों में मंचन से नवनिर्मित राज्य छत्तीसगढ़ को भी पहचान मिलने लगी। नाटकों की सफल प्रस्तुति से चैतराम को मान-सम्मान और प्रतिष्ठा इतनी मिली, जिसकी कल्पना स्वयं उन्होंने भी नहीं की थी।

नया थिएटर से उन्हें खर्च के लिए मासिक वेतन तो मिलता था, पर यह राशि दिल्ली में रहते हुए स्वयं पर खत्म हो जाती थी, मगर चैतराम ने परिवार की जरूरतों को दरकिनार कर भी कला व अभिनय के प्रति अपना समर्पण जारी रखा। समय इसी तरह बीता, बच्चे बड़े हुए और विवाह करने का समय आया तो बाप का फर्ज निभाने चैतराम दो वर्ष पूर्व अपने गांव लौट आए।

कला और अभिनय की साधना से 40 वर्षो में चैतराम ने जो कुछ पूंजी जमा की वह बच्चों के विवाह में खर्च हो गई। चैतराम को उम्मीद थी कि उसने 40 वर्षो तक छत्तीसगढ़ का नाम और यहां की कला व संस्कृति को देश-विदेश में पहुंचाने का काम किया है तो उसके बुरे दिन में सरकार कुछ तो मदद करेगी पर चैतराम को क्या पता था कि प्रदेश के असंवेदनशील अधिकारी उसकी बातों को अनसुना कर देंगे और उसे दो वक्त की रोटी के लिए भी मोहताज होना पड़ेगा।

चैतराम अब संस्कृति विभाग से आर्थिक सहायता लेकर प्रदेश की लुप्त होती संस्कृति को बचाने और नए कलाकारों को मंच देने के लिए एक नई मंडली बनाने का प्रयास कर रहे हैं, पर संस्कृति विभाग के दफ्तर में कई बार जाने के बावजूद उन्हें कोई मदद नहीं मिली। मदद के लिए संस्कृति मंत्री के दरवाजे पहुंचे, लेकिन वहां भी उन्हें निराशा ही मिली। हालत यह है कि विदेशों में अभिनय का जलवा बिखेर चुका छत्तीसगढ़ की माटी का यह कलाकार गांव में बकरी चराकर परिवार का पालन पोषण करने पर मजबूर है।

चैतराम यादव के पिता भुलवाराम के वर्ष 2005 में निधन होने पर संस्कृति मंत्री बृजमोहन अग्रवाल अंत्येष्टि में शामिल हुए थे। उन्होंने ग्रामवासियों के बीच घोषणा की थी कि गांव में मुक्ताकाशी मंच का निर्माण भुलवाराम यादव की स्मृति में किया जाएगा, ताकि वे कलाकारों के दिलों में सदैव जिंदा रहें। आज आठ साल बीत जाने के बाद भी मंच का निर्माण नहीं हो सका है। मंच का निर्माण न होने की वजह से जनप्रतिनिधि व अधिकारियों के प्रति ग्रामवासियों में भारी आक्रोश है।

इंडो-एशियन न्यूज सर्विस।

English summary
Naacha artists of Chhattisgarh are now facing problems and struggling for their livelihoods.
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