जब दक्षिण की फिल्में हिट हो रही हैं तो बॉक्स ऑफिस पर क्यों फ्लॉप हो रहा है बॉलीवुड?
एक सौ पचास करोड़ की लागत से बनी रणवीर कपूर और संजय दत्त अभिनीत शमशेरा के फ्लॉप हो जाने के बाद बॉलीवुड परेशान है। शमशेरा से पहले एक विलेन रिटर्न्स, शाबाश मिट्ठू, ओम, खुदा हाफिज-2 जैसी करोड़ों की बजट की फिल्में भी बॉलीवुड को बड़ा झटका दे चुकी हैं। यह चकित करने वाली बात है कि खान, कपूर, कुमार और दत्त सरनेम की मौजूदगी के बावजूद हिन्दी भाषी फिल्में लगतार बॉक्स ऑफिस पर औंधे मुंह गिर रही हैं। जबकि एक दौर में यही सरनेम वाले हीरो हिन्दी फिल्मों की सफलता की सबसे बड़ी गारंटी माने जाते थे।
ऐसे में सवाल ये उठता है कि हिन्दी सिनेमा को अपने जीवन और मनोरंजन का अभिन्न हिस्सा मानने वाला हिन्दी भाषी समाज की बॉक्स ऑफिस से दूरी क्यों बढ़ रही है? ऐसा क्या हो गया है कि नामी गिरामी सितारों की मौजूदगी के बावजूद हिन्दी फिल्में बॉक्स ऑफिस पर पानी नहीं मांग रही हैं, जबकि ठीक इसी दौर में दक्षिण भारतीय भाषायी फिल्में रिकार्डतोड़ कमाई कर रही हैं?
बॉलीवुड की बॉक्स ऑफिस परेशानी बीते दो-तीन सालों में कुछ ज्यादा ही बढ़ी है। 6,600 करोड़ के सालाना टर्नओवर वाली हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री में सुपर स्टॉर माने जाने वाले अभिनेताओं की फिल्मों का लगातार पिट जाना सामान्य घटना नहीं है। कोरोना दौर के पहले तक किसी खास मौके पर अपनी फिल्में रिलीज करके खान, कपूर एवं कुमार सरनेम वाले अभिनेता तीन सौ से पांच सौ करोड़ तक की कमाई आसानी से कर लेते थे, लेकिन अब इन अभिनेताओं की फिल्मों का निर्माण लागत निकालना मुश्किल होता जा रहा है। छोटे सितारों और छोटी बजट वाली फिल्मों के ठीक व्यापार के बीच खान, कपूर के अलावा धर्मा प्रोडक्शन एवं यशराज फिल्म्स की फिल्मों का लगातार फ्लॉप होने के क्या मायने हो सकते हैं?
यह एक पेंचिदा सवाल है, लेकिन 14 जून 2020 को सुशांत सिंह राजपूत की दुर्भाग्यपूर्ण मौत और उसके बाद नेपोटिज्म को लेकर उठे बवंडर के बाद बॉलीवुड के भीतर की सड़ांध आम दर्शक के घर तक पहुंच चुकी है। सुशांत की मौत के बाद सोशल मीडिया पर बॉलीवुड को लेकर वायरल हुए कुछ किस्से, कुछ फसाने, कुछ सच और कुछ अफवाह ने हिन्दी भाषी समाज के नजरिये में व्यापक बदलाव लाने का काम किया है। पुराने दौर में हिन्दी भाषी राज्यों का दर्शक हिन्दी सिनेमा को केवल मनोरंजन का साधन मानकर देखता था, लेकिन अब वह इसे क्षेत्रीय एवं धार्मिक अस्मिता का सवाल बना बैठा है।
अब उसे धर्म और क्षेत्रीय भेदभाव की कीमत पर मनोरंजन की दरकार नहीं है। अब उसे खुद के धर्म और परंपराओं के सम्मान वाले मनोरंजन की जरूरत है, जिसे दक्षिण की भाषायी फिल्मों की सफलता ने साबित भी किया है। सनातन परंपरा की समृद्धि को प्रदर्शित करने वाली कन्नड़, तमिल, तेलगू, मलयाली फिल्में सैकड़ों करोड़ की कमाई कर रही हैं।
वामपंथी विचारधारा की मजबूत नींव पर टिके हिन्दी सिनेमा को अब केवल मनोरंजन का सामान्य साधन मानकर नहीं देखा जा रहा है। अब फिल्म दीवार के विजय के नास्तिक होने तथा फिल्म शोले के रहीम चाचा के पांचों वक्त का नमाजी होने का मतलब तलाशा जाने लगा है। हिन्दी भाषी दर्शक केवल सिनेमा नहीं देख रहा है बल्कि इसके पीछे के व्यापक अर्थशास्त्र को भी समझने की कोशिश कर रहा है कि उसके पैसे का उपयोग कहां हो रहा है। वह हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री पर कुछ परिवारों-घरानों की मोनोपोली दायरा और हद तलाश रहा है।
अब फिल्मों को हिंदू-मुसलमान, राष्ट्रवाद-देशद्रोह जैसे खांचे में फिट करके देखे जाने की शुरुआत हो चुकी है। दूसरा कोई कारण नहीं है कि बाक्स ऑफिस पर छोटे बजट वाली फिल्में हिट हो रही हैं, और बड़ी फिल्में धराशायी हो रही हैं। हिन्दी भाषी दर्शक अब यह समझने लगा है कि हिन्दी सिनेमा पर पंजाबी एवं उर्दू भाषियों का बोलबाला है। हिन्दी से पैसा कमाकर हिन्दी भाषियों को दोयम समझने वाली मानसिकता की स्वीकार्यर्ता अब सीमित होने लगी है। अब उसे अंग्रेजी बोलने वाले इलीट हीरो नहीं अपने बीच का देसी नौजवान जंच रहे हैं। दर्शकों की सोच में आये इस बदलाव को बॉलीवुड जितना जल्दी समझ लेगा, उसके लिये यह उतना ही श्रेयस्कर होगा।
बॉलीवुड के दो सबसे बड़े बड़े प्रोडक्शन हाउस धर्मा प्रोडक्शन एवं यशराज फिल्म्स के बैनर तले 2020 के बाद बनी फिल्में जुग जुग जीयो, जयेशभाई जोरदार, पृथ्वीराज, बंटी और बबली -2, शेरशाह, सूर्यवंशी और गहराइयां बॉक्स ऑफिस पर बेरंग साबित हुई हैं। बड़े बजट वाली इन फिल्मों का कमाई ना करना इत्तेफाक हो सकता है, लेकिन इस तथ्य को भी याद रखना जरूरी है कि हिन्दी भाषी सुशांत की मौत के बाद पंजाबी स्वामित्व वाले दोनों प्रोडक्शन हाउस नकारात्मक विवादों के केंद्र में थे।
हिन्दी सिनेमा की सिमटती आमदनी के दौर में दक्षिण भारतीय भाषायी फिल्मों का हिन्दी में डब वर्जन की बढ़ती कमाई और दायरा यह संकेत देता है कि सनातन धर्म का अपमान करने वाली फिल्मों को मनोरंजन मानकर देखने का नजरिया अब बदल चुका है। द कश्मीर फाइल्स के प्रमोशन से इनकार करने वाले लोकप्रिय टीवी प्रोग्राम द कपिल शर्मा शो की टीआरपी अचानक गिर जाती है तो यह समझना अब मुश्किल नहीं है कि हिन्दी भाषी राज्यों का दर्शक मुंबइया मनोरंजन को लेकर क्या सोच रहा है?
समूचे बॉलीवुड नेक्सस के विरोध और घेरेबंदी के बावजूद दस करोड़ की लागत से बनी द कश्मीर फाइल्स 250 करोड़ कमा लेती है तो यह मानना पड़ेगा कि बहुत कुछ बदल रहा है। यूपी में सीएम योगी आदित्यनाथ का फिल्म सिटी प्रोजेक्ट अगर धरातल पर उतरा तो मुंबई की पंजाबी-उर्दू बहुलता वाली हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री के सामने कई और चुनौतियां खड़ी होंगी।
इस तथ्य से अब शायद ही हिन्दी सिनेमा का कोई दर्शक अंजान हो कि आतंकी सरगना दाऊद इब्राहिम समेत अंडरवर्ल्ड के कई नामचीन माफियाओं का काला धन बॉलीवुड में लगा हुआ है। तस्कर करीम लाला के बॉलीवुड के संपर्क में आने से शुरू हुआ यह सिलसिला, हाजी मस्तान से होते हुए दाउद इब्राहिम तक पहुंचा, और केवल पैसे लगाने तक सीमित नहीं रहा।
दाउद का हस्तक्षेप फिल्म की स्क्रिप्ट से लेकर कलाकारों के चयन तक में रहा है। दर्शक यह भी मानने लगा कि इसी दौर में मनोरंजन के नाम पर फिल्मों में भारतीय संस्कृति एवं सनातन मान्यताओं पर हमले करने की प्रवृत्ति तेजी से बढ़ी। कलात्मकता एवं अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर एक धर्म विशेष का मजाक उड़ाया जाने लगा।
1993 के मुंबई बम विस्फोट के बाद दाउद देश छोड़कर भागने को भले मजबूर हुआ, तब भी उसकी पकड़ बॉलीवुड पर कमजोर नहीं पड़ी। दाउद ने बॉलीवुड में अपना नेटवर्क संगठित ही नहीं किया बल्कि फिल्म वितरण पर एकाधिकार स्थापित किया। बॉलीवुड पर ड्रग्स के अलावा माफिया कनेक्शन के आरोप तो लंबे समय से लगते रहे हैं, लेकिन 2016 में जब अनुपम खेर ने खुलासा किया कि राष्ट्रवाद की बात करने पर उन्हें भेदभाव का शिकार होना पड़ रहा है और वे जॉबलेस हो गये हैं, तब यह तथ्य सबसे सामने आया कि बॉलीवुड कलाकार नहीं विचारधारा के आधार पर काम कर रहा है। तो अब इसी विचारधारा की कसौटी पर जनता बड़े बड़े बजट की फिल्में भी नकार रही है और आनेवाले दिनों में विचारधारा की इसी कसौटी पर आमिर खान की लाल सिंह चड्ढा, तापसी पन्नू की दोबारा तथा अमिताभ बच्चन-रणवीर सिंह की ब्रह्मास्त्र और अक्षय कुमार के रक्षाबंधन का इम्तिहान भी होना है।
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