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Sharad Yadav: शिखर से पतन तक एक विरोधाभाषी राजनीतिक यात्रा

हर शख्सियत का असल मूल्यांकन तब शुरू होता है, जब उसके सांस की रफ्तार थम जाती है। यही संसार की परंपरा है। शरद यादव का भी असल मूल्यांकन अब उनके निधन के बाद होगा।

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Ex-Union Minister Sharad Yadavs journey of political career

Sharad Yadav: शरद यादव का निधन हो गया है। आज तड़के उनकी बेटी सुभाषिनी ने एक ट्वीट करके इसकी सार्वजनिक जानकारी दी है। 1 जुलाई 1947 को मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले में पैदा होने वाले शरद यादव की राजनीतिक जिंदगी पर निगाह डालते हैं तो उबड़-खाबड़ राहें नजर आएंगी। नैतिकता और राजनीतिक शुचिता के शिखर दिखेंगे जहां तेज भी होगा और ठसक भी। लेकिन यह उनकी शुरूआती राजनीतिक जिंदगी के हिस्से हैं। जब उनकी राजनीतिक जिंदगी के उत्तरार्ध की ओर देखते हैं तो एक ऐसा शरद यादव नजर आएगा, जो बेबस है, जो सत्ता की चाहत में कहीं भी जाने को तैयार है, जो अपने ही स्थापित किए गए नैतिक मूल्यों से कोई रिश्ता नहीं रखता है।

शरद यादव की राजनीतिक यात्रा 1974 में बड़े धूम-धड़ाके से शुरू हुई थी। उस साल अपने गृह जिले जबलपुर की सीट पर हुए उपचुनाव में वे विपक्ष के साझा उम्मीदवार के रूप में लोकसभा पहुंचे थे। उन्हें टिकट दिया था समाजवादी दिग्गज मधु लिमये ने। मधु जी से उनकी मुलाकात जेल यात्रा में हुई थी। जबलपुर जेल में कुछ देर दोनों साथ रहे थे। तभी मधु लिमये उनसे प्रभावित हुए थे।

यह प्रभाव इतना गहरा रहा कि इंदिरा सरकार के खिलाफ मधु जी ने उन्हें विपक्ष का साझा उम्मीदवार बना दिया। जबलपुर सीट तत्कालीन कांग्रेसी सांसद और हिंदी के प्रतिष्ठित लेखक सेठ गोविंद दास के निधन से खाली हुई थी। 1971 के चुनाव में यहां जनसंघ दूसरे नंबर पर था। कायदे से इस सीट पर जनसंघ का ही दावा बनता था। लेकिन समाजवादी धाकड़ मधु लिमये ने जनसंघ के तत्कालीन महासचिव नानाजी देशमुख से संपर्क किया। नानाजी ने ही साझा उम्मीदवार के तौर पर समाजवादी उम्मीदवार शरद यादव को स्वीकार करने के लिए अपनी पार्टी को मनाया। इस तरह शरद यादव ने जनसंघ के सहयोग से पहली बार संसद पहुंच कर इतिहास रचा था।

शरद यादव में मधु लिमये भविष्य की समाजवादी राजनीति की बड़ी संभावनाएं देखते थे। यही वजह है कि जब शरद यादव जीतकर दिल्ली पहुंचे तो नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर उनके स्वागत के लिए खुद मधु जी समाजवादी युवजन सभा के युवा कार्यकर्ताओं के साथ पहुंचे थे। शरद यादव ने अपनी पहली ही संसदीय यात्रा में नैतिकता के प्रतिमान स्थापित किए। जब इंदिरा गांधी ने आपातकाल लगाने के बाद लोकसभा का कार्यकाल 1976 में बढ़ाया तो उसके विरोध में दो सांसदों ने इस्तीफा दे दिया था। मधु लिमये तो धाकड़ और स्थापित नेता थे, लेकिन शरद यादव ने अपनी संसदीय यात्रा शुरू ही की थी।

लेकिन अपने राजनीतिक गुरू का अनुसरण करते हुए उन्होंने इस्तीफा दे दिया। तब उन्होंने एक चिट्ठी भी लिखी थी। उसमें शरद ने लिखा था कि चूंकि जबलपुर की जनता ने उन्हें लोकसभा के 1976 तक के कार्यकाल के लिए ही चुना है, इसलिए वे नैतिकता के आधार पर इस्तीफा दे रहे हैं। सोचिए, आज के दौर की राजनीति को, क्या आज के दौर में तत्काल चुना गया विधायक या सांसद अपनी सांसदी या विधायकी से नैतिकता के आधार पर इतनी आसानी से इस्तीफा दे देता?

शरद यादव ने नैतिकता का एक प्रतिमान 1995 में भी स्थापित किया। उन दिनों जैन हवाला कांड भारतीय राजनीति को मथ रहा था। जैन डायरियों में उनके नाम भी एक लाख रूपए मिलने का रिकॉर्ड दर्ज था। शरद यादव ने तब भी लोकसभा से इस्तीफा दे दिया था, यह कहते हुए कि इससे बेदाग होकर ही संसद में लौटेंगे। इसका असर पूरी भारतीय राजनीति पर पड़ा। जैन हवाला डायरी में जिन-जिन नेताओं के नाम थे, उनके इस्तीफों को झड़ी लग गई। तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी, दिल्ली के मुख्यमंत्री मदनलाल खुराना, कमलनाथ, माधवराव सिंधिया तमाम नेताओं को अपने पदों से इस्तीफे देने पड़े।

1996 के लोकसभा चुनावों में कमलनाथ और आडवाणी चुनाव नहीं लड़ पाए तो उसकी बड़ी वजह शरद यादव के इस्तीफे से उपजा नैतिक दबाव था। मदन लाल खुराना दिल्ली में अच्छी सरकार चला रहे थे, लेकिन उन्हें भी विदा होना पड़ा। लेकिन उसी शरद यादव को 2018 में देखिए। नीतीश कुमार ने जब उन्हें राज्यसभा से हटाने का फैसला लिया और उनकी सदस्यता रद्द हो गई तो वे महज एक सांसद की सीट के लिए अदालती दहलीज पर अपील करते नजर आए।

दिल्ली में तुगलक रोड का सात नंबर का जब उनका बंगला छिन गया तो लुटियंस इलाके में महज एक बंगले के लिए तड़पते नजर आए। तब समाजवादी वैचारिकी के आस्थावानों को 1976 और 1996 के शरद यादव की बहुत याद आई। शरद यादव दिल्ली के लुटियंस जोन में घर के लिए तकरीबन घिघिया रहे थे, इससे आहत उनके एक सहयोगी ने निजी बातचीत में स्वीकार किया था कि शरद यादव के इस रूप ने उन्हें निराश किया है।

शरद यादव की राजनीतिक जिंदगी विरोधाभासों से भरी रही। 1980 में अपने गुरू मधु लिमये के अभियान में दोहरी सदस्यता के सवाल पर उनका साथ दिया। दोहरी सदस्यता के नाम पर जनता पार्टी से जनसंघ के लोग अलग होकर भारतीय जनता पार्टी बनाने को मजबूर हुए। तब जनसंघ को सांप्रदायिक कहते शरद यादव नहीं थकते थे। यह बात और है कि 1989 के आम चुनावों में जनता दल, वामपंथी दलों और भाजपा में दोस्ताना संघर्ष हुआ और भारत में नया इतिहास रचा गया। जब वामपंथ और राष्ट्रवादी वैचारिक धारा के सहयोग से जनता दल की सरकार बनी। विश्वनाथ प्रताप सिंह की उस सरकार में बतौर कपड़ा राज्य मंत्री शरद यादव शामिल हुए।

मधु लिमये ने जब सक्रिय राजनीति से खुद को अलग कर लिया तो शरद यादव ने देवीलाल की सरपरस्ती में काम शुरू किया। तब देवीलाल दिल्ली के राजनीतिक हलकों में कहा करते थे कि जिसके पास कपड़ा नहीं था, उसे मैंने कपड़ा मंत्री बना दिया। तब शरद यादव अपना जबलपुर छोड़ उत्तर प्रदेश के यादव बहुल बदायूं लोकसभा सीट से लोकसभा सदस्य चुने गए थे।

बहरहाल शरद यादव ने उन्हीं दिनों देवीलाल की सरपरस्ती में अपने चेले लालू यादव को बिहार का मुख्यमंत्री बनवाया। जब 1996 में हवाला कांड में नाम आने के चलते जनता दल अध्यक्ष और लोकसभा सदस्य से शरद यादव ने इस्तीफा दिया तो अपने चेले लालू को ही अपना उत्तराधिकारी चुना। यह बात और है कि बाद के दिनों में उसी लालू ने उनसे किनारा कर लिया और अपना अलग राष्ट्रीय जनता दल बना लिया।

राममंदिर के नाम पर जब जनता दल की सरकार गिरी तो शरद यादव एक बार फिर भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ मुखर हो गए। भाजपा को लोटा बाबा, बाल्टी बाबा की पार्टी कहते नहीं थकते थे। लेकिन बाद के दिनों में उनका जनता दल जब खंडित हो गया, रामकृष्ण हेगड़े ने लोकशक्ति, देवेगौड़ा ने जनता दल सेक्युलर और रामविलास पासवान ने लोकजनशक्ति पार्टी बना ली तो शरद यादव निरे अकेले नजर आने लगे थे।

लेकिन 1999 में शरद यादव भी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में शामिल हुए। बाद में समता पार्टी और जनता दल का विलय हुआ। 1999 के आम चुनावों में वे बिहार की मधेपुरा सीट से मैदान में उतरे। तब उन्हें अंदेशा था कि लालू ने बूथ कब्जा करके उन्हें हरा दिया है। इसके खिलाफ धरने पर भी बैठे, यह बात और है कि पचास हजार से ज्यादा वोटों से जीत उन्हें ही मिली। अपने चेले को हराने में वे कामयाब रहे। 1999 में जीत के बाद लगा कि उन्हें मंत्रिमंडल में जगह नहीं मिलेगी तो लोटा बाबा और बाल्टी बाबा वाली पार्टी की मान मनौव्वल के अलावा तत्कालीन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख के सी सुदर्शन से मुलाकात करने में भी देर नहीं लगाई। जिसका उन्हें फायदा मिला भी और वे वाजपेयी सरकार के महत्वपूर्ण मंत्री बने।

जब जार्ज फर्नांडिस अस्वस्थ हुए तो उन्हें राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का संयोजक बनाया गया। उनके संयोजकत्व में भाजपा ने मनमोहन सरकार के खिलाफ हल्ला भी बोला। यह बात और है कि जब नीतीश कुमार ने भाजपा का साथ छोड़ लालू का दामन पकड़ा तो शरद यादव को भी राजग से अलग होना पड़ा। लेकिन जब फिर नीतीश ने भाजपा का साथ पकड़ा तो शरद इसे स्वीकार नहीं कर पाए और नीतीश से अदावत बढ़ती गई जिसका असर उनकी राज्यसभा सदस्यता छीने जाने के रूप में दिखा।

शरद यादव को मंडल के मसीहा के रूप में पूरी दुनिया जानती है। मंडल आयोग की रिपोर्ट को वीपी सिंह से लागू करवाने वाले प्रमुख नेता शरद ही थे। शरद तब महिलाओं के खिलाफ भी मुखर रहते थे। उन्हें बलकटी और परकटी तक कहा करते थे।

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समाजवादी नैतिकता के उच्च मानकों के साथ शुरू हुई शरद यादव की राजनीतिक यात्रा विचलनों की, अपना हित सोचने की यात्रा के तौर पर भी नजर आती है। गैरकांग्रेसवाद से शुरू उनकी राजनीति कांग्रेस पर प्रत्यक्ष रूप से खत्म भले ही नहीं हुई, लेकिन आखिरी दिनों में वे कांग्रेस के भी नजदीकी बने। 2020 में उनकी बेटी सुभाषिनी ने कांग्रेस ज्वाइन भी कर लिया था। शरद यादव की राजनीतिक यात्रा की जब-जब चर्चा होगी, उनके ऐसे कई रूप और पड़ाव याद आते रहेंगे।

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(इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. लेख में प्रस्तुत किसी भी विचार एवं जानकारी के प्रति Oneindia उत्तरदायी नहीं है।)

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English summary
Ex-Union Minister Sharad Yadav's journey of political career
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