Scheduled Tribes Delisting: धर्म बदलने वाले वनवासियों को आरक्षण में से डीलिस्ट करने की बढ़ती मांग
छत्तीसगढ़ के नारायणपुर में चर्च द्वारा प्रायोजित धर्म परिवर्तन को लेकर वनवासियों ने गोर्रा गाँव में चर्च में जमकर तोड़फोड़ की और पुलिस पर भी हिंसक हमला किया।
Scheduled Tribes Delisting: मीडिया में आई तस्वीरों में देखा जा सकता है कि किस प्रकार हिंसक भीड़ में मौजूद महिलाओं ने पुलिस अधीक्षक सदानंद कुमार पर हमला कर उन्हें भागने पर मजबूर कर दिया। इस घटना से पूर्व धर्मान्तरित वनवासियों के एक समूह ने चर्च के पादरियों के नेतृत्व में वनवासियों पर हमला करते हुए उन्हें धर्म परिवर्तन हेतु भयाक्रांत किया था।
इस घटना के बाद जब माहौल तनावपूर्ण हुआ तो ऐंड़का पुलिस गाँव में पहुंची किन्तु उस समय भी गुस्साए वनवासियों ने थाना प्रभारी तुलेश्वर जोशी पर हमला बोल दिया था। 18 दिसंबर को गाँव के वनवासियों ने ईसाई बन चुके वनवासियों को गाँव से बाहर निकाल दिया था, तभी से यह मामला गर्माया हुआ था और अब इसमें राजनीति भी प्रारंभ हो चुकी है।
जमकर हो रही है राजनीति
भारतीय जनता पार्टी ने कांग्रेस सरकार पर आरोप लगाया है कि सरकार चर्च द्वारा प्रायोजित धर्मान्तरण को आश्रय दे रही है, वहीं अपनी राजनीतिक जमीन पुनः पाने की कोशिश में लगे पूर्व मुख्यमंत्री स्व. अजीत जोगी के पुत्र और जनता कांग्रेस के अध्यक्ष अमित जोगी ने कहा, 'नारायणपुर की घटना से मैं स्तब्ध हूँ। बस्तर में बम और बारूद की जगह धर्म के ठेकेदारों ने ले ली है। दोनों से बस्तर जल रहा है। सरकार कट्टरपंथियों के हाथों में कठपुतली बन चुकी है। सांप्रदायिक उन्माद फैलाने वालों के विरुद्ध और सभी पंथों को सुरक्षा देने की ठोस कार्यवाही की जरूरत है।'
वहीं कांग्रेस ने भाजपा और संघ परिवार पर वनवासियों को भड़काने का आरोप लगाया है। अब प्रश्न यह उठता है कि क्या वनवासियों की इस समस्या का हल राजनीति है? आखिर पुलिस पर हो रहे जानलेवा हमलों के बाद भी पुलिस मूकदर्शक क्यों बनी हुई है? वनवासियों की ओर से यह मांग भी जोर पकड़ रही है कि धर्मान्तरित वनवासियों को अनुसूचित जनजाति के तौर पर मिले आरक्षण से बाहर किया जाए ताकि वे इसका अनुचित लाभ न उठा सकें। इसे 'डीलिस्टिंग' कहा जा रहा है।
क्या है डीलिस्टिंग और क्यों इसकी मांग उठ रही है
स्टॉक एक्सचेंज से स्टॉक को निकालने की प्रकिया को डीलिस्टिंग कहा जाता है किन्तु अब इस शब्द को इस अर्थ में प्रयोग में लिया जा रहा है जिसमें धर्मान्तरित वनवासियों को संविधान द्वारा प्रदत आरक्षण से बाहर किया जा सके।
धर्मान्तरण कर चुके वनवासियों को आरक्षण की सूची से बाहर करने की मांग सर्वप्रथम कांग्रेस नेता कार्तिक उरांव ने उठाई थी। उन्होंने 1967-68 में लोकसभा में निजी विधेयक भी प्रस्तुत किया था किन्तु उस पर चर्चा नहीं हो पाई थी। बाद में कार्तिक उरांव के निधन से यह मुद्दा शांत हो गया किन्तु कालांतर में अब पुनः इस मुद्दे ने बहस का रूप ले लिया है।
दरअसल, वृहद वनवासी समाज का मानना है कि धर्मान्तरित वनवासी दो-तरफा लाभ उठाते हैं। वे अनुसूचित जनजाति को दिए गए आरक्षण से तो लाभ उठाते ही हैं, चर्च और मिशनरियों से भी भारी मात्रा में धन प्राप्त करते हैं। कई धर्मान्तरित वनवासी न तो अपना नाम परिवर्तित करते हैं, न ही अपनी सार्वजनिक पहचान ही छोड़ते हैं किन्तु भीतर से वे ईसाई बन चुके होते हैं। वे ईसाईयों की पूजा पद्धतियों को मानते हैं, उन्हीं के तौर-तरीकों को जीवनशैली में सम्मिलित कर लेते हैं।
ऐसे में यदि कोई वनवासी धर्मान्तरित हो गया है तो उसे हिन्दू वर्ण व्यवस्था पर आधारित आरक्षण का लाभ क्यों देना? फिर वनवासियों में ईसाईयत का ही प्रचार-प्रसार हो ऐसा नहीं है। मुस्लिम और नवबौद्धों में धर्मान्तरण भी अब यहाँ बड़ा मुद्दा बन चुका है।
क्या डीलिस्टिंग कानून सम्मत है?
वृहद वनवासी समाज डीलिस्टिंग के पक्ष में है। मध्य प्रदेश की रतलाम सीट से लोकसभा सांसद गुमान सिंह डामोर ने इस मामले को लेकर कई महारैलियाँ की हैं। जनजातीय सुरक्षा मंच के बैनर तले ये रैलियाँ मध्य प्रदेश, गुजरात, छत्तीसगढ़, झारखंड जैसे वनवासी बहुल राज्यों में हुई हैं। सांसद डामोर ने इस सन्दर्भ में मीडिया में बयान दिया था कि वनवासियों के लिए आरक्षण के प्रावधान का 90 प्रतिशत लाभ धर्मांतरण कर चुके वनवासी लेते हैं जिससे आम वनवासी आरक्षण के लाभ से वंचित हो जाता है क्योंकि धर्मांतरण करने वाले वनवासियों को पढ़ने-लिखने के लिए चर्च से धन मिलता है।
इसके अलावा वे जब धर्मांतरण कर लेते हैं तो बाहरी लोगों से उनका संपर्क बढ़ जाता है जिससे वे आरक्षण का ज़्यादा लाभ ले पाते हैं। यहाँ सवाल उठता है कि क्या डीलिस्टिंग कानून सम्मत है? क्या किसी समुदाय को अनुसूचित जनजाति से बाहर किया जा सकता है? इसका उत्तर है- हाँ। डीलिस्टिंग कानून सम्मत है।
मध्यप्रदेश की लोकुर जनजाति और गुजरात की कोल जनजाति को अनुसूचित जनजाति की सूची से 2021 में हटा दिया गया था जिसके पीछे तर्क दिया कि इन जनजातियों की संस्कृति वनवासी संस्कृति से अब नहीं मिलती है। इसके अलावा दिसंबर, 2022 में मद्रास हाई कोर्ट ने एक बड़े फैसले में कहा कि कोई व्यक्ति धर्म बदलने के बाद जाति के आधार पर आरक्षण का दावा नहीं कर सकता है।
न्यायमूर्ति जी.आर. स्वामीनाथन की अध्यक्षता वाली मद्रास हाई कोर्ट की पीठ ने सबसे पिछड़े समुदाय के एक हिंदू व्यक्ति जिसने इस्लाम धर्म अपना लिया था, उसकी याचिका खारिज करने का आदेश दिया। इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि डीलिस्टिंग की मांग सही है और यह कानून सम्मत भी है।
छत्तीसगढ़ की घटना से क्या बदलेगा?
छत्तीसगढ़ के नारायणपुर में हुए बवाल में डीलिस्टिंग की मांग को पुनः तेज कर दिया है। 2023 के अंत में राज्य में विधानसभा चुनाव हैं और 90 विधानसभा सीटों में से 27 अनुसूचित जनजाति बहुल सीटें हैं अतः यह मुद्दा अब राजनीतिक रंग भी लेगा।
कोई भी राजनीतिक दल नहीं चाहेगा कि इतने बड़े समुदाय की अनदेखी हो और संभवतः यही कारण था कि पुलिस के अधिकारियों पर प्राणघातक हमलों के बाद भी पुलिस ने बल प्रयोग नहीं किया क्योंकि उन्हें इसकी अनुमति ही नहीं थी। फिर अनुसूचित जनजाति को प्रदत कानूनी संरक्षण भी इतना मजबूत है कि पुलिस भी उनसे उलझने का साहस नहीं कर पाती।
नारायणपुर की घटना निश्चित तौर पर राजनीतिक असर तो डालेगी ही, वनवासी समाज को भी धर्मान्तरण के विरुद्ध मजबूती से एकजुट करेगी क्योंकि डीलिस्टिंग की मांग भी उन्हीं के भीतर से उठ रही है।
यह भी पढ़ें: Religious Conversion: 'धर्मांतरण' पर छत्तीसगढ़ में बवाल, जानिये आरएसएस, भाजपा और कांग्रेस का क्या कहना है
(इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं। लेख में प्रस्तुत किसी भी विचार एवं जानकारी के प्रति Oneindia उत्तरदायी नहीं है।)