बिहार में आरटीआई कार्यकर्ताओं की हत्याओं से भ्रष्टाचार के विरुद्ध संघर्ष कमजोर
बात उन दिनों की है जब देश के नागरिकों को सूचना का नया-नया अधिकार मिला था। उन दिनों आरटीआई कार्यकर्ता रहीं और बाद में जदयू नेता बनी प्रवीण अमानुल्लाह, अरविन्द केजरीवाल को बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से मिलाने ले गई। जब वे मिलकर वापस लौटे तो नीतीश कुमार ने देश में आरटीआई के लिए पहले हेल्प लाइन नंबर की घोषणा की।
बीते पन्द्रह सालों में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार तो नहीं बदले लेकिन प्रदेश में अब आरटीआई पूरी तरह बदल गया है। आरटीआई का यह अधिकार अपने बचे रहने की अंतिम लड़ाई लड़ रहा है। प्रत्येक वर्ष बिहार में औसत दो आरटीआई कार्यकर्ताओं की हत्या हो रही है। ये सभी वे आरटीआई कार्यकर्ता थे, जिनकी समाज में आरटीआई की वजह से विशेष पहचान थी।
बिहार में आरटीआई से सूचना मांगने वालों के सामने बाधाएं कम नहीं हैं। बिहार के पश्चिम चंपारण में अपनी जमीन पर से भू माफिया का कब्जा हटाने की लड़ाई लड़ रहे नीतिन रवि ने आरटीआई को औजार बनाया और उन्होंने आरटीआई डालना प्रारंभ किया। इसी क्रम में अपने एक आरटीआई के जवाब में उन्होंनें पाया कि एक ही प्रश्न का जवाब गौनाह सीओ ने गौनाहा थाने में अलग लिखकर दिया है और नरकटियागंज एसडीएम को उन्होंने बिल्कुल अलग जवाब लिखकर भेजा है। यदि आरटीआई का अधिकार नहीं होता तो पेशे से शिक्षक नीतिन रवि कभी गौनाहा सीओ के दो अलग-अलग जवाबों को हासिल नहीं कर पाते।
इसी प्रकार मुजम्मिल शेख के खिलाफ किए गए एफआईआर को थाना स्तर पर गौनाहा में खत्म कर दिया गया और इसकी जानकारी पीड़ित को दिए जाने की आवश्यकता भी थाने ने नहीं समझी। बाद में यह जानकारी भी नीतिन रवि ने आरटीआई से प्राप्त की। उनकी इस सक्रियता को देखकर मुजम्मिल शेख ने उन्हें जान से मारने की धमकी दी लेकिन यह मामला भी थाने में दर्ज नहीं किया गया।
नीतिन रवि का यह एक मामला नहीं है। ऐसे अनेक मामले हैं जहां बिहार में अंचल, प्रखंड, थाने में जानकारी को दबाया जा रहा है। सूचना मांगने वालों को हतोत्साहित किया जा रहा है कि वे जानकारी ना मांगे। अधिकांश सवालों के जवाब में लिख दिया जाता है कि यह प्रश्न आरटीआई के अन्तर्गत नहीं आता।
अपने प्रश्नों का जवाब हासिल कर लेना बिहार में एक थका देने वाली और अंतहीन प्रक्रिया का नाम है। पश्चिम चंपारण में भू माफियाओं से जुड़े ऐसे मामले बड़ी संख्या में हैं जहां गरीब पर्चाधारी से कोर्ट का ऑर्डर बताकर जमीन खाली करा दिया गया और जब पंकज राय जैसे सामाजिक कार्यकर्ताओं ने उनके लिए आरटीआई से जानकारी इकट्ठी कराई तो पता चला कि कोर्ट ने ऐसा आदेश कभी दिया ही नहीं था। जब वह गरीब पर्चाधारी सूचना मिलने के बाद अपनी जमीन पर दावा करने वापस आता है तो उस पर भू माफियाओं का कब्जा हो चुका होता है।
जितनी तत्परता पुलिस पहली बार जमीन खाली कराने में दिखाती है, दूसरी बार उसका रंग बदल चुका रहता है। वह पीड़ित की कोई मदद नहीं करती। थक हार कर पीड़ित कोर्ट पहुंचता है तो जमीन पर यथास्थिति बनाए रखने का उसे निर्देश मिल जाता है।
मतलब जमीन बिहार पुलिस ने खाली कराके भू माफियाओं को सौंप दी और उसके बाद ऐसे मामले न्यायालय में दस, बीस, पचास कितने भी साल तक चल सकते हैं। तब तक जमीन भू माफियाओं के कब्जे में रहेगी। यहां उल्लेखनीय है कि थाना और अंचल की ऐसी धांधली का खुलासा हो नहीं पाता। गरीब आदमी अपनी किस्मत मानकर अपनी ही जमीन से कब्जा छोड़कर कहीं झोपड़ी डालकर रहने लगता है। आरटीआई से पुलिस और भू माफियाओं की मिली भगत को उजागर करने वाले पंकज जैसे लोगों पर जान का खतरा ऐसे मामलों की वजह से बना रहता है।
बिहार में जिन आरटीआई कार्यकर्ताओं की हत्या हुई, उनके परिजनों की एक जैसी शिकायत है कि ''शूटर गिरफ्तार हुए। सेटर गिरफ्तार नहीं हुए।" प्रदेश में किसी मामले पर यदि जांच बिठाई गई है तो इसका मतलब है कि पुलिस इस पर लीपा पोती करना चाहती है। सेटर को गिरफ्तार करने से हमेशा पुलिस बचती है क्योंकि वह पकड़ा जाएगा तो पूरा नेटवर्क खुल जाएगा।
शिवप्रकाश राय बिहार के सबसे पुराने आरटीआई कार्यकर्ताओं में से एक हैं। उन्होंने एक बार बिहार के मुख्यमंत्री के आपराधिक रिकॉर्ड से जुड़ा प्रश्न पूछ लिया। सीएम आफिस से उन्हें फोन आ गया। उनसे पूछा गया कि आप माननीय मुख्यमंत्रीजी के संबंध में ऐसी जानकारी क्यों मांग रहे हैं? इस जानकारी का आप क्या उपयोग करेंगे? शिवप्रकाश ने जवाब दिया कि वे हमारे मुख्यमंत्री हैं। उनके संबंध में नागरिक के नाते जो जानकारी मुझे हासिल करने का अधिकार है। वही जानकारी मैने मांगी है। आप वह सूचना मुझे उपलब्ध कराइए।
यह भी सच है कि बिहार में वे लोग सुरक्षित हैं जो पीएम और सीएम स्तर पर आरटीआई डाल रहे हैं और सूचना प्राप्त कर रहे हैं। बीते एक दशक में जिन डेढ़ दर्जन आरटीआई कार्यकर्ताओं की बिहार में हत्या हुई है, उनकी हत्या के पीछे एक पैटर्न नजर आता है। ये सभी कार्यकर्ता स्थानीय मुद्दों पर काम कर रहे थे। वे आंगनबाड़ी, शिक्षक बहाली, सार्वजनिक वितरण प्रणाली, अवैध रुप से चल रहे क्लिनिक, प्रखंड स्तर पर हो रहे विकास के काम काज, अंचल स्तर पर चले रहे जमीन से जुड़े विवाद, थानों में चल रहे हेर फेर जैसे मामलों में पारर्शिता लाने के लिए लड़ रहे थे। ये कार्यकर्ता अपने आरटीआई के माध्यम से स्थानीय स्तर पर चल रही अनियमितता और भ्रष्टाचार को उजागर कर रहे थे।
आरटीआई कार्यकर्ता राजेन्द्र सिंह ने अपने काम काज के लिए चंपारण के एक प्रखंड संग्रामपुर को चुना था। उनकी हत्या की पहले भी चार बार कोशिश हुई। स्थानीय थाने को इस खतरे की जानकारी दी गई लेकिन इसे गंभीरता से नहीं लिया गया। पांचवीं बार में उनकी हत्या हो गई। जिसमें शूटर गिरफ्तार हुआ लेकिन, परिवार के मुताबिक "जिनके इशारे पर उनकी हत्या हुई, वो अब तक खुले घूम रहे हैं।" राजेन्द्र सिंह ने आरटीआई के माध्यम से भ्रष्टाचार की जो अनगिनत कहानियां उजागर कर रखी थीं, हत्या से पहले वे सारी फाइलें घर से निकलवा ली गई थी।
राजेन्द्र सिंह की सबसे खास बात थी कि वे आरटीआई डालने से पहले मामले में यह पक्का कर लेते थे कि सचमुच भ्रष्टाचार हुआ है या नहीं। अपनी जांच के बाद ही वे आरटीआई डालते थे या डलवाते थे। इसलिए उनकी डाली गई आरटीआई सटीक होती थी और उसका जवाब आसानी से वे हासिल नहीं कर पाते थे। उन्हे जब जान से मारने की धमकियां मिल रही थी, उनकी बेटियां और दामाद खूब समझाते थे कि आप आरटीआई डालना छोड़ दीजिए। हर बार उनका एक ही जवाब होता था कि राजेन्द्र सिंह मरना पसंद करेगा लेकिन भ्रष्टाचार के खिलाफ अपनी लड़ाई से पीछे नहीं हटेगा। आखिरकार वो भ्रष्टाचार से अपनी लड़ाई में पीछे तो नहीं हटे लेकिन इस लड़ाई में उन्हें अपनी जान देनी पड़ी।
बिहार में हर आरटीआई कार्यकर्ता राजेन्द्र सिंह की तरह जान देने को तैयार है, यह भी सच नहीं है। राजेन्द्र सिंह जैसे लोग विरले ही होते हैं। अररिया के अनुराग प्रशांत जैसे कार्यकर्ता भी आरटीआई डालने मैदान में उतरे, जिन्होंने अपने जिले में सड़क निर्माण से जुड़ी जानकारी इकट्ठी करने की कोशिश की। आरटीआई डालने पर उन्हें जान से मारने की धमकी मिलने लगी। उन्होंने धमकी मिलते ही आरटीआई की दुनिया को अलविदा कह दिया।
आरटीआई कार्यकर्ताओं की हत्या के मामले बिहार के हर कोने से सामने आए है। वह चाहे मधुबनी के बुद्धीनाथ झा (नवंबर 2021) हो, या फिर बेगुसराय के शशिधर मिश्रा (फरवरी, 2010)। पश्चिम चंपारण के विपिन कुमार अग्रवाल (सितम्बर 2021), राजेन्द्र सिंह (2018) हो या फिर बांका के प्रवीण कुमार झा। सबकी हत्या आरटीआई की वजह से हुई। ये सभी आरटीआई कार्यकर्ता थे और समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार को आरटीआई के माध्यम से उजागर कर रहे थे।
यदि अब भी सूचना इकट्ठा कर रहे लोगों की जान की सलामती सुनिश्चित नहीं की गई तो फिर सूचना के अधिकार का कानून अपनी सार्थकता खो देगा। इसीलिए अब 'विस्सल ब्लोअर्स प्रोटेक्शन एक्ट' समय की मांग नहीं जरूरत बन गया है। केन्द्र और प्रदेश की सरकारों को इस विषय पर गंभीरता से विचार करना चाहिए। नहीं तो पारदर्शिता और भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई जैसे शब्द सिर्फ चुनावी घोषणा पत्र में ही इस्तेमाल किए जाएंगे। आम आदमी के जीवन में इन शब्दों का कोई अर्थ नहीं बचेगा।
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