अखिलेश हुए बागी, मुलायम हुए कठोर, समाजवादी कुनबे को फायदा या नुकसान?
समाजवादी पार्टी में चल रही लड़ाई अब नया रंग रूप ले चुकी है। अक्टूबर के आखिर में शांत हो चुका झगड़ा एक बार फिर से इस कदर ऊभर आया है कि अब उसे खत्म होने में शायद बहुत समय लगे। पढ़ें यह विश्लेषण।
समाजवादी पार्टी में जारी घमासान अब ऐसी स्थिति में पहुंच चुका है जहां विभाजन के अलावा और कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा है। एक तरफ जहां समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने प्रत्याशियों की अपनी सूची के जवाब में मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की सूची आने के उपरांत उन्हें और उनके साथियों को पार्टी से निलंबित कर दिया है। वही इस स्थिति को देखकर यह अंदाजा लगाया जा रहा है कि अब इसमें सुलह समझौते की कोई गुंजाइश नहीं रह गई है। लेकिन एक गुंजाइश अभी भी हो सकती है अगर पार्टी सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव अपने फैसले पर पुनर्विचार करें तो। हालांकि यह कहना काफी कठिन होगा की आगे की रणनीति क्या होगी।
ऐसा
अनुमान
इसलिए
लगाया
जा
रहा
है
कि
वह
अपने
फैसले
से
पीछे
हटने
तथा
हेर
फेर
करने
के
लिए
भी
जाने
जाते
हैं।
तो
इस
बात
से
भी
इनकार
नहीं
किया
जा
सकता
है
कि
समाजवादी
पार्टी
की
सबसे
बड़ी
ताकत
अखिलेश
यादव
है
ना
की
मुलायम
सिंह
यादव
या
फिर
शिवपाल
यादव।
यह
बात
कुछ
और
है
कि
समाजवादी
पार्टी
के
विधायक
मुलायम
सिंह
और
शिवपाल
यादव
के
साथ
हैं।
लेकिन
इस
बात
से
अवश्य
वाकिफ
होंगे
कि
उन्हें
वोट
मुलायम
सिंह
यादव
या
शिवपाल
यादव
के
नाम
पर
नहीं
बल्कि
अखिलेश
यादव
के
नाम
पर
मिलेंगे।
यह
बात
कुछ
और
है
कि
अखिलेश
यादव
प्रत्याशियों
की
जवाबी
सूची
जारी
करअनुशासनहीनता
लाघते
हुए
नजर
आए
है।
पर
जिस
तरह
मुलायम
सिंह
यादव
ने
अनुशासनहीनता
के
लिए
कारण
बताओ
नोटिस
जारी
करने
के
चंद
घंटें
बाद
ही
पार्टी
से
निष्काषित
करते
हुए
बाहर
का
रास्ता
दिखाया
है
उससे
यह
अनुमान
लगाया
जा
रहा
है
कि
मुख्यमंत्री
इस
बार
न
तो
पीछे
हटने
के
लिए
तैयार
है
और
ना
ही
ऐसा
कुछ
कहकर
सुलह
की
उम्मीद
लगाया
है
बैठे
हैं।
अखिलेश
यादव
ने
बिना
कहे
यह
बोल
दिया
है
कि
कुछ
मामले
में
उनका
फैसला
अंतिम
फैसला
होता
है।
आपको
बताते
चलें
कि
अखिलेश
यादव
ने
अपने
आप
को
एक
ऐसे
स्थान
पर
लाकर
खड़ा
कर
लिया
है
जहां
से
वह
अब
ना
तो
पीछे
हट
सकते
हैं
और
ना
ही
समझौता
कर
सकते
हैं।
अगर
उन्होंने
ऐसा
करने
की
कोशिश
की
भी
तो
उनकी
छवि
एक
ऐसे
नेता
के
बराबर
हो
जाएगी
जो
बार-बार
अपने
कदम
पीछे
खींच
लेता
है।
साथ
ही
ऐसी
छवि
निर्मित
होने
का
मतलब
होगा
समर्थकों
का
विश्वास
खो
देना।
जिससे
यह
स्पष्ट
होता
है
कि
अब
वह
पीछे
नहीं
हटेंगे।
हालांकि
यह
कहना
काफी
कठिन
होगा
कि
समाजवादी
पार्टी
से
अखिलेश
के
निष्कासन
के
बाद
पार्टी
में
जो
विभाजन
नजर
आने
लगे
हैं
उसका
अंजाम
क्या
होगा।
अगर
समाजवादी
पार्टी
वाकई
अलग
हो
जाती
है
तो
वह
एक
कमजोर
पार्टी
के
रूप
में
हीं
दिखेगी।
आपको
बताते
चलें
कि
चुनाव
के
पहले
किसी
भी
पार्टी
में
विभाजन
लाभदायक
नहीं
होता
है।
हलाकि
परिवार
आधारित
पार्टी
में
दरार
आना
कोई
नई
बात
नहीं
है।
लेकिन
चुनाव
के
वक्त
ऐसा
बहुत
कम
देखा
जाता
है।
इस
बात
से
भी
पीछे
नहीं
हटा
जा
सकता
है
कि
अखिलेश
यादव
अपनी
छवि
एक
कुशल
राजनेता
के
रूप
में
बनाई
है।
तमाम
दबावो
और
अर्चनो
के
बावजूद
अखिलेश
यादव
ने
समाजवादी
पार्टी
को
एक
नया
रूप
देते
हुए
विकास
कार्य
के
लिए
खुद
को
समर्पित
दिखाया
और
एक
नया
दिशा
भी
दी
है।
विनम्र
छवि
बेदाग
नेता
के
तौर
पर
उभरे
अखिलेश
यादव
ने
हाल
फिलहाल
के
दिनों
में
जो
दृढ़
इच्छाशक्ति
दिखाई
है
उसे
उनका
राजनीतिक
व्यक्तित्व
और
भी
मजबूत
होता
है।
आपको
बताते
चले
कि
बिहार
जैसी
ही
स्थिति
नजर
आ
रही
उत्तर
प्रदेश
में।आज
जो
इस
स्थिति
उत्तर
प्रदेश
में
है
वैसी
स्थिति
बिहार
में
मुख्यमंत्री
जीतन
राम
माझी
के
कार्यकाल
में
सामने
आई
थी।
जिसमें
मुख्यमंत्री
जीतन
राम
मांझी
और
नीतीश
कुमार
के
बिच
जमकर
विवाद
हुआ
था।
बाद
में
नीतीश
कुमार
अपना
बहुमत
सिद्ध
कर
फिर
से
मुख्यमंत्री
की
कुर्सी
पर
बैठे
थे।
सत्ता
और
कुर्सी
का
सुख
बड़े-बड़े
रिश्ते
नाते
को
बागी
बनने
पर
मजबूर
कर
देता
है।
यह
कोई
पहला
मामला
नहीं
है
इससे
पहले
भी
कई
ऐसे
विभाजन
के
मामले
सामने
आए
है
जिसमे
रिश्ते
को
हारते
हुए
देखा
गया
है।
आइए
आपको
बताते
हैं
इस
के
कुछ
उदाहरण।
वर्ष
1991
में
गांधी
परिवार
में
हुआ
था
टकराव
आपको
बताते
चलें
कि
सन
1991
में
राजीव
गांधी
के
मृत्यु
के
बाद
सोनिया
गांधी
ने
पार्टी
की
कमान
कमान
संभाली
थी।
वही
गांधी
परिवार
की
छोटी
बहू
मेनका
गांधी
और
सोनिया
गांधी
के
बीच
काफी
टकराव
चला
था।
बाद
में
रिश्ते
हारते
हुए
नजर
आने
लगे
और
मेनका
गांधी
ने
अपने
पुत्र
वरुण
संग
बीजेपी
में
शामिल
हो
गई।
ठाकरे
परिवार
में
भी
हुआ
था
टकराव
उल्लेखनीय
है
कि
शिवसेना
सुप्रीमो
बालासाहेब
ठाकरे
की
बेटी
उद्धव
ठाकरे
और
भतीजा
राज
ठाकरे
के
बीच
पार्टी
की
कमान
संभालने
के
लिए
जमकर
विवाद
हुआ
था।
जिसके
बाद
राज
ठाकरे
ने
शिवसेना
छोड़
महाराष्ट्र
नवनिर्माण
सेना
के
नाम
से
अपनी
पार्टी
का
गठन
किया
था।
डीएमके
में
हुई
थी
कलह
वर्ष
2013
में
जब
डीएमके
की
सुप्रीमो
करुणानिधि
ने
यह
घोषणा
किया
था
कि
उनकी
विरासत
उनके
बेटे
एम
के
स्टालिन
संभालेंगे
तो
उनके
भाई
बागी
हो
गए
थे
,और
मोर्चा
खोल
दिया
था।
बाद
में
अलयगिरी
को
2
साल
के
लिए
पार्टी
से
निष्काषित
कर
दिया
गया
था।
सिंधिया
परिवार
में
टकराव
उल्लेखनीय
है
कि
विजयराजे,
माधवराज
और
ज्योतिरादित्य
सिंधिया
कांग्रेस
के
बड़े
नेताओं
में
शामिल
रहे
हैं।
वही
माधवराज
की
बहन
वसुंधरा
राजे
ने
परिवारिक
कलह
के
बाद
बीजेपी
का
दामन
थाम
लिया
था।
वर्तमान
में
वो
राजस्थान
के
मुख्यमंत्री
हैं।