इस बार यूपी विधानसभा चुनाव में रालोद के अस्तित्व का है असली इम्तिहान, क्या पार्टी बचा पाएगी सम्मान ?
यह चुनाव अजित सिंह से ज्यादा उनके बेटे और पार्टी के महासचिव जयंत चौधरी का भविष्य तय करने वाला है। बीते कुछ समय में रालोद ने जो भी चुनावी फैसले लिए हैं वो हैरान करने वाले हैं।
मथुरा। यूपी चुनाव की पहली लड़ाई 11 फरवरी को शुरू होगी और पश्चिमी उत्तर प्रदेश की 73 सीटें राज करने का हक किसको देती हैं ये देखना दिलचस्प है। पार्टियों के लिए प्रचार का वक्त बीत गया है लेकिन समीकरण पर अभी भी हर कोई सोच-विचार कर रहा है। ऐसे में ब्रज क्षेत्र की सियासी नूरा कुश्ती से कई उम्मीदें की जा सकती हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में राष्ट्रीय लोकदल के अस्तित्व पर तमाम बातें हो रही हैं। जाहिर सी बात है कि रालोद के लिए यह चुनाव किसी इम्तहान से कम नहीं खासतौर से तब जब रालोद ने गठबंधन पर कई बड़े फैसले लिए हैं।
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चुनाव में अजित से ज्यादा जयंत का भविष्य है दांव पर
यह चुनाव अजित सिंह से ज्यादा उनके बेटे और पार्टी के महासचिव जयंत चौधरी का भविष्य तय करने वाला है। चुनावी तैयारियों में गठबंधन का शोर सपा-कांग्रेस के पाले में गया लेकिन भनक यह भी लगी थी कि शायद रालोद भी इसका हिस्सा हो। ऐसे में मुलायम से किनारा कर इस चुनाव में अकेले रालोद कितना आगे बढ़ पाएगा यह बड़ा सवाल हैं?
बहरहाल बीते कुछ समय में रालोद ने जो भी चुनावी फैसले लिए हैं वो हैरान करने वाले तो हैं ही। आइए जानते हैं कि क्या है फैसले में चौंकाने वाला, गठजोड़ को लेकर क्या सोचती है पार्टी ?
गठबंधन की कोशिश तो हुई लेकिन बात नहीं बनी
दरअसल रालोद ने गठबंधन की कोशिश तो की लेकिन बात बनते-बनते बिगड़ गई। हलांकि रालोद को इस बार उतनी तवज्जो मिली भी नहीं कि इस पर कुछ कहा जाए। जब-जब गठबंधन की चर्चाएं हुईं अन्य दलों ने रालोद को सम्मानजनक सीटें न देकर निराश ही किया। यहां तक कि 20-25 सीट की पेशकश करके एक तरह से मजाक ही उड़ाया। इस स्थिति में रालोद ने प्रदेश भर की सभी सीटों से चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया। तो जाहिर है कि इस फैसले से यह चुनाव रालोद के अस्तित्व और भविष्य को तय करने वाला होगा।
बीजेपी का प्रस्ताव मानकर क्या मुंह दिखाती रालोद ?
सूत्रों के मुताबिक यह भी भनक लगी थी कि बीजेपी रालोद को अपनी पार्टी में विलय करने का ऑफर दे चुकी है। इससे नाराज रालोद नेता भाजपा को सांप्रदायिक पार्टी बताकर अन्य विरोधी दलों के साथ संयुक्त गठबंधन बनाने में भी जुटे। लेकिन कांग्रेस, सपा और अन्य दलों ने इनके साथ गठबंधन कि कोई विशेष दिलचस्पी नहीं दिखाई। सपा-कांग्रेस गठबंधन में रालोद के शामिल होने की चर्चा तो थी लेकिन इस दौरान दोनों दलों ने जब रालोद को 25-30 सीटें देने की पेशकश की तो रालोद नेता हैरान हो गए। ऐसे में पार्टी ने जो भी फैसला लिया वह राजनैतिक मजबूरी ही कही जाएगी।
लोकसभा की करारी हार ने रालोद को आत्ममंथन का तो समय दिया ही
रालोद मुखिया चौ. अजित सिंह और पार्टी महासचिव जयंत चौधरी समर्थकों में भोले-भाले माने जाते हैं और कभी-कभी उनके राजनैतिक फैसले भी भोलेपन की भेंट चढ़ जाते हैं। बता दें कि पार्टी ने इससे पहले भी कई चौकाने वाले फैसले लिए हैं। एक बार रालोद ने मथुरा के सादाबाद क्षेत्र से मध्यावति चुनाव में सामान्य किसान रामसरन आर्य उर्फ लहटू ताऊ को खड़ा कर सभी को चौंका दिया था। इससे ज्यादा चौंकाने वाली बात तो यह है कि वो जीत भी गया था।
लोकसभा चुनाव में मिली करारी शिकस्त से रालोद का मनोबल तो डगमगा ही गया है। ऐसे में इस चुनाव का सबसे बड़ा असर भी रालोद ही भोगेगा अगर ज्यादा से ज्यादा सीटें जीतता है तो भी और सीटें जीतने में नाकाम रहता है तो भी।
देखना है कि मथुरा की पांचों सीट पर रालोद कितनी टक्कर देती है ?
मथुरा की पांचों सीट पर उसके सभी घोषित प्रत्याशी कड़ी टक्कर देने की तैयारी में हैं। मथुरा में भाजपा, कांग्रेस और रालोद में कड़ा मुकाबला है। वहीं छाता में भाजपा और रालोद में कड़ा मुकाबला होने की उम्मीद है। मांट में भी बसपा और रालोद की सीधी टक्कर है। बावजूद सबके रालोद का अकेले चुनाव में उतरना और यूपी की सभी सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारना कितना सार्थक होता है यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा।
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