साबिर अली का सियासी पासा : क्या असर पड़ेगा उत्तर प्रदेश और बिहार में ?
साबिर अली का सियासी पासा : क्या असर पड़ेगा यूपी और बिहार में ?
पटना, 2 जून। भाजपा को, हाशिये पर पड़े एक मुस्लिम नेता की, छह साल बाद याद आयी है। पूर्व सांसद साबिर अली को भाजपा राष्ट्रीय अल्पसंख्यक मोर्चा का महामंत्री बनाया गया है। साबिर अली बिहार के पूर्वी चम्पारण जिले के रहने वाले हैं। उनका भाजपा में आना, जाना और फिर आना एक नाटकीय घटनाक्रम रहा है। उस समय उनकी छवि एक तेज-तर्रार मुस्लिम नेता की थी। 2015 के बाद से वे गुमनामी के अंधेरे में खोये हुए थे। इस बीच साबिर अली ने भी धीरज बनाये रखा। अब अचानक उन्हें भाजपा की राष्ट्रीय टीम का हिस्सा बना दिया गया है। राजनीतिक पंडितों का कहना है कि कोरोना महामारी के दौरान योगी सरकार की विश्वसनीयता प्रभावित हुई है। 2022 में उत्तर प्रदेश में चुनाव है। भाजपा की नैया कहीं डगमगाने न लगे इसलिए तजुर्बेकार खेवनहारों को पहले से मुस्तैद किया जा रहा है। साबिर अली अच्छे वक्ता हैं और पूरे दमखम से अपनी बात कहते हैं। उन्हें भाजपा का नया मुस्लिम चेहरा माना जा रहा है। अब देखना है कि उनकी मुख्तार अब्बास नकवी से कैसी जमती है। दोनों में एक बार पहले पंगा हो चुका है। साबिर अली की नयी जिम्मेदारी से बिहार की राजनीति में हलचल हो सकती है।
बिहार
से
मुम्बई
का
सफर
साबिर
अली
के
लिए
भाजपा
तीसरा
ठिकाना
है।
इसके
पहले
वे
लोजपा
और
जदयू
में
रह
चुके
हैं।
उनकी
पार्टी
नेतृत्व
के
साथ
कब
ठन
जाए,
कहना
मुश्किल
है।
साबिर
अली
की
कहानी
जर्रा
से
आफताब
बनने
की
है।
भारत-नेपाल
बोर्डर
पर
स्थित
रक्सौल
इलाके
में
एक
गांव
हैं
कन्ना।
साबिर
अली
की
परवरिश
इसी
गांव
में
हुई।
बाइस
तेइस
साल
की
उम्र
में
वे
अपने
गांव
कन्ना
(डुमरिया,
पूर्वी
चम्पारण,
बिहार)
से
भाग
कर
मुम्बई
चले
गये।
पहली नौकरी एक ट्रेवेल एजेंसी में मिली। यहां काम करने के दौरान उनका कुछ लोगों से परिचय हुआ। फिर वे रियल एस्टेट बिजनेस में आ गये। फिर एक्सपोर्ट-इम्पोर्ट का बिजनेस किया। 20 साल मुम्बई में रह कर खूब पैसा कमाया। वे बड़े बिल्डर बन गये। जब पैसा कमाया तो राजनीति में उतरने की सूझी। वे बिहार लौट आये। 2005 में रक्सौल से विधानसभा का चुनाव लड़ा लेकिन जीत नहीं सके।
लोजपा-राजद
के
सहयोग
से
बने
सांसद
बिहार
आने
के
बाद
साबिर
अली
ने
लोजपा
से
नजदीकी
बढ़ायी।
रामविलास
पासवान
के
करीबी
नेता
बन
गये।
2008
में
साबिर
अली
रामविलास
पासवान
के
आशीर्वाद
से
राज्यसभा
का
उम्मीदवार
बन
गये।
उस
समय
लोजपा
के
केवल
10
विधायक
थे।
इस
संख्याबल
से
कुछ
होने
वाला
नहीं
था।
तब
उन्होंने
लालू
प्रसाद
को
सहयोग
के
लिए
मनाया।
राजद
के
तब
54
विधायक
थे।
लोजपा
और
राजद
की
दोस्ती
थी।
रामविलास
पासवान
के
कहने
पर
लालू
प्रसाद
ने
साबिर
अली
को
समर्थन
दे
दिया।
वे लोजपा उम्मीदवार के रूप में राज्यसभा का चुनाव जीत गये। राज्यसभा सांसद बनने के बाद साबिर अली की राजनीति परवान चढ़ने लगी। 2010 के विधानसभा चुनाव में जब नीतीश कुमार के नेतृत्व में फिर एनडीए को जीत मिली तो राजनीतिक परिदृश्य बदलने लगा। 2011 में साबिर अली और रामविलास पासवान में दूरियां बढ़ने लगीं। वे नीतीश कुमार के करीब होने लगे। अक्टूबर 2011 में साबिर अली ने रामविलास पासवान पर परिवारवाद का आरोप लगा कर लोजपा और राज्यसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया। नवम्बर 2011 में वे जदयू में शामिल हो गये।
लोजपा
से
आये
जदयू
में
कहा
जाता
है
कि
साबिर
अली
के
इस्तीफे
और
उनके
जदयू
में
जाने
की
पटकथा
पहले
ही
लिखी
जा
चुकी
थी।
साबिर
अली
ने
इस
वायदे
के
साथ
लोजपा
से
इस्तीफा
दिया
था
कि
नीतीश
कुमार
उन्हें
फिर
राज्यसभा
का
उम्मीदवार
बनाएंगे।
साबिर
के
इस्तीफे
के
बाद
राज्यसभा
सीट
खाली
हुई
तो
दिसम्बर
2011
में
उसके
उप
चुनाव
के
लिए
घोषणा
हुई।
नीतीश
कुमार
ने
उन्हें
इस
उप
चुनाव
में
जदयू
का
राज्यसभा
उम्मीदवार
बनाया।
जीत
कर
उन्होंने
अपनी
सीट
बरकरार
रखी।
सिर्फ
दल
की
पहचान
बदल
गयी।
साबिर
अली
ने
दो
साल
तक
जदयू
में
खूब
मेहनत
की।
देखते-देखते
उनकी
गिनती
बड़े
मुस्लिम
नेता
के
रूप
में
होने
लगी।
2012 में जदयू की अधिकार रैली को सफल बनाने में उनका योगदान रहा। 2013 में जदयू की दिल्ली रैली में भी उनकी बड़ी भूमिका रही। नीतीश कुमार इससे बड़े प्रभावित हुए। दिल्ली चुनाव के लिए साबिर अली को जदयू का इलेक्शन इनचार्ज बना दिया गया। सब कुछ ठीक चल रहा था। लेकिन 2014 में वक्त ने एक बार फिर करवट ली। साबिर अली के राज्यसभा का कार्यकाल पूरा होने वाला था। उन्हें भरोसा था कि नीतीश कुमार उन्हें फिर मौका देंगे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। फिर तो साबिर अली की नीतीश कुमार से ठन गयी।
उत्तर प्रदेश में संघ और भाजपा के लिए क्यों जरूरी हो गए हैं योगी आदित्यनाथ
भाजपा
में
जाना,
निकलना
और
फिर
आना
2014
में
नीतीश
कुमार
भाजपा
के
खिलाफ
हो
चुके
थे।
इसी
बीच
राज्यसभा
चुनाव
को
लेकर
नीतीश
कुमार
और
साबिर
अली
में
अनबन
शुरू
हो
गयी।
साबिर
अली
जदयू
में
रहते
हुए
भाजपा
नेता
नरेन्द्र
मोदी
की
तारीफ
करने
लगे।
इस
बात
को
भला
नीतीश
कुमार
कैसे
सहते।
मार्च
2014
में
साबिर
अली
को
जदयू
से
निकाल
दिया
गया।
कुछ
ही
दिनों
के
बाद
वे
28
मार्च
2014
को
भाजपा
में
शामिल
हो
गये।
उनके
भाजपा
में
शामिल
होते
ही
बवाल
शुरू
हो
गया।
भाजपा
नेता
मुख्तार
अब्बास
नकवी
ने
साबिर
अली
को
आतंकी
यासीन
भटकल
का
दोस्त
कह
दिया।
भाजपा
नेता
बलबीर
पुंज
ने
भी
उनके
पार्टी
में
आने
का
विरोध
किया।
विरोध इतना बढ़ गया कि भाजपा को 24 घंटे में ही उनकी सदस्यता रद्द करनी पड़ी। आतंकी का सहयोगी कहे जाने पर साबिर अली ने नकवी पर मानहानि का मुकदमा कर दिया था। हालांकि बाद में दोनों में सुलह हो गयी थी। वैसे साबिर अली के मुम्बई में रहने के दौरान कई कहानियां प्रचलित हैं। 2015 के विधानसभा चुनाव से पहले भाजपा के लिए मुश्किलें बढ़ गयीं थीं। भाजपा को लालू-नीतीश गठबंधन से लड़ना था। तब साबिर अली की फिर भाजपा में वापसी हुई। उन्होंने जुलाई 2015 में दोबारा भाजपा की सदस्यता ग्रहण की।
अब छह साल बाद उन्हें भाजपा के राष्ट्रीय अल्पसंख्यक मोर्चा का पदाधिकारी बनाया गया है। हालांकि ये तैनाती उत्तर प्रदेश को ध्यान में रख कर की गयी है लेकिन इसका असर बिहार की राजनीति पर पड़ सकता है। नीतीश कुमार से छत्तीस का आंकड़ा रखने वाले साबिर अली के सक्रिय होने से बिहार में भाजपा की अल्पसंख्यक राजनीति को धार मिल सकती है।