COP26: ग्लासगो जलवायु सम्मेलन पर क्या कह रहे हैं चीन, अमेरिका, रूस, ईरान जैसे बड़े देश?
दुनिया के आठ देश कार्बन उत्सर्जन के लिहाज से दुनिया के लिए बड़े अहम हैं. इन देशों में मौजूद बीबीसी संवाददाता बता रहे हैं कि जलवायु परिवर्तन पर ग्लासगो में चल रहे सम्मेलन को लेकर वहां क्या कहा जा रह है.
ब्रिटेन के ग्लासगो शहर में सीओपी26 जलवायु सम्मेलन (कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज़ का 26वां सालाना सम्मेलन) अब समापन की ओर है. 31 अक्टूबर को शुरू हुआ सम्मेलन 12 नवंबर को समाप्त हो जाएगा. मगर इससे पहले ही दुनिया के दिग्गज नेता कई बड़े वादे कर चुके हैं.
दुनिया के 40 से अधिक देशों ने 2050 तक कोयले का उपयोग बंद करने का वादा किया है. वहीं बाक़ी के 100 देशों ने 2030 तक वनों की कटाई बंद करने और नए पेड़ लगाने का वादा किया है. इस बीच, अमेरिका और यूरोपीय संघ ने मीथेन उत्सर्जन में कटौती के लिए साझेदारी करने का ऐलान किया है.
भारत, चीन, अमेरिका, रूस, ऑस्ट्रेलिया, ब्राज़ील, ईरान और नाइजीरिया. ये आठों देश आबादी, क्षेत्रफल और कार्बन उत्सर्जन के लिहाज से दुनिया के लिए बड़े अहम हैं.
इन देशों में मौज़ूद बीबीसी संवाददाता बता रहे हैं कि उनके देश में जलवायु परिवर्तन और उसे रोकने के लिए ग्लासगो में किए गए वादों पर लोग आख़िर क्या सोच और कह रहे हैं?
इस रिपोर्ट को तैयार करने में दिल्ली से रजनी वैद्यनाथन, बीजिंग से स्टीफन मैकडोनेल, न्यूयॉर्क से लॉरा ट्रेवेलियन, मॉस्को से स्टीव रोसेनबर्ग, सिडनी से शाइमा ख़लील, साओ पाओलो से कैटी वाटसन, बीबीसी फ़ारसी सेवा (ईरान) के सियावश अर्दलन, नाइजीरिया के अबुजा से एन्डुका ओर्जिन्मो और मध्य पूर्व (सऊदी अरब) के व्यापार संवाददाता समीर हाशमी ने योगदान दिया है.
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दिल्ली से रजनी वैद्यनाथन लिखती हैं कि 2070 तक 'नेट ज़ीरो कार्बन उत्सर्जन' का वादा करने से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को काफी वाहवाही मिली है. वो इसलिए कि एक विकासशील देश के लिहाज से आर्थिक और पर्यावरणीय जरूरतों को संतुलित करने की कोशिश की गई है.
हालांकि, सीओपी26 शिखर सम्मेलन से पहले नीति निर्माताओं के बीच भारत को लेकर काफी चर्चा हुई. लेकिन भारत की जनता के लिए सीओपी इतना बड़ा विषय नहीं रहा.
सोमवार को प्रधानमंत्री मोदी ने घोषणा की कि उनका देश 2070 तक 'नेट ज़ीरो कार्बन उत्सर्जन' का लक्ष्य हासिल करने के लिए प्रतिबद्ध है. इसके बाद जो लोग ग्लासगो की घटनाओं पर ज़्यादा ध्यान नहीं दे रहे थे, उनका भी उस ओर पर ध्यान गया.
नरेंद्र मोदी के संबोधन को भारत में प्राइम टाइम पर प्रसारित किया गया. दूसरी ओर, दुनिया भर के कई लोग इस बात से निराश हैं कि भारत ने इन लक्ष्यों को 2050 के वैश्विक लक्ष्य के दो दशक बाद हासिल करने की बात की है. लेकिन भारत में उनके इस वादे को एक विकासशील देश की व्यावहारिक ज़रूरत माना जा रहा है.
कई लोगों का मानना है कि पश्चिमी देशों ने जब लंबे समय तक प्रदूषण फैलाते हुए अपना विकास किया है, तो प्रधानमंत्री उनके दबाव में नहीं आए. जैसा कि मोदी ने शिखर सम्मेलन को याद दिलाया, "दुनिया की आबादी का 17 प्रतिशत होते हुए भी कुल उत्सर्जन में भारत की भागीदारी 5 प्रतिशत से भी कम है." उनके इस बयान की भारत में कई लोगों ने सराहना की.
फ़र्स्ट पोस्ट नामक न्यूज़ वेबसाइट ने 2070 तक लक्ष्यों को हासिल करने की प्रतिज्ञा को "पश्चिमी देशों की बदमाशी के आगे बिना आत्मसमर्पण किए लिया गया साहसिक फ़ैसला" बताया है. भारत के जलवायु विशेषज्ञों का कहना है कि अक्षय ऊर्जा को बढ़ाने और 2030 तक कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिए देश के चार अल्पकालिक लक्ष्य काफी अहम हैं.
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बीजिंग से स्टीफन मैकडोनेल लिखते हैं कि चीन के सोशल मीडिया पर सीओपी26 में पश्चिमी देशों के रुख की बहुत आलोचना होते नहीं दिख रही है.
जलवायु शिखर सम्मेलन को लेकर चीन के सरकार-नियंत्रित मीडिया की प्रतिक्रिया काफी चुपचाप रही. ऐसा नहीं है कि चीन के आमजन नहीं जानते कि ये सम्मेलन हो रहा है. लेकिन निश्चित तौर पर इसके कवरेज को कम करके दिखाया गया है.
शायद इसकी एक अहम वजह इस सम्मेलन में शी जिनपिंग का शामिल न होना रही है. इस तथ्य की ओर ध्यान देना चाहिए कि दूसरे देशों के विपरीत चीन से किसी भी नेता ने इस जलवायु सम्मेलन में भाग नहीं लिया.
इस बात को भी ध्यान में रखने की ज़रूरत है कि चीन की मीडिया, कम्युनिस्ट पार्टी की और कम्युनिस्ट पार्टी के लिए है. देश के प्रमुख और कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव शी जिनपिंग से जुड़ी किसी भी रिपोर्ट की कवरेज को वहां सख़्ती से नियंत्रित किया जाता है.
चीन के मीडिया संस्थान ऐसे सम्मेलन को, जिसमें शी जिनपिंग भले शामिल न हुए हों पर अपना संदेश वहां भेजा हो, तब तक नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते, जब तक कि उन्हें ऐसा करने का आदेश न मिला हो.
बेशक़, कई जगहों पर सम्मेलन का जिक्र किया गया है. ग्लोबल टाइम्स में छपे राष्ट्रवादियों ने अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन की आलोचना की है. ख़ासकर तब जब बाइडन ने चीन के राष्ट्रपति के सम्मेलन में शामिल न होने के बारे में इशारा किया.
हालांकि चीन के सोशल मीडिया पर सीओपी26 में पश्चिमी देशों की आलोचनाओं की बाढ़ नहीं आई है. ये सब काफी हद तक दब गया है.
न्यूयॉर्क से लॉरा ट्रेवेलियन लिखती हैं कि अभी जो चल रहा हो, वो सब घरेलू राजनीति है.
सीओपी26 के दौरान, जलवायु परिवर्तन को लेकर अमेरिकी नेतृत्व का दुनिया में प्रदर्शन करने के लिए राष्ट्रपति जो बाइडन दृढ़ थे. लेकिन, अमेरिका के मीडिया संस्थान एमएसएनबीसी के एक स्तंभकार हेस ब्राउन ने बताया कि सबसे पहले तो उन्हें माफी मांगनी पड़ी.
चूंकि पूर्व राष्ट्रपति ट्रंप ने पेरिस जलवायु समझौते से अमेरिका को बाहर कर लिया, इसलिए इस सम्मेलन के पहले दिन बाइडन ने माना कि उस फ़ैसले से हम थोड़ा पीछे चले गए.
वैश्विक जलवायु समझौतों को लेकर अमेरिका का दृष्टिकोण अस्थिर है. वो इस पर बहुत निर्भर करता है कि वहाँ किस पार्टी के पास राष्ट्रपति पद है. इसलिए अमेरिकी मानते हैं कि ग्लासगो में जिन बातों पर सहमति बनी है, उसे 2025 में सत्ता में आने पर एक रिपब्लिकन राष्ट्रपति पलट दे सकता है.
रूढ़िवादी-झुकाव वाले वॉल स्ट्रीट जर्नल ने बताया कि राष्ट्रपति बाइडन ने उत्सर्जन कम करने को लेकर दुनिया में सहमति कायम करने के लिए रूस और चीन को "अलग-थलग" दिखाने की कोशिश की. हालाँकि अमेरिका और उसके सहयोगी मास्को और बीजिंग को हिलाने में नाकाम रहे.
अमेरिका में डेमोक्रेटिक सीनेटर जो मैनचिन का रुख काफी अहम है. कांग्रेस में जब 500 अरब डॉलर की जलवायु योजना की मंज़ूरी लेने की बात आएगी, तो उनका वोट अहम होगा. वो वहां के कोयला उत्पादक राज्य वेस्ट वर्जीनिया से आते हैं. उन्होंने जब कहा कि उन्हें जलवायु परिवर्तन समझौते को लागू करने पर होने वाले खर्च की चिंता है तो वो सुर्ख़ियों में आ गए.
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मॉस्को से स्टीव रोसेनबर्ग लिखते हैं कि रूस में जलवायु आपातकाल जैसी कोई भावना नहीं है.
इस हफ़्ते एक ब्रिटिश अख़बार की हेडलाइन थी- 'हमारे 'नाज़ुक' ग्रह को बचाने की रानी की याचना'. वहीं रूस के सबसे लोकप्रिय (सरकार समर्थक) अख़बार ने लिखा- क्या हमें वास्तव में ग्लोबल वार्मिंग से डरना चाहिए?
उसने निष्कर्ष निकाला कि रूस को "ग्लोबल वार्मिंग के सकारात्मक परिणाम" (ख़ास तौर पर रूस के लिए) जैसे: कम हीटिंग बिल, जहाजों के लिए पहले से सुलभ रास्ता आदि, के दावे नहीं करने चाहिए.
रूस में जलवायु आपातकाल जैसी कोई बात नहीं है. ऐसा नहीं है कि रूस की सरकार इसे समस्या नहीं मानती. रूस की जलवायु विश्व औसत से 2.5 गुना तेजी से गर्म हो रही है.
रूस ने ग्लासगो में अपना एक बड़ा प्रतिनिधिमंडल भेजा. हालांकि वहां व्लादिमीर पुतिन नहीं गए. वो शिखर सम्मेलन में वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए ही शामिल हुए.
फिर भी रूस ने वादा किया है कि वो 2060 तक ख़ुद को 'कार्बन न्यूट्रल' बना लेगा. 2030 तक वनों की कटाई बंद करने का वादा करते हुए उसने 'वन और भूमि उपयोग पर ग्लासगो घोषणा' पर दस्तख़त भी किए हैं.
लेकिन 2030 तक मीथेन के उत्सर्जन में 30 फ़ीसदी कटौती करने के समझौते पर वो हस्ताक्षर नहीं करेगा. रूस जीवाश्म ईंधन के मामले में एक महाशक्ति है. इसलिए वो चाहता है कि ग्रीन एनर्जी पर जाने के लिए उसे लंबा वक़्त मिले.
ग्रीन पीस रशिया के वासिली याब्लोकोव ने मुझे बताया, "हर कोई चाहता है कि जल्द से जल्द कार्बन न्यूट्रल बनने के लिए रूस और प्रयास करे. मुझे खुशी है कि रूस अब मानता है कि जलवायु परिवर्तन हो रहा है. हालांकि मुझे अपने देश को लेकर बहुत ज्यादा महत्वाकांक्षा नहीं है."
सिडनी से शाइमा ख़लील लिखती हैं कि सीओपी26 शिखर सम्मेलन में ऑस्ट्रेलिया का हिस्सा राजनीति से प्रभावित है.
सीओपी26 में प्रधानमंत्री स्कॉट मॉरिसन ने दुनिया को ये बताया कि बिना कोयले को बाहर किए कैसे उनका देश 2050 तक नेट ज़ीरो कार्बन उत्सर्जन के लक्ष्य को हासिल करेगा. हालांकि उनकी इस यात्रा पर फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों के साथ सबमरीन को लेकर हाल में हुआ विवाद छाया हुआ था.
रविवार को ग्लासगो में मैक्रों ने मॉरिसन पर आरोप लगाया कि फ्रांस के साथ 37 अरब डॉलर के सौदे को लेकर उन्होंने झूठ बोला. लेकिन मॉरिसन ने ये कहकर जवाब दिया कि ऑस्ट्रेलिया "स्लेजिंग" या "अपमान" को बरदाश्त नहीं करेगा.
इसलिए जलवायु परिवर्तन सम्मेलन से ऑस्ट्रेलिया ने क्या हासिल किया, इन बातों पर चर्चा करने के बजाय वहां दूसरी बातों पर विचार किया गया. ऑस्ट्रेलिया में अधिकांश टिप्पणी मॉरिसन के चरित्र को लेकर हुई. साथ ही ये चर्चा होती रही कि इन मुद्दों से उनकी घरेलू हैसियत पर क्या असर पड़ेगा.
ग्लासगों में जलवायु मसले पर भी ऑस्ट्रेलिया ने थोड़ी सुर्खियां बटोरीं. चीन, रूस, भारत और ईरान की तरह इसने भी 2030 तक मीथेन के उत्सर्जन को 30 फ़ीसदी तक कम करने की अंतरराष्ट्रीय प्रतिज्ञा को मानने से इनकार कर दिया. उसने कोयले से मिलने वाली बिजली को धीरे-धीरे ख़त्म करने और देश-विदेश में कोयले के नए बिजली संयंत्रों में निवेश बंद करने के लिए दस्तख़त करने से साफ मना कर दिया.
वहीं ऑस्ट्रेलिया के एबीसी न्यूज ने बताया कि प्रधानमंत्री के लिए पिछला हफ़्ता "बहुत गंदा" साबित हुआ.
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साओ पाउलो से कैटी वाटसन लिखती हैं कि स्कॉटलैंड का जलवायु सम्मेलन अधिकांश देशवासियों की वास्तविकता से बहुत दूर है.
ब्राज़ील के विशाल वर्षावन के चलते जलवायु परिवर्तन में ब्राजील के योगदान से दुनिया को बहुत अधिक फ़र्क पड़ता है. लेकिन वहां के राष्ट्रपति जायर बोलसोनारो जो कहते और करते हैं, उससे लगता है कि यहां का मामला थोड़ा अलग है. ग़ौरतलब है कि बोलसोनारो सीओपी26 शिखर सम्मेलन में शामिल नहीं हुए.
अमेज़ॉन ब्राज़ील में ही है, लेकिन वो साओ पाउलो और रियो डि जेनेरियो जैसे बड़े शहरों से बहुत दूर है. और स्कॉटलैंड में हो रहा ये जलवायु सम्मेलन भी इन शहरों से उतना ही दूर लगता है.
ऐसा नहीं है कि ब्राज़ील के लोग जलवायु परिवर्तन की परवाह नहीं करते.
लोगों को राजनीति में शामिल होने के लिए काम करने वाली संस्था डेलिबेरा के सह-संस्थापक सिल्विया सेरवेलिनी कहती हैं, "लोग जलवायु परिवर्तन में शामिल होना चाहते हैं और उनके पास इसमें योगदान करने के लिए बहुत कुछ है. लेकिन कोरोना महामारी के बाद ग़रीबी में वृद्धि हुई है. इससे ब्राज़ील पर राजनीतिक और आर्थिक संकट गहरा रहा है.''
इस बात से कपड़े तैयार करने वाली इज़िल्डेट मारिया डी सूसा बोटेल्हो भी सहमत हैं. 67 साल की इस महिला को सीओपी की ग्लोबल सिटीज़न एसेंबली का हिस्सा बनने के लिए चुना गया था.
वो कहती हैं, "यदि हम पेड़ों को काट रहे हैं, तो हमें अपने भोजन के बारे में फिर से सोचने की ज़रूरत है. हम अधिकारियों और नेताओं को अपनी ज़िम्मेदारी सौंपकर भूल जाते हैं कि ये काम हमारा ख़ुद का है. हमें पारिस्थितिकी को लेकर जागरूकता बढ़ाने की ज़रूरत है. इसकी कमी के चलते ही समस्याएं पैदा हो रही हैं."
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बीबीसी फ़ारसी सेवा के संवाददाता सियावश अर्दलन लिखते हैं कि ईरान के कई लोग मानते हैं कि प्रतिबंधों के जारी रहते हुए जलवायु पर उससे किसी भी तरह के वादे की उम्मीद करना ग़लत है.
ईरान ग्रीनहाउस गैसों के शीर्ष 10 उत्सर्जकों में से एक है. साथ ही ग्लोबल वार्मिंग के असर से ये देश बहुत पीड़ित है. ईरान में इस साल पिछले कई दशकों का सबसे भीषण सूखा पड़ा. इसके चलते वहां पानी की गंभीर कमी हो गई और बिजली की आपूर्ति भी बाधित हो गई.
अमेरिका के प्रतिबंधों और देश की अस्थिर नीतियों ने इन समस्याओं को और बढ़ा दिया है.
सीओपी26 में गए ईरान के प्रतिनिधिमंडल के एक सदस्य ने कहा कि ईरान पर लगे प्रतिबंध यदि हटा लिए गए तो "अपने उत्सर्जन को घटाने में हमें कोई बाधा नहीं बचेगी."
हालांकि, राष्ट्रपति इब्राहिम रईसी की सरकार से जुड़े रूढ़िवादियों ने कई तरह के बयान दिए हैं. इन बयानों में जलवायु परिवर्तन से इनकार करने के साथ कहा गया कि सीओपी26 का मकसद ईरान को उसके तेल और गैस से वंचित करना है.
ग्लासगो के शिखर सम्मेलन को ईरान की मीडिया ने ख़ूब नजरअंदाज़ किया. हालांकि कई सुधारवादी अख़बारों ने संयुक्त राष्ट्र के अधिकारियों और जलवायु वैज्ञानिकों की सख़्त चेतावनियों का उल्लेख किया, पर सीओपी26 को लेकर सरकार की बेरुख़ी की आलोचना से परहेज किया है.
इस मसले पर जनता की राय बंटी हुई है. कई लोग मानते हैं कि प्रतिबंधों के बने रहने के दौरान ईरान से किसी भी तरह की प्रतिबद्धता की उम्मीद करना ग़लत है. वहीं कइयों का मानना है कि जलवायु परिवर्तन ने केवल सरकारी अक्षमता को छिपाने का काम किया है.
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राजधानी अबुजा से एन्डुका ओर्जिन्मो लिखते हैं कि सीओपी26 नाइजीरिया में पहले पन्ने की ख़बर नहीं है.
वैसे अफ्रीका के सबसे बड़े इस तेल निर्यातक देश ने 2060 तक कार्बन के उत्सर्जन को शून्य करने का वादा किया है. हालांकि बड़े-बड़े मीडिया घरानों ने अपने पत्रकारों को ग्लासगो भेजा है, पर नाइजीरिया में यह पहले पन्ने की ख़बर नहीं है.
बुधवार को राष्ट्रपति मुहम्मदु बुहारी ने कहा, ''मरुस्थलीकरण, बाढ़ और कटाव को पर्याप्त सबूत बताकर नाइजीरिया के किसी भी नागरिक को पर्यावरण के लिए तत्काल उपाय करने के लिए समझाने की ज़रूरत नहीं है.''
हालांकि जलवायु परिवर्तन से निपटने को विकासशील देशों के लिए बनाए गए सालाना 100 अरब डॉलर के फंड से वो अपने देश के लिए कुछ हिस्सा चाहते हैं. साथ ही, उनकी इच्छा है कि उनके गैस क्षेत्र में विदेशी निवेश आए, ताकि नाइजीरिया अपने राजस्व के मुख्य स्रोत कच्चे तेल का मजबूत विकल्प खड़ा कर सके.
हालांकि नाइजीरिया में किसी ने भी अपने जीवन में बिजली की स्थिर आपूर्ति कभी नहीं देखी. और यदि इसके लिए कोयले की बिजली तैयार की गई, तो जलवायु बचाने की ख़ातिर कई लोग इस विकल्प को नकार देंगे.
नाइजीरिया में, ख़ासकर तेल उत्पादक क्षेत्र नाइजर डेल्टा में, जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए काम करने वाले कार्यकर्ता, लंबे समय से तेल की खुदाई और जमीन से रिस रही गैस से जलने वाली आग को लेकर चेतावनी दे रहे हैं. पर सरकार और अंतरराष्ट्रीय तेल कंपनियों ने इस मामले पर कोई ठोस कार्रवाई नहीं की.
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मध्य पूर्व के व्यापार संवाददाता समीर हाशमी लिखते हैं कि भले ही सऊदी अरब 2060 तक नेट कार्बन उत्सर्जन को शून्य करने का लक्ष्य हासिल करने की बात कह रहा है, लेकिन अपना तेल उत्पादन वो लगातार बढ़ा ही रहा है.
दुनिया का सबसे बड़ा तेल निर्यातक सऊदी अरब ने कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिए एक निश्चित लक्ष्य बनाने के पश्चिमी देशों की अपील का लंबे समय तक विरोध किया. लेकिन पिछले महीने क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान ने 2060 तक इस लक्ष्य को पाने का ऐलान किया.
हालांकि ये लक्ष्य तय करने के बाद भी वैश्विक मांग पूरा करने के लिए वो तेल उत्पादन की अपनी क्षमता लगातार बढ़ा रहा है.
देश के शीर्ष अधिकारियों ने बार-बार कहा है कि जलवायु परिवर्तन से निपटना ज़रूरी है, लेकिन ऐसा हाइड्रोकार्बन को "ख़तरनाक" बताकर नहीं करना चाहिए. देश के ऊर्जा मंत्री की राय है कि दुनिया को जीवाश्म ईंधन और अक्षय ऊर्जा दोनों की ज़रूरत है.
मैंने वहां के जिन भी अधिकारियों से बात की, उनमें से अधिकांश ने नए उद्योगों में निवेश के जरिए आर्थिक विविधीकरण को बढ़ाने के क्राउन प्रिंस के प्रयासों का समर्थन किया. हालांकि पर्यावरण कार्यकर्ता इस मामले पर चुप्पी साधे हुए हैं.
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