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काबुल के बचे-खुचे सिखों के सामने बड़ा सवालः कहां जाएं

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Provided by Deutsche Welle

काबुल, 20 जनवरी। काबुल के जिस गुरुद्वारे में कभी विशाल संगतें हुआ करती थीं, वहां अब वीराना पड़ा है. काबुल में एक ही गुरुद्वारा है जिसकी देखरेख करने वाले गुरनाम सिंह खाली आंगन को निराशा से देखते रहते हैं. वह बताते हैं, "अफगानिस्तान हमारा देश है, हमारी सरजमीं है. पर हम पूरी निराशा के साथ इसे छोड़ रहे हैं."

1970 में अफगानिस्तान में सिखों की आबादी एक लाख से ज्यादा थी. दशकों से जारी युद्ध, गरीबी और समाज में बढ़ी असहिष्णुता ने हालात बदल दिए हैं. पहले सोवियत संघ के कब्जे, फिर तालिबान का खूनी राज, उसके बाद अमेरिका का आक्रमण इस सिख आबादी पर ऐसा भारी गुजरा कि देश में पिछले साल मात्र 240 सिख बचे थे.

अगस्त में तालिबान के सत्ता में लौटने के बाद सिखों के देश छोड़ने का नया सिलसिला शुरू हो गया. गुरनाम सिंह का अंदाजा है कि अब 140 लोग बचे हैं जिनमें से अधिकतर जलालाबाद या काबुल में हैं. काबुल में बचे ये मुट्ठीभर सिख गुरुद्वारे में अरदास के लिए जमा होते हैं. हाल ही में एक सोमवार को अरदास के लिए कुल जमा 15 लोग आए थे. नवंबर में गुरुद्वारे में गुरु ग्रंथ साहिब की तीन प्रतियां थीं जिनमें से दो भारत ले जाई जा चुकी हैं.

खतरा अब भी है

मुस्लिम बहुल अफगानिस्तान में सिखों ने काफी भेदभाव झेला है. गरीबी की मार तो है ही, इस्लामिक स्टेट के तेजी से उभरते संगठन खोरसान का खतरा भी लगातार मंडरा रहा है.

अफगानिस्तान से भागे ज्यादातर सिख भारत गए हैं जहां दुनियाभर की कुल ढाई करोड़ आबादी का 90 प्रतिशत हिस्सा बसता है. तालिबान के सत्ता में वापसी के बाद भारत ने सिखों को प्राथमिकता से वीजा देने की योजना शुरू की है. लोग लंबे निवास के लिए वीजा भी अप्लाई कर सकते हैं लेकिन नागरिकता की फिलहाल कोई संभावना नजर नहीं आती.

फार्मासिस्ट मनजीत सिंह 40 साल के हैं. वह उन चंद लोगों में से हैं जिन्होंने अफगानिस्तान छोड़ने से इनकार कर दिया. पिछले साल जब उनकी बेटी भारत चली गई तो उनके सामने भी विकल्प था लेकिन उन्होंने कहा, "मैं भारत में करूंगा क्या? ना वहां कोई काम है न घर है."

जो सिख अफगानिस्तान में बचे हैं उनके लिए देश छोड़ने का फैसला बेहद मुश्किल है. उनके लिए अफगानिस्तान छोड़ना अपने रूहानी घर को त्यागने जैसा है. 60 साल के मनमोहन सिंह कहते हैं, "60 साल पहले जब यह गुरुद्वारा बना था, तब सारा इलाका सिखों से भरा हुआ था. हमने अपने सुख-दुख सब एक दूसरे के साथ साझे किए थे."

भारत नहीं जाना चाहते

बाहर से देखने पर गुरुद्वारा आसपास की किसी भी आम इमारत जैसा लगता है. लेकिन यहां सुरक्षा ज्यादा चाकचौबंद है. सबकी कड़ी तलाशी होती है, पहचान पत्र जांचे जाते हैं और तभी अंदर जाने की इजाजत मिलती है. बीते अक्टूबर में कुछ अज्ञात बंदूकधारी इमारत में घुस गए थे और यहां तोड़फोड़ की थी. तब से डर और बढ़ गया.

हालांकि यह कोई पहला ऐसा वाकया नहीं था. 2020 मार्च में आईएस-के के सदस्यों ने काबुल के शोर बाजार में हर राय साहिब गुरुद्वारे पर हमला किया और 25 सिखों को मार गिराया था. उस हमले के बाद से काबुल का करीब 500 साल पुराना वह सबसे पुराना गुरुद्वार अनाथ पड़ा है.

आईएस-के के हमले में घायल परमजीत कौर की बाईं आंख में छर्रा लगा था. उनकी बहन मरने वालों में शामिल थीं. बाद में कौर ने अपना सामान बांधा और दिल्ली चली गईं. लेकिन वह लौट आईं. वह बताती हैं, "वहां ना तो कोई काम था और रहना भी बहुत महंगा था."

परमजीत पिछले साल जुलाई में लौटी थीं, तालिबान के सत्ता में लौटने से एक महीना पहले. अब वह, उनके पति और तीन बच्चे कारते परवान गुरुद्वारे में ही रहते हैं. उनके बच्चे स्कूल नहीं जाते और वह खुद भी गुरुद्वारे की चार दीवारी से बाहर नहीं निकलतीं. यही एक जगह है जहां वह सुरक्षित महसूस करती हैं.

परमजीत देश छोड़ने के बारे में सोचती हैं, लेकिन इस बार वह भारत नहीं कनाडा या अमेरिका जाना चाहती हैं. वह कहती हैं, "मेरे बच्चे अभी छोटे हैं. अगर हम चले जाएं तो वहां अपनी जिंदगी फिर से खड़ी कर सकती हैं."

वीके/एए (रॉयटर्स)

Source: DW

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English summary
stay or go dilemma facing last of the afghan sikhs
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