ब्लॉग: पाकिस्तान में यह चुनाव अरेंज मैरिज जैसा लगता है
दिल अंदर जाने से रोक रहा है पर दिमाग़ आगे ढकेल दे रहा है. पहचान पत्र दिखाइये, ये लीजिए बेलट पेपर, पर्दे के पीछे चले जाइए, मुहर वहीं है. मुहर लगाओ जहां भी पड़ जाए. अरेंज मैरिज में पूछना क्या दिखाना क्या, क़बूल है क़बूल है, मुबारक सलामत. वोटर कौन है अहम नहीं, अहम ये है कि गिनता कौन है?
मगर मेरी इन बातों में हरगिज़-हरगिज़ नहीं आइयेगा. आज वोट ज़रूर दीजिए इतना वोट डालो कि गिनती करने वाले घबरा जाएं. लोकतंत्र ऐसे ही तो दबे पांव आता है. कोई शॉर्टकट नहीं.
बुधवार को मतदान केंद्रों के बाहर लाइन में दो तरह के मतदाता होंगे. एक वह जो ख़ुद चल के पहुंचे, दूसरे वह जो लाए जाएंगे. जो ख़ुद पहुंचेंगे उन्हें आज़ादी होगी कि वह अपनी पसंद की राजनीतिक पार्टी के स्टॉल पर जाकर वोट नंबर और नाम की पर्ची बनवा सकें.
जो घरों से लाए गए होंगे उनमें से अधिकांश के पास शायद पर्चियां हों या फिर उम्मीदवार के कार्यकर्ता उन्हें किसी ख़ास पार्टी के स्टॉल पर ले जाएं और पर्ची बनवाकर एक पर्चा यह दिखाते हुए थमाएं, "बस तुसी इस निशान ते मुहर लानी ए, क्या समझे!'
पाकिस्तान में बुधवार को नैशनल असेंबली और चार प्रांतीय असेंबली के लिए वोट डाले जा रहे हैं. इसमें नैशनल असेंबली की 272 में से 270 सीटों पर मतदान हो रहा है. वहीं पंजाब प्रांत की 297 सीटों में से 295, सिंध प्रांत की 130 में से 128, ख़ैबर पख़्तूनख़्वा की 99 में से 97 और बूलचिस्तान की 51 में से 50 असेंबली सीटों पर वोट जारी है.
बुधवार को सब से ज़्यादा ख़ुश फ़ाटा और कराची के मतदाता होंगे. फ़ाटा वालों को पहली बार अपने इलाक़े में राजनीतिक बुनियाद पर आयोजित चुनाव में अपना नेता चुनने का मौक़ा मिलेगा और कराची के मतदाताओं को तीस साल बाद हाथ से वोट डालने का मज़ा आएगा.
आख़िरी बार उन्होंने 1988 में अपने हाथ वोट डाला था. इसके बाद जितने भी चुनाव हुए उनका वोट ख़ुद-ब-ख़ुद उड़के बेलट बॉक्स में जाकर बैठ गया. आज सस्पेंस अपने मालिक के हाथ पकड़ के मतदान केंद्रों तक जाएगा वोटा डलवाएगा और अप्रत्याशित परिणाम दिखाएगा.
तीनों प्रांतों की तरह आज बलूचिस्तान में भी मतदान हो रहे हैं. कैसी हो रहा है, कितना हो रहा है, क्यों हो रहा है, इन सवालों का जवाब बलूचिस्तानी जानें या मतदान करवाने वाले. चारों प्रांतों में बलूचिस्तान शायद एकमात्र प्रांत है जहां पिछले कई साल मतदाताओं को कम और उम्मीदवारों को मतदाता की ज़्यादा ज़रूरत है.
मतदाता या दूल्हा-दुल्हन
लाख वोट के क्षेत्र में साढ़े सात सौ भी डल जाएं तो भी चलता है. रूखा-सूखा लोकतंत्र ही सही लेकिन मिल तो रहा है. आदर्श चुनाव लव मैरिज की तरह हैं. लड़की-लड़के ने एक दूसरे को देखा. मुलाक़ातें हुईं. पसंद किया. तब कहीं जाकर परिजनों को भरोसे में लिया और मनाया. परिजनों ने ज़रूरी इंतज़ाम किए. मियां-बीवी राज़ी तो क्या करेंगे क़ाज़ी. शादी हंसी-ख़ुशी चली तो सुब्हान अल्लाह, न चली तो मैं अपने घर तू अपने घर. नया फ़ैसला मेरी ज़िंदगी अल्लाह अल्लाह ख़ैर सला...
मगर मौजूदा चुनावों की तैयारियों को देखकर बहुत सौ को क्यों लग रहा है, मानो आज मतदाता और बेलट बॉक्स की अरेंज मैरिज है. रिश्ता परिजनों ने तलाश किया. दहेज़ में क्या देना, क्या लेना है, खाना क्या पकेगा, क़ाज़ी कौन होगा, बारात कैसे और कितने बजे आएगी, निकाह कब होगा, महर कितना तय होगा. लड़की का सिर पकड़कर तीन बार कौन हिलाएगा और 'क़बूल है क़बूल है' कहते हुए हवा में छुआरे कौन उछालेगा. सब कुछ तो बुज़ुर्गों ने तय कर दिया.
लड़के-लड़की को सिर्फ़ दूल्हा-दुल्हन का किरदार निभाना है और मतदाताओं की दुआओं के साए में विदा होना है. बाक़ी दिन बुज़ुर्गों के छाए में गुज़र रहे हैं.
हो सकता है लड़की का जी चाहे ऐसी शादी से बेहतर है पिछली खिड़की से कूदकर कहीं भाग जाए, मगर जाएं कहां और किसके साथ?
ये सब फ़िज़ूल इस वक़्त दिलो-दिमाग़ पर छाए हुए हैं, मगर बिरादरी में रहना है तो शादी में तो शिरकत करनी होगी. दुनिया वालों के सामने मुस्कुराना तो होगा.
वोट देन पर जन्नत का वादा
पिछले चुनाव में वोट देना मुझे कितना आसान लग रहा था. पर इस बार मेन्यू ख़ासा बदला हुआ है. अगर लबैक को वोट दे दो तो जन्नत का पक्का वादा, पीएमएल (एन) को दो तो वोट की इज़्ज़त बहाल करने का वादा, तहरीक-ए-इंसाफ़ को वोट दो तो नया पाकिस्तान दिखाने का ख़्वाब, एमक्यूएम की पतंग उड़ाऊं तो डोर कटने का डर.
मुत्ताहिदा मजलिस-ए-अमल को वोट दे तो दो मगर 1970 से अब तक एमएमए की पार्टियां इस्लाम लागू ही किये चली जा रही है और इस्लाम है कि उनके हाथों लागू होने को तैयार ही नहीं.
आवामी नेशनल पार्टी को वोट दे तो दो मगर ये तो पता चले कि ये इस वक़्त किस सोच में है? शेर के साथ जाना चाहती है या शिकारी के साथ या दोनों के साथ?
बहुत से स्वतंत्र उम्मीदवार भी हैं. उनमें जिब्रान नासिर बहुत अच्छी बातें कर रहा है, मगर उन बातों के बदले फ़ेसबुक पर जिब्रान को जितने लाइक्स मिल रहे हैं, अगर उनका एक चौथाई भी वोट पड़ जाएं तो बात बन जाए. मगर मैं जिब्रान को इसलिए वोट नहीं देना चाहता कि बड़ा होकर ये भी इमरान ख़ान बन गया या बना दिया गया तो?
पहले ज़माने में मीडिया की मदद से भी दिमाग़ किसी फ़ैसले पर पहुंच जाता था. लेकिन जब हर चैनल और अख़बार किसी न किसी राजनीतिक पार्टी या बादशाह का गुर्गा लगने लगे तो वोट फिर किसे दूं?
मतदान केंद्र पर बरगद बनना चाहता हूं
मेरे क़दम तो मतदान केंद्रों की तरफ़ उठ रहे हैं मगर हर क़दम के साथ में सआदत हसन मंटो का बिशन सिंह उर्फ़ टोबा टेक सिंह बनता जा रहा हूं. ओपड़ दी गड़ गड़ दी एनक्स दी बे ध्याना दी मंग दी वाल ऑफ़ टोबा टेक सिंह ऑफ़ पाकिस्तान.
मैं बिशन सिंह नए पाकिस्तान में जाना चाहता हूं न पुराने पाकिस्तान में रहना चाहता हूं. मैं तो बस मतदान केंद्रों के ऊपर छायादार बरगद पर रहना चाहता हूं. वहीं, बैठे-बैठे बेलट पेपर का जहाज़ बनाकर उड़ाना चाहता हूं.
न भेज न माए मुझको. मैं नई जाना नई जाना. मैं नई जानां खेड़ियां दे नाल...
दिल अंदर जाने से रोक रहा है पर दिमाग़ आगे ढकेल दे रहा है. पहचान पत्र दिखाइये, ये लीजिए बेलट पेपर, पर्दे के पीछे चले जाइए, मुहर वहीं है. मुहर लगाओ जहां भी पड़ जाए. अरेंज मैरिज में पूछना क्या दिखाना क्या, क़बूल है क़बूल है, मुबारक सलामत. वोटर कौन है अहम नहीं, अहम ये है कि गिनता कौन है?
मगर मेरी इन बातों में हरगिज़-हरगिज़ नहीं आइयेगा. आज वोट ज़रूर दीजिए इतना वोट डालो कि गिनती करने वाले घबरा जाएं. लोकतंत्र ऐसे ही तो दबे पांव आता है. कोई शॉर्टकट नहीं.