उद्धव ठाकरे इतनी बड़ी बग़ावत से वाक़ई बेख़बर थे?
सबसे अहम सवाल ये है कि जब इतना बड़ा विद्रोह हो रहा था तो मुख्यमंत्री और पार्टी प्रमुख उद्धव ठाकरे को इसकी भनक तक कैसे नहीं लगी?
शिव सेना में एकनाथ शिंदे के विद्रोह से अब 'महाविकास अघाड़ी' सरकार का अस्तित्व ख़तरे में है.
जो भी हो अब एक बार फिर फ़ोकस अतीत पर भी है और उससे उत्पन्न कुछ प्रश्न अभी भी अनुत्तरित हैं.
सबसे अहम सवाल ये है कि जब इतना बड़ा विद्रोह हो रहा था तो मुख्यमंत्री और पार्टी प्रमुख उद्धव ठाकरे को इसकी भनक तक कैसे नहीं लगी?
इस बग़ावत ने पार्टी पर उद्धव ठाकरे की पकड़ और शिव सेना के भविष्य पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं. पार्टी अपने बाग़ी विधायकों को वापस लाने की कोशिश कर रही है.
लेकिन सवाल यह है कि जब शिव सेना के बीच इतना बड़ा विद्रोह पनप रहा था तो नेतृत्व को कोई संदेह क्यों नहीं हुआ?
कहीं ऐसा तो नहीं कि इसे उस गंभीरता से नहीं लिया गया या यह एक विचार था लेकिन इसे बहुत गंभीरता से लिए बिना कुछ नहीं किया गया?
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यह सवाल पूछने की एक वजह यह भी है कि शिव सेना में असंतुष्ट कार्यकर्ताओं का एक बड़ा समूह है, ये बात किसी से छिपी नहीं है.
एकनाथ शिंदे नाराज़ थे और पार्टी के भीतर कई लोग हैं जो उन पर भरोसा करते हैं. ये बात महाराष्ट्र की राजनीति पर नज़र रखने वाले भली भांति जानते समझते हैं. तो इस बात का क्या जवाब है कि सेना के नेतृत्व क्यों विद्रोह से अनभिज्ञ रहा?
एक बात तो तय है, जिस तरह की रणनीति बनाई गई, विधायक जुटाए गए, पहले सूरत और फिर गुवाहाटी की यात्रा हुई. और फिर आगे की सभी क़ानूनी प्रक्रिया तैयार की गई, इससे साफ़ है कि यह सब महीनों की योजना का नतीजा है.
उद्धव ठाकरे और उनकी सरकार को इसका तैयारी की भनक नहीं लगी. राज्यसभा और विधान परिषद चुनाव के दौरान शिव सेना ने सभी विधायकों को एक साथ एक होटल में रखा था ताकि क्रॉस वोटिंग न हो.
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क्या ख़ुफ़िया एजेंसियों ने नहीं बताया?
किसी भी राज्य का ख़ुफ़िया विभाग, मुख्यमंत्रियों के लिए नियमित ब्रीफ़िंग करता है. राज्यों के गृह मंत्रालय और मुख्यमंत्रियों को पुलिस के आला अधिकारी तमाम घटनाक्रम से अवगत करवाते रहते हैं.
ख़ुफ़िया विभाग राज्य में राजनीतिक आंदोलनों, पार्टी आंदोलनों और आपराधिक गतिविधियों पर गृह मंत्रालय को रिपोर्ट करता है.
क्या महाराष्ट्र के ख़ुफ़िया विभाग को विधायकों के विद्रोह के बारे में पता नहीं चला, यदि हाँ, तो मुख्यमंत्री को इसकी सूचना क्यों नहीं दी गई और यदि दी गई तो उस सूचना के आधार पर विद्रोह को रोकने के लिए कोई क़दम क्यों नहीं उठाया गया?
इन विधायकों को महाराष्ट्र पुलिस की सुरक्षा मिली हुई है. ज़ाहिर है पुलिस हमेशा उनके साथ रहती होगी.
बागी विधायकों में चार मंत्री भी हैं. उन्हीं में से एक हैं, गृह राज्य मंत्री शंभूराजे देसाई. तार्किक सवाल यह है कि इतना बड़ा पुलिस बल होने के बावजूद सरकारी नेतृत्व और गृह मंत्रालय को विधायकों की कारगुज़ारियों की भनक क्यों नहीं लगी.
ऐसा पता चला है कि सरकार को दो महीने पहले पुलिस के ख़ुफ़िया विभाग ने सूचित किया था कि कुछ विधायक सरकार के करीबी विपक्ष के संपर्क में हैं. इस बारे में मीडिया में भी ख़बर छपी थी.
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लेकिन उस वक़्त इन विधायकों की संख्या, आज की तुलना में बहुत कम थी. शायद यही वजह थी कि इनपुट की अनदेखी कर दी गई क्योंकि इससे सरकार की स्थिरता को कोई ख़तरा नहीं देखा गया. उन शुरूआती जानकारियों की उपेक्षा ही मौजूदा वक़्त में सरकार के जी का जंजाल बन गई है.
सरकार ख़ुफ़िया सूचनाओं के आधार पर विपक्षी गतिविधियों पर भी नज़र रखती है. बीजेपी की पिछली सरकार के दौरान वरिष्ठ पुलिस अधिकारी रश्मि शुक्ला पर विपक्षी नेताओं के फ़ोन टैपिंग का केस इसी की एक मिसाल है.
ये सरकार भी विपक्ष की हरकतों से वाकिफ़ है. इस समय जो कुछ हो रहा है कि उससे इस बात के साफ़ संकेत हैं कि मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे विपक्ष के संपर्क में रहे विधायकों और उनकी बगावत की आशंका को समझ नहीं पाए.
एक सवाल ये भी है कि महाविकास अघाड़ी की सरकार में गृह विभाग शरद पवार की पार्टी एसनीसी के पास है. तो क्या एनसीपी के पास बग़ावत की सुगबुगाहट की ख़बर थी?
इतनी बड़ी संख्या में विधायक और मंत्री महाराष्ट्र की सीमा पार करके गुजरात पुहंचे. ये समझ से परे है कि शरद पवार जैसे मंजे हुई सियासी खिलाड़ियों तक ये ख़बर क्यों और कैसे नहीं पहुँची.
क्या उद्धव और शिंदे में हुई थी बात?
सुधीर सूर्यवंशी महाराष्ट्र के वरिष्ठ पत्रकार हैं. उन्होंने महाविकास अघाड़ी के नाटकीय गठन और सरकार बनाने पर चेकमेट नाम की किताब लिखी है.
सूर्यवंशी कहते हैं, "मुझे जितना मालूम है, उद्धव ठाकरे को इस विद्रोह के बारे में छह महीने से मालूम था. जो भी नेता आज बाग़ी हैं, वो ठाकरे से मिले थे क्योंकि उनके ख़िलाफ़ केंद्रीय जांच एजेंसियों पर लगातार दवाब पड़ रहा था. अब बीजेपी भारत की वित्तीय राजधानी को भी कंट्रोल करना चाहती है, ऐसे में टकराव तो होना ही था."
"यही कारण था कि शिव सेना का एक गुट बीजेपी के साथ जाना चाहता था. उद्धव मौजूदा गठबंधन से बाहर निकलने का रास्ता नहीं निकाल पा रहे थे. इसलिए विधायकों ने ये रास्ता चुना. उद्धव को इसबात का आभास था और उन्होंने ये मसला अपने हाथ से जानबूझ कर निकलने दिया."
सूर्यवंशी कहते हैं कि एकनाथ शिंदे इतने ताक़तवर नहीं हैं कि वो अपने बूते पर 40 से अधिक विधायकों को अलग कर पाएं. वे कहते हैं, "एकनाथ शिंदे, अजित पवार से अधिक शक्तिशाली तो बिल्कुल नहीं हैं. ये बिना शिव सेना के शीर्ष नेतृत्व के संभव नहीं है. यही कारण है कि मैं मानता हूं कि ये सिर्फ़ एकनाथ शिंदे का ही काम नहीं है."
राजनीतिक पत्रकार दीपक भाटुसे कहते हैं, "लेकिन अब भी बड़ा प्रश्न तो यही है कि उस रात महाराष्ट्र की ख़ुफ़िया एजेंसियां क्या कर रही थीं जब सारे विधायक राज्य छोड़कर गुजरात चले गए थे. इतना कुछ हो रहा था पर क्या गृह मंत्रालय और मुख्यमंत्री कार्यालय को इसकी सूचना थी? ऐसा लगता है कि उन्हें इस विद्रोह का आभास नहीं था. लेकिन ये भी सच है कि एकनाथ शिंदे की नाराज़गी और उनके पाला बदलने की बातें तो आम थीं."
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