जानिए, एसपी-बीएसपी के गठबंधन ने यूपी में बीजेपी को कैसे किया उम्मीदवार या उनकी सीटें बदलने के लिए मजबूर?
नई दिल्ली- यूपी में 2014 का आम चुनाव इसलिए भी जाना जाता है कि मोदी लहर में कई तरह के जातीय समीकरण ध्वस्त हो जाने का दावा किया गया था। लेकिन, बीएसपी-एसपी और आरएलडी के महागठबंधन ने बीजेपी को वहां पिछले चुनाव का फॉर्मूला बदलने के लिए मजबूर कर दिया है। बीजेपी को सबसे बड़ी चुनौती बहुजन समाज पार्टी से मिलने की आशंका है, जो अपना वोट ट्रांसफर करवाने में माहिर मानी जाती है। इसलिए, पार्टी ने अबतक जिन 13 नए चेहरों को मौका दिया है, उनमें से लगभग आधे सुरक्षित लोकसभा क्षेत्रों से ही अपना सियासी भाग्य आजमाने जा रहे हैं।
दलित समीकरण को साधने का चैलेंज
यूपी के लिए बीजेपी ने अब तक जिन 61 उम्मीदवारों के नामों की घोषणा की है, उनमें से 13 नए चेहरे हैं। गौर करने वाली बात ये है कि इनमें से 6 प्रत्याशी अनुसूचित जातियों के हैं। बीजेपी सुरक्षित सीटों पर उम्मीदवारों के नाम बेहद सोच-समझकर इसलिए चुन रही है, क्योंकि उसकी नजर गैर-जाटव दलित वोटों पर है। क्योंकि, माना जाता है कि मायावती की पकड़ मुख्य तौर पर जाटव वोट बैंक पर है, जिन्हें महागठबंधन के किसी भी दल के पक्ष में ट्रांसपर करवा पाने में वो पूरी तरह सक्षम हैं। इसलिए, बीजेपी ने इसबार सुरक्षित सीटों पर उम्मीदवारों के चयन में पूरा एहतियात बरतने की कोशिश की है। मसलन पार्टी ने इसबार 2014 में जीते हुए जिन उम्मीदवारों की जगह नए लोगों को टिकट दिया उनमें हाथरस से राजवीर सिंह बाल्मीकि, शाहजहांपुर से अरुण सागर, हरदोई से जय प्रकाश रावत, मिश्रिख से अशोक रावत, बाराबंकी से उपेंद्र रावत और बहराइच से अक्षयवर लाल गौड़ शामिल हैं। इनमें अरुण सागर को केंद्रीय मंत्री कृष्ण राज का टिकट काटकर चुनाव मैदान में उतारा गया है और गौड़ को सावित्री बाई फुले की जगह लाया गया है, जो बीजेपी को टाटा कह चुकी हैं।
बाकी जगह भी जातीय समीकरण साधने की कोशिश
6 सुरक्षित सीटों के अलावा पार्टी ने 7 और सीटों पर भी उम्मीदवार बदले गए हैं। इनमें भी सिर्फ 1 सीट छोड़कर जातीय समीकरण को पुख्ता रखने की कोशिश की गई है, ताकि महागठबंधन की धार को धीमा किया जा सके। उदाहरण के लिए बीजेपी ने इस दफे कैराना से प्रदीप चौधरी, संभल से परमेश्वर लाल सैनी, फतेहपुर सीकरी से राजकुमार चाहर, बदायूं से संघ मित्रा मौर्य, कानपुर से सत्यदेव पचौरी और इलाहाबाद से रीता बहुगुणा जोशी की उम्मीदवारी पर भरोसा जताया है। वैसे कैराना में बीजेपी उपचुनाव हार गई थी और प्रदीप चौधरी के लिए महागठबंधन के उम्मीदवार को टक्कर देना इसबार भी बहुत बड़ी चुनौती हो सकती है। इसी तरह फतेहपुर सीकरी में कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष राज बब्बर के मुकाबले चाहर की चुनौती भी आसान नहीं रहने वाली। एसपी के गढ़ संभल में 2014 के उम्मीदवार की जगह राज्य की उपमुख्यमंत्री की बेटी संघ मित्र मौर्य धर्मेंद्र यादव को कितनी कठिन चुनौती दे पाएंगी यह कहना मुश्किल है। कानपुर में बुजुर्ग नेता और प्रभावी ब्राह्मण चेहरे मुरली मनोहर जोशी की दावेदारी की भरपाई की जिम्मेदारी दूसरे ब्राह्मण उम्मीदवार पचौरी के कंधों पर ही डाली गई है। वे इसी लोकसभा सीट के गोविंदपुर विधानसभा क्षेत्र से तीन बार विधायक रह चुके हैं। इसी तरह इलाहाबाद सीट पर आखिरी समय में पार्टी ने एक और ब्राह्मण प्रत्याशी रीता बहुगुणा जोशी पर दांव खेला है। यहां से पिछली बार पार्टी के सांसद चुने चुने गए श्याम चरण गुप्ता अब समाजवादी पार्टी की टिकट पर बांदा से चुनाव लड़ रहे हैं।
अलबत्ता रामपुर में उम्मीदवार चुनने में जातीय समीकरण नजर नहीं आता है और इसमें जीतने की संभावना को प्राथमिकता दी गई है। यहां समाजवादी पार्टी के आजम खान के सामने मौजूदा सांसद नेपाल सिंह की जगह पूर्व सांसद जया प्रदा के चेहरे ने मुकाबले को काफी दिलचस्प बना दिया है। दरअसल, इन दोनों नेताओं की सियासी दुश्मनी खूब सुर्खियां बटोरती रही हैं। गौरतलब है कि इस सीट पर वो आजम के अंदरूनी विरोध के बावजूद भी 2009 में चुनाव जीत चुकी हैं। खासबात ये है कि उस दौरान दोनों समाजवादी पार्टी में ही थे।
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पुराने चेहरे को बनाए रखने की मजबूरी
बीजेपी के अबतक घोषित 61 उम्मीदवारों में 79% यानि 48 उम्मीदवार पुराने चेहरे ही हैं। वैसे तो पार्टी ने जातीय गणित और बुजुर्गों की जगह युवाओं को आगे लाने के लिए यहां चेहरे जरूर बदले हैं, लेकिन दूसरे राज्यों की तरह एंटी-इनकंबेंसी के नाम पर टिकट काटने से परहेज किया है। क्योंकि, पार्टी इस डर से फूंक-फूंक कर कदम रख रही है कि कहीं बागी पहले से ही कठिन चुनाव को और भी मुश्किल न बना दें। इस बहाने पार्टी यह भी संदेश दे सकती है कि राज्य में उसके अधिकतर सांसदों के खिलाफ कोई नाराजगी नहीं है। वैसे एक लाइन में पूछा जाय कि इतना समीकरण बनाने के बाद भी क्या बीजेपी ने महागठबंधन के जातीय अंकगणित को पाट लिया है, तो ऐसा लगता नहीं है। ऐसे में देखने वाली बात होगी कि क्या उत्तर प्रदेश में बीजेपी 2019 में भी 2014 को दोहरा पाएगी?