नज़रिया: 'जेल में रहें या बेल पर, लालू की सियासी हैसियत हाशिये पर नहीं'
चारा घोटाले से जुड़े एक मामले में सीबीआई कोर्ट ने लालू यादव को दोषी करार दिया है.
लालू यादव जेल में हों या बेल पर हों, अब लगता नहीं कि इस कारण बिहार में उनकी सियासी हैसियत हाशिये पर चली जाएगी.
कोई अन्य कारण उन पर भारी पड़ जाएँ तो बात अलग है.
चारा घोटाले के ही एक अन्य मामले में लालू यादव का सज़ायाफ़्ता होना उनकी सियासत के लिए नुक़सानदेह कहाँ साबित हुआ?
राज्य विधानसभा में उन्हीं की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) के सदस्यों की संख्या सबसे ज़्यादा है.
चुनाव लड़ने से प्रतिबंधित लालू अपने जनाधार को फिर से अपने पक्ष में सक्रिय करके दिखा चुके हैं.
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सियासी विरासत
यानी चारा घोटाले में जेल या सज़ा के बुरे असर को बेअसर करने में वो कामयाब हुए.
इतना ही नहीं, एक बार और सत्ता का मौक़ा हाथ में आते ही लालू यादव ने अपने पुत्र तेजस्वी यादव को उपमुख्यमंत्री बनवा लिया.
इस तरह तेजस्वी को अपने उत्तराधिकारी के रूप में सियासी विरासत सौंपना आज उनके काम आ रहा है.
लालू अब इसलिए भी ज़्यादा चिंतित नहीं हैं कि उनकी ग़ैरमौजूदगी में आरजेडी को नेतृत्व देने जैसा मसला नहीं रहा.
वैसे भी पिछली बार की तरह देर-सबेर ज़मानत उन्हें मिल ही जाएगी. तबतक तेजस्वी की थोड़ी और ट्रेनिंग हो जाएगी.
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आरजेडी के हक़ में...
पार्टी के वरिष्ठ नेता रघुवंश प्रसाद सिंह, जगतानंद और अब्दुल बारी सिद्दीक़ी सब संभाल लेंगे, ऐसा भरोसा ख़ुद लालू प्रसाद ज़ाहिर कर चुके हैं.
लेकिन उनके भरोसे की सबसे ख़ास वजह कुछ और ही है.
बिहार के मौजूदा सियासी हालात ऐसे बने हैं कि यादव-मुस्लिम समीकरण वाली वही पुरानी युगलबंदी फिर से आरजेडी के हक़ में उभार पर दिख रही है.
यहाँ के अधिकांश यादवों और मुसलमानों में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के प्रति उफनता हुआ रोष किसी से छिपा नहीं है.
इसलिए समझा जाता है कि चारा घपले के सिलसिले में लालू यादव को आठवीं बार जेल भेजा जाना उनके समर्थक वर्ग को प्रभावित नहीं करेगा.
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अदालती फ़ैसला
दरअसल, राजनीति अब ऐसी हो गई है कि भ्रष्टाचार जैसे आपराधिक मामले में जेल जाना नेताओं में कोई शर्मिंदगी पैदा नहीं करती.
इनकी जेल यात्रा को समर्थकों के हुजूम द्वारा शोभा यात्रा की शक्ल में बदलते देखा गया है.
चाहे मामला गंभीर भ्रष्टाचार का ही क्यों न हो, सियासत का कमाल देखिये कि इसे विरोधियों की साजिश, निर्दोष को फँसाने या बदले की भावना वग़ैरह बता कर माहौल अपने अनुकूल बनाने की कोशिशें शुरू हो जाती हैं.
इसी मामले में अगर ग़ौर करें तो पाएँगे कि लालू यादव और उनकी पार्टी के तमाम नेता एक अदालती फ़ैसले का रुख़ दूसरी तरफ़ मोड़ने में जुट गये हैं.
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लालू विरोधी चाल
ज़ोर-शोर से कहा जा रहा है कि यह बीजेपी की लालू विरोधी चाल और जातीय द्वेष का नतीजा है.
ज़ाहिर है कि बुनियादी सच को आसमानी झूठ के बूते हवा में उड़ाने वाली राजनीति प्राय: तमाम राजनीतिक दलों की फ़ितरत-सी हो गयी है.
इसमें बीजेपी, कांग्रेस या कोई भी दल अपवाद हो, ऐसा बिलकुल नहीं है.
संबंधित अदालती फ़ैसले में पूर्व मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र को राहत दिया जाना भी आरजेडी का एक सवालिया नारा बन गया है.
'मिश्रा को बेल तो लालू को जेल क्यों?' स्पष्ट है कि आरजेडी इस नारे को उछाल कर पिछड़ों के बीच अपने आधार को और पुख़्ता करना चाह रही है.
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चारा घोटाला
उधर बीजेपी नेतृत्व और उसके दोबारा मित्र बने नीतीश कुमार का पूरा प्रयास है कि घोटाले में सज़ा का भी फ़ायदा उठाने में जुटे लालू ख़ेमे का पर्दाफ़ाश किया जाय.
इसलिए चारा घपले की पूरी पृष्ठभूमि खोल कर इसमें लालू के कई वर्तमान सहयोगियों को लपेटने वाले बयान बीजेपी की तरफ़ से आ रहे हैं.
तो कुल मिला कर क़िस्सा यही है कि चारा घोटाले से जुड़ी इस ताज़ा मुसीबत का कोई ख़ास असर लालू या बिहार की राजनीति पर फ़िलहाल नहीं दिखता.
लेकिन हाँ, बेनामी संपत्ति से जुड़े मामलों में लालू परिवार की उत्तरोत्तर बढ़ती जा रही मुश्किलें आरजेडी के अंदरूनी हालात पर भारी पड़ सकती हैं.
क्योंकि तब इसमें लालू से ज़्यादा उनके उत्तराधिकारी तेजस्वी का भविष्य दाँव पर होगा.
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