राजभर का बीजेपी से रूठना, धमकाना और फिर मान जाना!
उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की आदित्यनाथ योगी सरकार के पास ख़ुद का ही पर्याप्त बहुमत है लेकिन सहयोगी दलों को खुश रखने की कुछ न कुछ विवशता भी है. केंद्रीय स्तर पर जहां कई छोटे दलों का एनडीए से मोहभंग होता जा रहा है, वहीं उत्तर प्रदेश में इस बगावती तेवर की कमान ओम प्रकाश राजभर ने संभाल रखी है.
उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की आदित्यनाथ योगी सरकार के पास ख़ुद का ही पर्याप्त बहुमत है लेकिन सहयोगी दलों को खुश रखने की कुछ न कुछ विवशता भी है. केंद्रीय स्तर पर जहां कई छोटे दलों का एनडीए से मोहभंग होता जा रहा है, वहीं उत्तर प्रदेश में इस बगावती तेवर की कमान ओम प्रकाश राजभर ने संभाल रखी है.
राजभर की सुहेलदेव समाज पार्टी ने बीजेपी के साथ मिलकर विधानसभा चुनाव लड़ा था और उसके चार विधायक भी चुने गए थे लेकिन सरकार बनने के बाद से ही ओम प्रकाश राजभर सरकार से दो-दो हाथ करते नज़र आते हैं.
दो दिन पहले उनकी नाराज़गी एक बार फिर सामने आई जब उन्होंने सरकार के एक साल पूरा होने पर जश्न में शामिल नहीं हुए.
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राजभर का कहना है, "जश्न जैसा कोई काम सरकार ने नहीं किया है. आज भी राशन कार्ड, पेंशन, शौचालय, आवास आदि के नाम पर रिश्वत ली जा रही है. गरीब रो रहा है. आम जनता की तो छोड़िए, एमपी-एमएलए रो रहा है कि उसकी बात कहीं सुनी नहीं जा रही है."
राजभर का ये भी कहना था कि उनकी और उनकी पार्टी की अनदेखी के चलते ही बीजेपी गोरखपुर में लोकसभा उपचुनाव हार गई.
राजभर इससे पहले भी सरकार से ख़फ़ा हो चुके हैं और एक बार तो उन्होंने धरने पर बैठने का अल्टीमेटम भी दे दिया था लेकिन बाद में वो मान गए थे. हाल की उनकी नाराज़गी को भारतीय जनता पार्टी ने इसलिए भी बहुत गंभीरता से लिया क्योंकि 23 तारीख को होने वाले राज्य सभा चुनाव में उसे राजभर की पार्टी के चार विधायकों की सख़्त ज़रूरत है.
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राजभर ने भी शायद यही मौका देखकर नाराज़गी ज़ाहिर की थी. बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने उन्हें तुरंत दिल्ली बुलाया और अचानक राजभर के बग़ावती तेवर नर्म पड़ गए.
राजभर और उनकी पार्टी को क़रीब से जानने वाले लखनऊ के पत्रकार राजकुमार कहते हैं, "ओम प्रकाश राजभर दरअसल, बीजेपी से कुछ चाहते हैं. 2019 में जहां बेटे के लिए लोकसभा का टिकट पक्का करना चाहते हैं, वहीं आगामी विधान परिषद चुनाव में भी कम से कम एक टिकट चाहते हैं."
हालांकि ओम प्रकाश राजभर ने कुछ दिन पहले बीबीसी से बातचीत में कहा था कि उनकी और उनके कार्यकर्ताओं की लगातार अनदेखी होती है, "हमारा कार्यकर्ता अधिकारियों की बेरुख़ी के बाद हमारे पास आता है, लेकिन हम ख़ुद ही मजबूर हैं. हम मंत्री भले ही हैं लेकिन ज़िले के अधिकारी तक हमारी बात नहीं मानते हैं."
वहीं बीजेपी नेताओं का कहना है कि राजभर की कोई नाराज़गी न तो पहले थी और न ही अब है. पार्टी प्रवक्ता हरीश श्रीवास्तव कहते हैं कि यदि कोई ग़लतफ़हमी है तो इसके लिए मंच है, वहां कहें, जरूर सुनी जाएगी उनकी बात.
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वहीं वरिष्ठ पत्रकार शरद प्रधान कहते हैं कि न सिर्फ़ अभी बल्कि 2019 के लोकसभा चुनाव में भी राजभर को साथ रखना बीजेपी की मजबूरी है.
उनके मुताबिक, "ऐसा न होने पर यदि वो सपा-बसपा शामिल हो गए या फिर कांग्रेस के साथ चले गए तो बीजेपी के हाथ से पूर्वांचल का एक बड़ा समर्थक वर्ग निकल जाएगा और विरोधी पाले में चला जाएगा. निषाद वर्ग पहले से ही दूर हुआ पड़ा है. ये सभी पूरे पूर्वांचल में फैले हैं और राजनीतिक रूप से काफी प्रभावी हैं."
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फ़िलहाल बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने राजभर को आश्वासन दिया है कि 10 अप्रैल को वो लखनऊ आएंगे और सहयोगी दलों की बैठक करेंगे.
ज़ाहिर है, इसमें राजभर की कुछ इच्छाएं या मांगें पूरी हो सकती हैं. लेकिन जानकारों का कहना है कि कि 2019 तक राजभर अभी कई बार रूठेंगे और बीजेपी उन्हें कई बार मनाएगी.
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