एनआरसी मामला: डिटेंशन कैंप से तो छूटे, लेकिन डर से मुक्ति कब
अजित दास के मामले की वजह है उनके माता-पिता का 1960 के दशक में बांग्लादेश से भारत आकर बस जाना.
वैसे, उनकी तरह आए तमाम लोगों के पास अगर नागरिकता के प्रमाण हैं तो उनका नाम एनआरसी में या तो आ चुका है या आगे लिस्ट में आने की संभावना है.
हालांकि अजित दास का कहना है कि उनका जन्म वगैरह भारत में हुआ है और सभी प्रमाण मौजूद हैं, लेकिन पिछली बार सभी दस्तावेज़ नामंज़ूर भी कर दिए गए थे.
एक जानी-पहचानी सड़क पर हम फिर से निकल पड़े थे.
असम के दक्षिणी शहर सिलचर से क़रीब दो घंटे दूर आमराघाट गाँव का सफ़र इस बार कब ख़त्म हुआ पता ही नहीं चला.
इस बार गाँव में घुसते वक़्त दुकानदारों से लेकर सब्ज़ी वालों के चेहरे हमें देखकर मुस्कुरा उठे.
गाड़ी उसी घर के सामने रुकी, जिसमें से पिछली बार एक पत्नी और माँ का सिसकना ही सुनाई पड़ता था, जिसके पड़ोसियों की नज़रें हर मेहमान को बारीक़ी से परखती थीं.
आँगन में छोटे मंदिर के सामने इस बार भी अगरबत्ती जल रही थी और साथ में एक बड़ा सा दीया भी लेकिन इस बार प्रार्थना में शुक्रिया का भाव ज़्यादा और दर्द की टीस कम थी.
29 जुलाई, 2018 को इसी मंदिर में आँसुओं से भरी एक पत्नी प्रार्थना करके पति से मिलने सिलचर सेन्ट्रल जेल गईं थीं. वापसी ख़ाली हाथ हुई थी.
उनके पति की भारतीय नागरिकता पर सवाल उठा था और मामले की सुनवाई कर रही विशेष अदालत (विदेशी ट्राइब्यूनल) ने नोटिस भेज दिया था.
अदालत में हाज़िर न होने के चलते उन्हें सिलचर के डिटेंशेन कैंप में क़ैदी बन दिया गया था.
असम राज्य में पिछले तीन दशकों से विदेशी नागरिकों या 'घुसपैठियों' की पहचान करने की मुहिम जारी है.
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बीबीसी की ख़बर का असर
इस बार बात कुछ और है. भीतर कमरे में अजित दास की गोद में दो बच्चे बैठे बिस्कुट खा रहे थे और बगल में जुतिका दास दोपहर का खाना पका रहीं थी.
एकाएक उठ खड़े हुए अजित दास ने हाथ जोड़ कहा, "बीबीसी को कभी नहीं भूलूंगा, सर. बीबीसी नहीं आया होता तो मैं वहीँ होता."
जुलाई महीने में ही अजित से हमारी मुलाक़ात सिलचर सेंट्रल जेल में हुई थी.
पिछले ढाई महीने से वे जेल के भीतर बने डिटेंशन कैंप में क़ैद थे और हम उनके परिवार के साथ उनसे मिलने गए थे.
अजित का नाम असम के डी-वोटर यानी संदिग्ध वोटर की श्रेणी में है.
1985 से अब तक राज्य में कम से कम 85,000 लोगों के ख़िलाफ़ विदेशी नागरिक होने की शिक़ायत दर्ज की गई हैं.
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इन मामलों की सुनवाई कर रही एक विशेष अदालत (विदेशी ट्राइब्यूनल) ने अजित के नाम का वारंट जारी किया था.
अजित के क़ैद में रहने पर पत्नी जुतिका दास यहाँ से दो घंटे दूर आमराघाट गांव में बच्चों को भी देखती थीं.
किसी तरह परिवार की राशन की दुकान को भी चला रहीं थी जिससे ख़र्चे पूरे हो सकें और वकीलों की फ़ीस का इंतज़ाम भी.
बीबीसी हिंदी की रिपोर्ट के बाद दक्षिण असम के कछार प्रांत में अजित दास पहले ऐसे व्यक्ति थे, जिन्हें डिटेंशन कैंप से ज़मानत पर रिहा किया गया.
गांव लौट आए अजित ने कहा, "ज़मानत के बाद जेल से घर तक पहुँचते हुए रात हो चली थी. बच्चे सो चुके थे लेकिन एकाएक मेरी आवाज़ सुन कर जग गए और लिपट कर रोने लगे. उसके बाद से वे मुझे छोड़ते ही नहीं हैं."
अजित की बड़ी बेटी चार साल की है और ऑटिज्म की वजह से उसका जीवन मुश्किल है. ज़मानती आदेश में इस बात का ज़िक्र है कि अब अजित अपने बेटी का रुका हुआ इलाज शुरू करा सकते है.
अजित ने आगे बताया, "जब पुलिस मुझे पकड़ कर ले गई थी तब बेटी ने देख लिया था. आज वो किसी भी वर्दी वाले को देख कर घबरा जाती है और ज़ोर-ज़ोर से रोने लगती है".
जुतिका की मुश्किलें
अजित की मुश्किलों के बीच जिस इंसान ने ज़बरदस्त हिम्मत दिखाई है, यकीनन वे उनकी पत्नी जुतिका हैं.
हालांकि दिक्कतें अभी भी हैं. पति की कानूनी लड़ाई के अलावा नई मुसीबत ये है कि उनके दोनों बच्चों की भारतीय नागरिकता भी ख़तरे में है.
जुतिका ने बताया, "बेटी का इलाज दोबारा शुरू हो गया है. अगली चुनौती कर्ज़ चुकाने की है जो क़ानूनी प्रक्रिया के लिए लिया था. पति अब दुकान पर बैठने लगे हैं लेकिन हर एक दो दिन पर कोई बुरा सपना देख लेती हूँ. कब ख़त्म होगा ये सब, पता नहीं. डर इस बात का भी है कि कहीं आगे चल कर पति-बच्चे देश से खदेड़ न दिए जाएं".
जुतिका के माता-पिता और उनके भाई ने भी इस दौर में उन्हें उधार दिया था जिसे अब वो वापस करना चाहती हैं.
उन्होंने कहा, "बीबीसी हिंदी पर इस ख़बर को देख कर कोलकाता से मेरे पास तीन संस्थाओं की मदद को पेशकश आ चुकी है."
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नागरिक रजिस्टर
30 जुलाई, 2018 को नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) का फ़ाइनल ड्राफ़्ट जारी हुआ है.
असम के 40 लाख लोगों के नाम इस लिस्ट में शामिल नहीं हैं, इनमें हिंदू-मुसलमान, बंगाली-बिहारी सभी हैं.
अजित दास के मामले की वजह है उनके माता-पिता का 1960 के दशक में बांग्लादेश से भारत आकर बस जाना.
वैसे, उनकी तरह आए तमाम लोगों के पास अगर नागरिकता के प्रमाण हैं तो उनका नाम एनआरसी में या तो आ चुका है या आगे लिस्ट में आने की संभावना है.
हालांकि अजित दास का कहना है कि उनका जन्म वगैरह भारत में हुआ है और सभी प्रमाण मौजूद हैं, लेकिन पिछली बार सभी दस्तावेज़ नामंज़ूर भी कर दिए गए थे.
ज़ाहिर है, जिन लाखों लोगों के नाम एनआरसी में नहीं आए हैं उनके भीतर इस बात को लेकर डर ज़रूर है कि आगे क्या होगा.
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सरकार ने इस बात का भरोसा दिलाया है कि किसी के ख़िलाफ़ फ़िलहाल कोई क़दम नहीं उठाया जाएगा.
सभी को सितंबर के अंत तक दोबारा दस्तावेज़ जमा करने का मौक़ा भी दिया गया है.
जिन दस्तावेज़ों को जमा करना है, उनमें से किसी एक से ये प्रमाणित होना ज़रूरी है कि जमा करने वाले या उनके पूर्वजों का नाम 1951 के एनआरसी में या 24 मार्च 1971 तक के किसी वोटर लिस्ट में मौजूद था.
इस बीच असम के इस छोटे से गांव में जुतिका और अजित दास के बच्चे इन दिनों इस बात से ही खुश हैं कि पापा घर वापस लौट आए हैं.
जुतिका के मुताबिक़, "महीनों पिता को न देखने की वजह से बच्चे अब उन्हें घर से सटी हुई दुकान तक में नहीं जाने देते. ये सोच के मन डर भी जाता है कि लाखों ऐसे परिवार असम में मौजूद हैं जिनके ऊपर इस तरह की तलवार लटक रही है. बस एक ही ख़ुशी है कि पति ज़मानत पर क़ैद से छूट गए."
ये ख़ुशी कब तक की है, इसका पता किसी को नहीं.
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