आखिर क्यों टालना पड़ा त्रिपुरा ईस्ट में तय तिथि पर मतदान
नई दिल्ली। चुनाव हैं तो चुनाव आयोग वाजिब कारणों पर किसी भी क्षेत्र में मतदान स्थगित कर सकता है और उसे ऐसा करना भी चाहिए। अभी त्रिपुरा ईस्ट और वेल्लोर में मतदान स्थगित किया गया है। तमिलनाडु की वेल्लोर सीट पर वहां की एक प्रमुख पार्टी डीएमके प्रत्याशी के कार्यालय से काफी मात्रा में कैश बरामद होने और केस दर्ज किए जाने के बाद तथा चुनाव आयोग की सिफारिश के बाद राष्ट्रपति की मंजूरी मिलने पर मतदान पर रोक लगा दी गई। एक दूसरे मामले में त्रिपुरा ईस्ट सीट पर पर भी मतदान रोक दिया गया है।
18 अप्रैल को होना था मतदान
वेल्लोर और त्रिपुरा ईस्ट पर 18 अप्रैल को मतदान होना तय था। त्रिपुरा ईस्ट के बारे में चुनाव आयोग की ओर से कहा गया है कि खराबकानून व्यवस्था की वजह से ऐसा किया गया है। इस सीट पर अब 23 अप्रैल को मतदान कराया जाना तय किया गया है। इस सीट के बारे में आयोग का यह भी कहना है कि वहां कानून व्यवस्था ऐसी नहीं रह गई है कि निष्पक्ष और स्वतंत्र चुनाव कराया जा सके। इसलिए मतदान टालना पड़ा।
इनमें से वेल्लोर का मामला तो एक तरह से साफ लगता है। लेकिन त्रिपुरा का मामला कुछ जटिल लगता है। त्रिपुरा ईस्ट सीट पर मतदान टालने के बारे में कुछ अन्य चीजों के बारे में भी जान लेना हालात को समझने के लिहाज से आसान बना सकता है। त्रिपुरा बीते करीब ढाई दशक से वामदलों के आधिपत्य वाला राज्य रहा है। वहां कम्युनिस्टों की सरकार रही है। वामदलों ने वहां कांग्रेस से सत्ता से छीनी थी। इस तरह राज्य में दूसरी सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस रही है। इसी बीच राज्य में लगातार भाजपा भी अपनी स्थिति मजबूत करने में लगी रही है। यह अलग बात है कि उसे अपेक्षित सफलता नहीं मिल पा रही थी। बीते लोकसभा चुनाव में भी भाजपा मानकर चल रही थी कि उसे कुछ सफलता जरूर मिलेगी, लेकिन ऐसा नहीं हो सका था। राज्य के विधानसभा चुनाव में जरूर उसे बड़ी सफलता मिली, जब उसने वामदलों की सत्ता को उखाड़ फेंका और अपनी सरकार बना ली। यह कुछ-कुछ उसी तरह रहा जिस तरह एक और वाम गढ़ पश्चिम बंगाल में कभी तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) ने कम्युनिस्टों से सत्ता छीन ली थी। इस वामदल वाले राज्य में सत्ता पाने के बाद इस लोकसभा चुनाव में भी भाजपा खुद को काफी मजबूत महसूस कर रही है और उसकी पूरी कोशिश राज्य की दोनों सीटें जीतकर एक नया रिकॉर्ड बनाना चाहती है।
वेल्लोर सीट पर चुनाव रद्द करने के EC के फैसले पर रोक की याचिका मद्रास HC में खारिज
2014 में दोनों सीटें जीती थी लेफ्ट
अगर पिछले लोकसभा चुनाव के परिणामों पर नजर डाली जाए, तो पता चलता है कि त्रिपुरा की दोनों सीटों पर वामदलों को जीत मिली थी। पिछले 2014 के लोकसभा चुनाव में त्रिपुरा पश्चिम सीट पर माकपा प्रत्याशी शंकर प्रसाद दत्ता को जीत मिली थी। त्रिपुरा ईस्ट सीट पर भी माकपा के ही जितेंद्र चौधरी विजयी रहे थे। उस चुनाव में कांग्रेस ही माकपा की मुख्य प्रतिद्वंद्वी रही थी। विधानसभा चुनाव में जीत के बाद से उत्साहित भाजपा इस चुनाव में हरसंभव कोशिश में लगी है कि उसे जीत हासिल हो। वामदलों का आरोप है कि इसके लिए पार्टी हिंसा तक का सहारा ले रही है। पहले चरण में 11 अप्रैल को त्रिपुरा पश्चिम सीट पर हुए मतदान के दौरान राजनीतिक हिंसा की वारदातें हुईं। बूथों पर कब्जा करने और राजनीतिक कार्यकर्ताओं के साथ मारपीट करने तक की शिकायतें की गईं। यह भी कहा गया कि सुरक्षाबलों की भी पर्याप्त व्यवस्था नहीं की गई थी। सीसीटीवी कैमरों के साथ भी छेड़छाड़ के आरोप लगाए गए। इसे विपक्ष ने बड़ा मुद्दा बनाया और चुनाव आयोग से इसकी शिकायत भी की।
इतना ही नहीं, माकपा ने दिल्ली में धरना दिया और चुनाव आयोग से निष्पक्ष और स्वतंत्र मतदान कराने की पुख्ता करने की अपील की। माकपा की ओर से दिल्ली स्थित जंतर मंतर पर धरना दिया गया। माकपा की ओर से त्रिपुरा पश्चिम के 1679 बूथों में से 460 पर फिर से मतदान कराए जाने की मांग भी है। माकपा नेता सीताराम येचुरी का आरोप है कि लोगों को मतदान करने के अधिकार से वंचित किया जा रहा है जो लोकतंत्र के लिहाज से बहुत ही खराब स्थिति है। उनका यह भी आरोप है कि उनके प्रत्याशियों को सुरक्षा तक नहीं मुहैया कराई गई। इतना ही नहीं, पोलिंग एजेंटों को भी मारपीट कर बूथों से बाहर कर दिया गया। भले ही इन आरोपों में सच्चाई कम हो, लेकिन अब जब खुद चुनाव आयोग कानून व्यवस्था का हवाला देकर दूसरी सीट पर मतदान स्थगित कर रहा है, तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि पहले चरण के मतदान को लेकर लगाए जा रहे आरोप सिरे से खारिज नहीं किए जा सकते।
त्रिपुरा में राजनीतिक हिंसा का इतिहास
त्रिपुरा में राजनीतिक हिंसा का भी अपना इतिहास रहा है। इस राज्य में माकपा, कांग्रेस और भाजपा के कार्यकर्ताओं के बीच हिंसा कोई नई बात नहीं रही है। माना जाता है कि जब भी जिसको मौका मिलता है, एक दूसरे के कार्यकर्ताओं को हिंसा का शिकार बनाया जाता रहा है। सभी पार्टियां एक दूसरे पर हिंसा को लेकर आरोप-प्रत्यारोप भी लगाती रही हैं। अभी बीते मार्च में ही भाजपा प्रत्याशियों पर माकपा कार्यकर्ताओं के हमले को लेकर शिकायतें की गई थीं। बीते साल नवंबर में माकपा नेताओं के एक प्रतिनिधिमंडल ने मुख्यमंत्री बिप्लब देव से मिलकर बढ़ती हिंसा की वारदातों पर प्रभावी रोक लगाने की मांग भी की थी।
इस चुनाव के दौरान भी इस आशय की आशंकाएं पहले से व्यक्त की जा रही थीं कि हिंसक वारदातें हो सकती हैं। चुनाव आयोग को भी इसका आभास अवश्य रहा होगा तभी उसकी ओर से दो सीटों पर दो चरणों पर मतदान की व्यवस्था की गई थी ताकि हिंसक वारदातों से आसानी से निपटा जा सके। इसके बावजूद ऐसा नहीं हो पाया और शिकायतें बढ़ती गईं। आखिरकार हालात की गंभीरता को समझते हुए एक सीट पर मतदान को टालना पड़ा है। उम्मीद की जा सकती है कि चुनाव आयोग इस दौरान शिकायतों का निवारण भी कर लेगा और अगले चरण के मतदान में किसी तरह की शिकायत न रहने पाए, इसका पुख्ता इंतजाम कर लिया जाएगा।