झारखंड: इस चुनाव में कई गढ़ ढहे, कई मिथक टूटे
नई दिल्ली। लोकसभा चुनाव की गहमा-गहमी परिणाम की घोषणा के साथ ही खत्म हो गयी है। राजनीतिक रूप से बेहद संवेदनशील और कभी राजनीति की प्रयोगशाला कहे जानेवाले झारखंड की 14 संसदीय सीटों के परिणाम आ चुके हैं और पूरे देश की तरह यहां भी मोदी की सुनामी में विपक्षी दल पूरी तरह तबाह हो गये। राज्य में भाजपा ने 11 और उसकी सहयोगी आजसू ने एक सीट पर कब्जा जमाया, तो कांग्रेस ने एक सीट पर दर्ज की, जबकि झामुमो ने अपनी एक सीट बचाने में कामयाबी हासिल की। पिछले चुनाव के मुकाबले सीटों की संख्या के हिसाब से एनडीए और यूपीए को कोई नफा-नुकसान नहीं हुआ, लेकिन इस बार एक अंतर यह रहा कि झामुमो अपने गढ़ दुमका को बचा नहीं पाया, जबकि भाजपा सिंहभूम सीट खो बैठी। दुमका पर भाजपा का कब्जा हुआ, तो सिंहभूम पर कांग्रेस ने कब्जा जमाया। लेकिन इस चुनाव ने झारखंड के राजनीतिक दलों को एक साथ कई संदेश दिये हैं।
आजसू का लोकसभा में प्रवेश
इस चुनाव ने झारखंड आंदोलन की कोख से उपजी आजसू पार्टी के लिए लोकसभा का दरवाजा खोल दिया है। इस पार्टी ने भाजपा से तालमेल कर गिरिडीह सीट पर चुनाव लड़ा और उसके उम्मीदवार चंद्रप्रकाश चौधरी करीब 2.40 लाख मतों के अंतर से चुनाव जीते। उन्होंने झामुमो के जगरनाथ महतो को हराया। राज्य बनने के बाद से ही आजसू हमेशा झारखंड के पक्ष का हिस्सा रही है, लेकिन इस बार उसने पहली बार तालमेल के तहत लोकसभा का चुनाव लड़ा और जीता। इस जीत ने जहां आजसू को एक ताकतवर राजनीतिक दल के रूप में स्थापित किया, वहीं यह बात भी स्थापित हो गयी कि झारखंड की सबसे ताकतवर जाति कुरमी का बड़ा तबका इसके साथ है।
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झामुमो के लिए खतरे की घंटी
इस चुनाव ने राज्य की सबसे पुरानी और ताकतवर क्षेत्रीय पार्टी झारखंड मुक्ति मोर्चा के लिए खतरे की घंटी बजा दी है। झामुमो ने यूपीए में शामिल होकर चार संसदीय सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे। इनमें दुमका से उसके कद्दावर नेता शिबू सोरेन, राजमहल से विजय हांसदा, जमशेदपुर से चंपाई सोरेन और गिरिडीह से जगरनाथ महतो शामिल थे। दुमका सीट शिबू सोरेन और झामुमो का मजबूत किला माना जाता था। लोग कहते थे कि वहां शिबू सोरेन, जिन्हें संथाल परगना के लोग दिशोम गुरु (ऐसा अवतार, जो हर पल हर जगह मौजूद रहता हो) कहते हैं, का नाम ही चलता है। लेकिन इस बार भाजपा के सुनील सोरेन ने यह मिथक तोड़ दिया। पिछली बार मोदी लहर में भी शिबू सोरेन ने यहां से जीत दर्ज की थी, लेकिन इस बार वह अपना यह अभेद्य किला नहीं बचा सके और करीब 22 हजार मतों से हार गये। राजमहल से विजय हांसदा ने अपनी सीट जरूर बचा ली, लेकिन इसका श्रेय कहीं से भी पार्टी को नहीं जाता है, बल्कि उनकी जीत के पीछे उनके पिता थॉमस हांसदा, जो संथाल परगना में कांग्रेस का चेहरा थे, के काम-नाम रहे। जमशेदपुर और गिरिडीह से झामुमो प्रत्याशी कोई टक्कर दे ही नहीं सके।
झामुमो के सामने अब चुनौती इस बात की है कि अगले छह महीने के भीतर राज्य में होनेवाले विधानसभा चुनाव में वह क्या रणनीति अपनाती है। अब तक आदिवासियों, कुरमियों और पिछड़ों को अपना आधार माननेवाले झामुमो को यह आभास हो गया है कि यह वर्ग अब उसका नहीं रहा। इतना ही नहीं, शिबू सोरेन की हार के साथ ही यह बात भी स्थापित हो गयी कि झामुमो को नया खेवनहार चाहिए, क्योंकि शिबू की उम्र अब राजनीति की नहीं रही। ऐसे में हेमंत सोरेन, जो विधानसभा चुनाव में यूपीए की कमान संभालेंगे, कैसे इस संकट से झामुमो को उबारते हैं, यह देखना दिलचस्प होगा।
वोट बैंक और जातीय समीकरण को ना
इस चुनाव ने एक और बात स्थापित कर दी कि झारखंड में अब वोट बैंक और जातीय समीकरणों की राजनीति नहीं चलेगी। आदिवासी, इसाई और मुसलमान अब न तो वोट बैंक बनने के लिए तैयार हैं और न ही जातीय गोलबंदी ही किसी दल के काम आ सकी। कोडरमा से झारखंड विकास मोर्चा अध्यक्ष बाबूलाल मरांडी पर अन्नपूर्णा देवी की रिकॉर्डतोड़ जीत, लोहरदगा से कांग्रेस के सुखदेव भगत पर भाजपा के सुदर्शन भगत की जीत और खूंटी में भाजपा के अर्जुन मुंडा की कांग्रेस के कालीचरण मुंडा पर विजय ने साबित कर दिया है कि अब न तो इसाई वर्ग कांग्रेस का वोट बैंक है और न ही आदिवासियों पर झामुमो-कांग्रेस का एकाधिकार रहा। इतना ही नहीं, पलामू से राजद के घूरन राम पर भाजपा के वीडी राम की जीत और चतरा से राजद के सुभाष यादव और कांग्रेस के मनोज यादव पर भाजपा के सुनील सिंह की विजय ने यह मिथक तोड़ दिया कि जातीय आधार पर गोलबंदी से चुनाव जीता जा सकता है। इसी तरह सिंहभूम से कांग्रेस की गीता कोड़ा की भाजपा के लक्ष्मण गिलुआ पर और गोड्डा में भाजपा के निशिकांत दुबे की झाविमो के प्रदीप यादव पर जीत ने साफ कर दिया कि मतदाताओं का हर वर्ग अब दल नहीं, काम देखता है।
आयातित उम्मीदवारों को जगह नहीं
धनबाद में कांग्रेस के कीर्ति आजाद को उतारा था, लेकिन वहां के लोगों ने इस आयातित उम्मीदवार को पूरी तरह नकार दिया। उन्होंने भाजपा के पशुपति नाथ सिंह को करीब सवा चार लाख मतों के अंतर से जिताया। ठीक इसी तरह हजारीबाग में भी कांग्रेस ने गोपाल साहू को भेजा था, लेकिन भाजपा के जयंत सिन्हा ने उन्हें करारी मात दी। चतरा से राजद के सुभाष यादव की भी यही दुर्गति हुई। इससे साफ हो गया है कि झारखंड में पैदा हुए लोग, जिन्होंने इस बार पहली बार वोट डाला, अब किसी आयातित नेता को समर्थन नहीं देंगे।
कुल मिला कर इस चुनाव ने झारखंड में सभी दलों के लिए कोई न कोई सीख छोड़ी है। साथ ही एक चेतावनी भी कि यदि इन सीखों पर ध्यान नहीं दिया गया, तो यहां के मतदाता अब किसी को भी खारिज कर सकते हैं। इसलिए यहां के राजनीतिक दलों को चाहिए कि वे जल्दी से जल्दी इन संकेतों पर ध्यान दें, रणनीति बदलें और लोगों की भावनाओं का सम्मान करें, अन्यथा झारखंड का मतदाता अब किसी को बख्श देने के मूड में नहीं है।
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