दिल्ली में भाजपा की हार के 5 बड़े कारण जानिए
नई दिल्ली- दिल्ली में भाजपा पिछले 20 साल से सत्ता से दूर है और अगले 5 साल के लिए भी उसकी उम्मीदों पर पानी फिर गया है। यह चुनाव भाजपा की साख के लिए बहुत ही अहम था। पार्टी ने चुनाव जीतने के लिए अपनी ताकत झोंक दी थी। बीजेपी शासित प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों, पार्टी के सांसदों, केंद्रीय मंत्रियों की पूरी फौज दिल्ली की गलियों से लेकर झुग्गी-झोपड़ियों तक में उतार दी थी। खुद अमित शाह ने 60 से ज्यादा रैलियां कीं। बावजूद इसके पार्टी आम आदमी पार्टी और अरविंद केजरीवाल से मुकाबला नहीं कर सकी तो इसके मुख्य तौर पर 5 कारण गिनाए जा सकते हैं। ये वो कारण हैं, जिन पर आने वाले प्रदेश चुनावों में पार्टी जरूर गौर फरमाने की कोशिश करेगी। आइए समझते हैं उन पांच बड़े कारणों को जिसने बीजेपी की दिल्ली में भारी फजीहत करा दी है।
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प्रचार का कोई 'प्लान बी' नहीं था तैयार
बीजेपी 2014 के लोकसभा चुनाव से प्रचार के जिस ढर्रे पर चल रही है, उसमें दिल्ली चुनाव को लेकर भी उसने कोई बदलाव नहीं किया। भाजपा ने यहां भी वही हिंदुत्व, पाकिस्तान विरोध, मोदी की शख्सियत के जलवे और वीआईपी नेताओं से रोड शो कराकर हवा बनाने की कोशिश पर ही आंख मूंद कर भरोसा किया। पार्टी ने इस चुनाव में भी अपनी इस रणनीति में किसी बदलाव पर विचार नहीं किया। जबकि, यहां उसका सामना मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और उनकी आम आदमी पार्टी के साथ था, जो दिल्ली की जनता के मन में काम करने वाले नेता और पार्टी की धारणा बनाने में कामयाब रहे हैं। इस चुनाव में केजरीवाल ने बहुत ही चतुराई से हिंदुत्व के बगैर राष्ट्रवाद का भी चोला ओढ़ लिया और फिर बहुत ही सावधानी से खुद को आम हिंदू के तौर पर पेश करने में सफलता पा ली। लेकिन, आम आमी पार्टी और केजरीवाल की बीच चुनाव प्रचार के दौरान इस बदली रणनीति की काट के लिए भाजपा नेताओं के पास कोई प्लान बी तैयार नहीं था। पार्टी यह सोचती रह गई कि केजरीवाल उसकी पिच पर बैटिंग के लिए मजबूर हुए हैं, लेकिन दरअसल केजरीवाल ने अपनी रणनीति बदलकर भाजपा की बिछाई बिसात पर ही पानी फेरने का काम कर दिया।
केजरीवाल मॉडल की काट की नहीं थी तैयारी
2014 के लोकसभा चुनावों से पहले ही गुजरात मॉडल की चर्चा पूरे देश में थी। लोकसभा में पीएम उम्मीदवार बनने से पहले ही नरेंद्र मोदी की शख्सियत का पूरे देश में डंका बज रहा था। इसके लिए बीजेपी ने 2012 से ही मेहनत करनी शुरू कर दी थी। कुछ उसी तर्ज पर आम आदमी पार्टी ने 2018 से ही मोहल्ला क्लीनिक और दिल्ली के स्कूलों में क्रांतिकारी बदलावों के दावों की बात जनता के मन-मस्तिष्क में बिठानी शुरू कर दी थी। दिल्ली में कायापलट करने के केजरीवाल के इन दावों का जवाब देने के लिए बीजेपी ने विधानसभा चुनाव की घोषणा तक कोई खास तैयारी नहीं की थी। ऊपर से मुफ्त बिजली-पानी और महिलाओं के लिए मुफ्त यात्राओं की सुविधाएं देकर उन्होंने मीडिल क्लास के घर-घर में अपनी पैठ बना रखी थी। केजरीवाल लगातार दो साल से खुद को दिल्ली के लिए बतौर विकास पुरुष पेश करने में कामयाब रहे। जबकि भाजपा दिल्ली चुनाव में भी मोदी के करिश्में के भरोसे ही किसी चमत्कार होने की उम्मीद में निश्चिंत बैठी रही। बीजेपी दिल्ली के स्कूलों का स्टिंग ऑपरेशन लेकर मैदान में आई भी, लेकिन तबतक उससे दिल्ली काफी दूर हो चुकी थी।
भाजपा की उम्मीदों पर खरी नहीं उतरी कांग्रेस
बीजेपी इस उम्मीद में बैठी रही कि अगर कांग्रेस ने लोकसभा चुनावों की तरह ही दिल्ली के मुकाबले को त्रिकोणीय बनाया तो उसकी गाड़ी चल पड़ेगी। लेकिन, इस बार दिल्ली चुनाव या तो कांग्रेस लड़ ही नहीं रही थी या उसने ऐसी रणनीति ही बनाई थी। पार्टी किसी भी क्षेत्र में लड़ाई में नहीं दिखी। जिन तीन सीटों पर पार्टी के उम्मीदवारों की जमानतें बची हैं, वहां भी पार्टी कम और उम्मीदवारों की भूमिका ही ज्यादा अहम रही है। भाजपा के भरोसे के विपरीत कांग्रेस और उसकी सहयोगी आरजेडी 67 सीटों पर जमानतें भी नहीं बचा सकी। कांग्रेस के उम्मीदवारों की दिक्कतें ये थीं कि उन्हें पार्टी हाई कमान का भी समर्थन नहीं मिल पाया तो वो वोटरों को कहां तक रिझा पाते। आरजेडी का तो हाल ये रहा कि उसके तीन प्रत्याशियों को नोटा से भी कम वोट मिले। कुल मिलाकर बीजेपी जो सोच रही थी, कांग्रेस उसकी वैसी मदद नहीं कर पाई।
केजरीवाल के मुकाबले फेल रहे मनोज तिवारी
2015 के चुनाव किरन बेदी के प्रयोग ने भाजपा को इस कदर डरा दिया था कि वह इस बार मुख्यमंत्री उम्मीदवार का नाम घोषित करने से भाग खड़ी हुई। आम आदमी पार्टी इस मुद्दे बनाकर लगातार उसे चैलेंज करती रही और बीजेपी के पास इसका जवाब नहीं था। ले-दे के उसके पास प्रदेश अध्यक्ष के तौर पर उत्तर-पूर्वी दिल्ली के सांसद मनोज तिवारी का चेहरा था, जो केजरीवाल के मुकाबले कहीं टिक नहीं पाया। मिडिल क्लास के वोटरों में मनोज तिवारी वह जगह नहीं बना सके, जो अपने काम गिनाकर अरविंद केजरीवाल ने बनाया है। इसकी जगह भाजपा ने मोदी सरकार के काम और शाहीन बाग के धरने को भुनाने पर कुछ ज्यादा ही जोर लगा दिया, लेकिन उसकी कोशिशें बेकार साबित हुईं।
बीजेपी से सीखा,बीजेपी पर अपनाया
2014 के लोकसभा चुनाव से जनता में अपनी पैठ बनाने के लिए भाजपा ने जो ट्रिक अपना रखा था, वही तरकीब अब उसकी विरोधी पार्टियों ने भी अपनाना शुरू कर दिया है। बीजेपी ने 2014 से कांग्रेस और उसके नेता राहुल गांधी को निशाने पर लेकर जिस तरह के मीम और सोशल मीडिया का इस्तेमाल किया, वही तरकीब आम आदमी पार्टी ने इस चुनाव में भाजपा और उसके नेता मनोज तिवारी के लिए भी अपनाया। ऊपर से पार्टी नेताओं की ओर से अरविंद केजरीवाल पर निजी हमला करना उसी तरह से भारी पड़ गया, जैसे कि 2014 में नरेंद्र मोदी को कांग्रेस की गलतियों का फायदा मिला था। प्रवेश वर्मा ने केजरीवाल को आतंकी कहा तो केजरीवाल ने खुद को दिल्ली का बड़ा बेटा बताना शुरू कर दिया। नतीजे बताते हैं कि केजरीवाल पर निजी हमला करना भाजपा पर काफी भारी पड़ा है, जिसे उन्होंने बीजेपी की तरह ही अपने पक्ष में मोड़ लिया है।
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