10 साल से खाली हाथ बाबूलाल मरांडी क्या 2019 में भी विधायक बन पाएंगे?
नई दिल्ली। झारखंड के पहले मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी 2009 के बाद कोई चुनाव नहीं जीत पाये हैं। 2019 के विधानसभा चुनाव में भी वे कठिन मुकाबले में फंसे हुए हैं। वे धनवार सीट से मैदान में हैं। इस सीट पर उन्हें तीन मजबूत उम्मीदवारों से चुनौती मिल रही है। इन चुनौतियों को देख कर सवाल पूछा जा रहा है कि क्या बाबूलाल मरांडी को इस बार चुनावी जीत मिल पाएगी ? यहां 12 दिसम्बर को चुनाव है।
बाबूलाल मरांडी 2009 से खाली हाथ
कभी झारखंड के मजबूत नेता माने जाने वाले बाबू लाल मरांडी अब चुनावी जीत के लिए तरस गये हैं। वे लगातार चार चुनाव हार चुके हैं। उन्होंने अपना आखिरी चुनाव 2009 में जीता था। तब वे कोडरमा से सांसद चुने गये थे। कोडरमा से 2004 और 2006 के उपचुनाव में जीत कर लोकसभा पहुंचे थे। 2014 के लोकसभा चुनाव में वे दुमका चले गये जहां शिबू सोरेन ने उन्हें हरा दिया था। 2014 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने धनवार और गिरिडीह से किस्मत आजमायी लेकिन दोनों ही जगह हार गये। 2019 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने कोडरमा से फिर रुठी किस्मत को मनाने की कोशिश की लेकिन कामयाबी नहीं मिली। भाजपा की अन्नपूर्णा देवी ने उन्हें करारी मात दी। बाबूलाल मरांडी उसूलों वाले नेता माने जाते हैं। 2004 में उन्होंने भाजपा के टिकट पर कोडरमा से लोकसभा का चुनाव जीता था। लेकिन भाजपा से विवाद हुआ तो उन्होंने पार्टी और सांसदी दोनों छोड़ दी थी। इस्तीफा देकर उन्होंने कोडरमा से लोकसभा उपचुनाव में ताल ठोकी और फिर जीत हासिल की। यह उनकी लोकप्रियता का चरम काल था। इसके बाद उनका पोलिटिकल ग्राफ नीचे गिरने लगा।
2019 के विधानसभा चुनाव में स्थिति
बाबूलाल मरांडी अपने गृहक्षेत्र धवनार से फिर चुनाव मैदान में हैं। इस बार उन्होंने किसी दल से गठबंधन नहीं किया है। उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती भाकपा माले राज कुमार यादव पेश कर रहे हैं। वे मौजूदा विधायक हैं। माले के कैडर वोटों से राज कुमार हर चुनाव में दमदार प्रदर्शन करते रहे हैं। 2014 में तो वे जीते ही इसके पहले भी वे दो बार दूसरे स्थान पर रहे थे। यह माले का प्रभाव वाला इलाका है। झामुमो के निजामुद्दीन अंसारी भी मरांडी की राह में एक बड़ा अवरोध हैं। वे पूर्व विधायक रहे हैं। धनवार में मुस्लिम वोट निजमुद्दीन के साथ रहे हैं। राजद के तेजस्वी यादव ने भी उनके लिए प्रचार किया है। इससे यादव वोटर झामुमो की तरफ झुके हुए हैं। इस बार झामुमो ने आदिवासी, मुस्लिम और यादव वोट को अपने पाले में करने के लिए पूरा जोर लगाया है। भाजपा के लक्ष्मण प्रसाद सिंह भी मुकाबले में मजबूती से जमे हैं। उनके लिए केन्द्रीय मंत्री स्मृति ईरानी यहां चुनाव प्रचार कर चुकी हैं। बाबू लाल मरांडी को इन तीन मजबूत उम्मीदवारों से तगड़ी टक्कर मिल रही है। इस बार बाबूलाल केवल धनवार सीट से ही चुनाव लड़ रहे हैं। उनके सामने जीत के लिए कोई दूसरा विकल्प नहीं है। हालंकि 2014 में वे दो सीटों पर लड़ कर भी हार ही गये थे। 2019 में बाबू मरांडी को भरोसा है कि इन चुनौतियों के बाद भी उन्हें ही जीत मिलेगी।
भाजपा छोड़ने के बाद बाबूलाल की स्थिति
बाबू लाल मरांडी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक से भाजपा के नेता बने थे। उनकी वैचारिक पृष्ठभूमि भाजपा से प्रभावित रही है। 2000 में वे झारखंड के पहले मुख्यमंत्री इसलिए बने थे क्यों कि भाजपा को उन पर अगाध भरोसा था। लेकिन मिलीजुली सरकार में जदयू के विरोध के कारण उन्हें अर्जुन मुंडा के लिए सीएम की कुर्सी खाली करनी पड़ी। इसके बाद बाबूलाल भाजपा में असहज महसूस करने लगे। 2006 में उन्होंने भाजपा छोड़ कर झारखंड विकास मोर्चा के नाम से नया दल बनाया। शुरू में तो उनको राजनीति सफलाताएं मिलीं लेकिन धीरे-धीरे वे कमजोर होते चले गये। 2014 के बाद छह विधायकों की टूट ने उनको और कमजोर कर दिया। लगातार चार चुनाव हारने के वजह से मरांडी की छवि और खराब हुई। बाबूलाल मरांडी वह नेता नहीं रहे जो 1998 में थे। 1998 में उन्होंने झारखंड के सबसे मजबूत नेता शिबू सोरेन को दुमका में हरा तक तहलका मचा दिया था। उनके नेतृत्व में भाजपा ने झारखंड क्षेत्र की 12 लोकसभा सीटें जीत कर एक बड़ी कामयाबी हासिल की थी। लेकिन भाजपा से अलग होने के बाद उनकी ताकत पहले जैसी नहीं रही।