किसान आंदोलन पर जस्टिन ट्रूडो का बयान क्या भारत के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप है?
किसानों के आंदोलन पर कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो की टिप्पणी से भारत नाराज़ है और विदेश मंत्रालय ने कड़ी आपत्ति जताई है. लेकिन भारत में कुछ लोग ट्रूडो का समर्थन कर रहे हैं तो कई लोग विरोध.
कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो मंगलवार को भारत में किसान आंदोलन के बीच सबसे ज़्यादा चर्चा में रहे.
मोदी सरकार के नए कृषि क़ानून के ख़िलाफ़ हज़ारों की तादाद में किसान सड़क पर हैं. ट्रूडो ने इन्हीं किसान प्रदर्शनकारियों के साथ भारतीय सुरक्षा बलों के रवैए को लेकर चिंता जताई और कहा है कि उनकी सरकार हमेशा से शांतिपूर्ण विरोध-प्रदर्शन का समर्थक रही है.
ट्रूडो के बयान पर भारतीय विदेश मंत्रालय ने कड़ी आपत्ति जताई. भारतीय विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अनुराग श्रीवास्तव ने ट्रूडो के बयान को अधकचरा और सच्चाई से परे बताया.
भारत के विदेश मंत्रालय ने कहा कि कनाडा के प्रधानमंत्री का बयान ग़ैर-ज़रूरी और एक लोकतांत्रिक देश के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करने जैसा है.
ट्रूडो ने कनाडा में क़रीब पाँच लाख सिखों के लिए गुरु नानक देव की जयंती पर दिए ऑनलाइन संदेश में कहा था कि अगर वो भारत में चल रहे किसानों के प्रदर्शन को नोटिस नहीं करेंगे तो यह उनकी लापरवाही होगी.
जस्टिन ट्रूडो ने कहा था, ''स्थिति चिंताजनक है. हम सभी प्रदर्शनकारियों के परिवार और दोस्तों को लेकर चिंतित हैं. मैं आपको याद दिलाना चाहूंगा कि कनाडा हमेशा से शांतिपूर्ण विरोध-प्रदर्शन के अधिकार को लेकर सजग रहा है. हम संवाद की अहमियत में भरोसा करते हैं. हमने भारत के अधिकारियों से इसे लेकर सीधे बात की है.''
ट्रूडो के बयान पर अनुराग श्रीवास्तव ने कहा कि राजनयिक संवाद को राजनीतिक मक़सद के लिए इस्तेमाल नहीं करना चाहिए.
ट्रूडो के बयान पर भारत में कड़ी प्रतिक्रिया
जस्टिन ट्रूडो के बयान पर भारत में सोशल मीडिया पर पक्ष और विपक्ष में तीखी प्रतिक्रिया आई. सुप्रीम कोर्ट के जाने-माने वकील प्रशांत भूषण ने ट्वीट कर कहा, ''मुझे ख़ुशी है कि कनाडा के प्रधानमंत्री ट्रू़डो ने एक लोकतंत्र में विरोध के अधिकार के पक्ष में बोला. दुनिया भर के नेताओं के लिए यह बहुत अहम है कि वे सभी देशों में लोकतांत्रिक अधिकारों के पक्ष में बोलें. जो कह रहे हैं कि यह आंतरिक मामले में हस्तक्षेप है वो इसे समझ नहीं पा रहे.''
वहीं वरिष्ठ पत्रकार वीर सांघवी ने ट्रूडो के बयान की आलोचना की है. उन्होंने ट्वीट कर कहा, ''किसानों के प्रदर्शन को लेकर मेरा विचार चाहे जो भी हो लेकिन मुझे ट्रूडो का बयान पसंद नहीं आया. जस्टिन ट्रूडो को पता है कि एक देश के नेता के तौर पर उनके बयान से वैश्विक स्तर पर कोई असर नहीं होगा. वो अपने सिख समर्थकों को ख़ुश कर रहे हैं.''
वीर सांघवी ने कहा है, ''भारत में हमारे अपने मतभेद हैं. उदाहरण के तौर पर मैं इस सरकार का प्रशंसक नहीं हूं. लेकिन मैं उस सिद्धांत के साथ हूं कि हम अपने विवाद आतंरिक रूप से हल करेंगे. यह शर्मनाक है कि कई भारतीय हमारे आंतरिक मामलों में पश्चिमी हस्तेक्षप का स्वागत कर रहे हैं क्योंकि उन्हें इस सरकार का विरोध करना है.''
वीर सांघवी का मानना है कि ट्रूडो ने उस सीमा का उल्लंघन किया है कि किसी देश के आंतरिक मामलों को लेकर टिप्पणी नहीं करनी चाहिए. सांघवी कहते हैं, ''दुनिया के ज़्यादातर नेता इस सीमा का सम्मान करते हैं. ट्रूडो ने ठान लिया है कि उन्हें भारत से अच्छे रिश्ते के बजाय अपने देश के सिखों को ख़ुश रखना है. ऐसे में उनके बयान से कोई हैरानी नहीं होती है. भारत की आपत्ति भी स्वाभाविक थी. यहां तक कि भारत की कई राजनीतिक पार्टियों के नेताओं ने ट्रूडो की टिप्पणी से असहमति जताई और कहा कि यह आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप है. भारत के ज़्यादातर नेता जवाहरलाल नेहरू की उस लाइन को अपनाते हैं कि किसी को भी और ख़ासकर पश्चिम को यह कहने का अधिकार नहीं है कि हम अपने आंतरिक मामलों को कैसे आगे बढ़ाएं.''
कांग्रेस की राष्ट्रीय प्रवक्ता शमा मोहम्मद ने भी ट्वीट कर ट्रूडो की टिप्पणी की आलोचना की है. शमा मोहम्मद ने अपने ट्वीट में लिखा है, ''मैं मोदी सरकार के कृषि बिल के ख़िलाफ़ हूं क्योंकि उसने हमारे किसानों को भरोसे में नहीं लिया लेकिन इससे कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो को यह अधिकार नहीं मिल जाता है कि वो हमारे आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करें. हम एक संप्रभु देश हैं और हमें पता है कि अपने मसलों से कैसे निपटना है.''
सोशल मीडिया पर कुछ लोग ये तर्क भी देने लगे कि अगर भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी डोनाल्ड ट्रंप के समर्थन में अबकी बार ट्रंप सरकार कह सकते हैं तो ट्रूडो पर सवाल उठाना कहां तक ठीक है?
पूर्व डिप्लोमैट केसी सिंह ने वरिष्ठ पत्रकार बरखा दत्त के साथ एक टॉक शो में कहा कि जस्टिन ट्रूडो का बयान भारत सरकार की डिप्लोमैटिक नाकामी है.
उन्होंने कहा कि अगर ट्रूडो काल्पनिक खालिस्तानियों के प्रभाव में आ गए हैं तो ये आपका काम है कि ऐसा नहीं होने दें. केसी सिंह ने कहा कि आप कितने देशों में जाकर इससे लड़ेंगे?
केसी सिंह ने कहा, ''आप कनाडा के पीएम को कह रहे हैं कि उन्हें सच्चाई पता नहीं है. सच्चाई तो यही है कि किसान दिल्ली आकर विरोध-प्रदर्शन करना चाहते थे और आपने आने नहीं दिया. ट्रूडो ने तो यही कहा है कि लोगों को विरोध करने का अधिकार है. पिछले छह सालों से मोदी भारतीय प्रवासियों का इस्तेमाल घरेलू राजनीति में कर रहे हैं. ऐसे में उन देशों में रह रहे प्रवासी भारतीयों की भारत में जो कुछ हो रहा है उस पर अपनी राय हो सकती है. ट्रूडो ने यही कहा है कि जो कुछ हो रहा है उसे लेकर उनके परिवार और दोस्त चिंतित हैं. ये बिल्कुल सही बात है कि ट्रूडो ने ग़लत मौक़े पर ये बात कही है. उन्हें ये बार गुरु परब नहीं कहनी चाहिए थी. ट्रूडो ने अमेरिका में कालों के आंदोलन पर भी बोला था. कल की तारीख़ में बाइडन कुछ कहेंगे तो क्या उनसे भी लड़ने जाएंगे?''
सिख अलगाववाद और कनाडा की राजनीति
कनाडा में सिख वोट बैंक की राजनीति मायने रखती है. ट्रूडो की लिबरल पार्टी, कंजर्वेटिव पार्टी और जगमीत सिंह की न्यू डेमोक्रेटिक पार्टी तीनों के लिए सिख वोटर मायने रखते हैं. यहां सिख आबादी पाँच लाख के क़रीब है. भारत और कनाडा के रिश्तों में सिख अलगाववाद या खालिस्तान एक अहम मुद्दा रहा है.
फ़रवरी 2018 में ट्रूडो भारत के सात दिवसीय दौरे पर आए थे. उस दौरे में भी तनाव साफ़ दिखा था. ट्रूडो का दौरा बहुत ही गुमनाम रहा था और भारत सरकार की तरफ़ से कोई ख़ास तवज्जो नहीं दी गई थी. भारतीय और विदेशी मीडिया में यह बात कही गई कि क्षेत्रफल के मामले में दुनिया के दूसरे सबसे बड़े देश कनाडा के पीएम को लेकर भारत ने कोई गर्मजोशी नहीं दिखाई.
सिखों के प्रति उदारता के कारण कनाडाई पीएम को मज़ाक में जस्टिन 'सिंह' ट्रूडो भी कहा जाता है. कनाडा में खालिस्तान विद्रोही ग्रुप सक्रिय रहा है और जस्टिन ट्रूडो पर वैसे समूहों से सहानुभूति रखने के आरोप लगते हैं. 2015 में जस्टिन ट्रूडो ने कहा था कि उन्होंने जितने सिखों को अपनी कैबिनेट में जगह दी है उतनी जगह भारत की कैबिनेट में भी नहीं है. तब ट्रूडो की कैबिनेट में चार सिख मंत्री थे.
ट्रूडो के इवेंट की गेस्ट लिस्ट में सिख अलगाववादी!
पंजाब के कैबिनेट मंत्री रहे मलकिअत सिंह सिद्धू 1986 में कनाडा के वैंकूवर शहर में एक निजी कार्यक्रम में शामिल होने गए थे. इसी दौरान कनाडाई सिख अलगाववादी जसपाल सिंह अटवाल ने मलकिअत सिंह की हत्या की कोशिश की थी. मलकिअत सिंह को गोली लगी थी लेकिन वो बच गए थे. इस मामले में जसपाल सिंह अटवाल को हत्या की कोशिश में दोषी ठहराया गया था.
जब ट्रूडो 2018 में भारत आए तो जसपाल सिंह अटवाल उनके आधिकारिक इवेंट की गेस्ट लिस्ट में शामिल थे. मुंबई में 20 फ़रवरी को ट्रूडो के लिए आयोजित एक इवेंट में जसपाल अटवाल कनाडाई प्रधानमंत्री की पत्नी के साथ दिखे थे. बाद में अटवाल ने खेद जताते हुए कहा था कि उनकी वजह से प्रधानमंत्री ट्रूडो को भारत दौरे में शर्मिंदगी झेलनी पड़ी.
कनाडा में सिख कैसे पहुँचे?
1897 में महारानी विक्टोरिया ने ब्रिटिश भारतीय सैनिकों की एक टुकड़ी को डायमंड जुबली सेलिब्रेशन में शामिल होने के लिए लंदन आमंत्रित किया था. तब घुड़सवार सैनिकों का एक दल भारत की महारानी के साथ ब्रिटिश कोलंबिया के रास्ते में था. इन्हीं सैनिकों में से एक थे रिसालेदार मेजर केसर सिंह. रिसालेदार कनाडा में शिफ़्ट होने वाले पहले सिख थे.
सिंह के साथ कुछ और सैनिकों ने कनाडा में रहने का फ़ैसला किया था. इन्होंने ब्रिटिश कोलंबिया को अपना घर बनाया. बाक़ी के सैनिक भारत लौटे तो उनके पास एक कहानी थी. उन्होंने भारत लौटने के बाद बताया कि ब्रिटिश सरकार उन्हें बसाना चाहती है. अब मामला पसंद का था. भारत से सिखों के कनाडा जाने का सिलसिला यहीं से शुरू हुआ था. तब कुछ ही सालों में ब्रिटिश कोलंबिया 5000 भारतीय पहुंच गए, जिनमें से 90 फ़ीसदी सिख थे.
हालांकि सिखों का कनाडा में बसना और बढ़ना इतना आसान नहीं रहा है. इनका आना और नौकरियों में जाना कनाडा के गोरों को रास नहीं आया. भारतीयों को लेकर विरोध शुरू हो गया था. यहां तक कि कनाडा में सबसे लंबे समय तक प्रधानमंत्री रहे विलियम मैकेंज़ी ने मज़ाक उड़ाते हुए कहा था, ''हिन्दुओं को इस देश की जलवायु रास नहीं आ रही है.''
1907 तक आते-आते भारतीयों के ख़िलाफ़ नस्ली हमले शुरू हो गए. इसके कुछ साल बाद ही भारत से प्रवासियों के आने पर प्रतिबंध लगाने के लिए क़ानून बनाया गया.
पहला नियम यह बनाया गया कि कनाडा आते वक़्त भारतीयों के पास 200 डॉलर होने चाहिए. हालांकि यूरोप के लोगों के लिए यह राशि महज 25 डॉलर ही थी.
लेकिन तब तक भारतीय वहां बस गए थे. इनमें से ज़्यादातर सिख थे. ये तमाम मुश्किलों के बावजूद अपने सपनों को छोड़ने के लिए तैयार नहीं थे.
इन्होंने अपनी मेहनत और लगन से कनाडा में ख़ुद को साबित किया. इन्होंने मज़बूत सामुदायिक संस्कृति को बनाया. कई गुरुद्वारे भी बनाए.
सिखों का संघर्ष
सिखों को कनाडा से जबरन भारत भी भेजा गया. सिखों, हिन्दुओं और मुसलमानों से भरा एक पोत कोमागाटा मारू 1914 में कोलकाता के बज बज घाट पर पहुंचा था.
इनमें से कम से कम 19 लोगों की मौत हो गई थी. भारतीयों से भरे इस जहाज को कनाडा में नहीं घुसने दिया गया था. जहाज में सवार भारतीयों को लेकर दो महीने तक गतिरोध बना रहा था. इसके लिए प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो ने 2016 में हाउस ऑफ कॉमन्स में माफ़ी मांगी थी.
1960 के दशक में कनाडा में लिबरल पार्टी की सरकार बनी तो यह सिखों के लिए भी ऐतिहासिक साबित हुआ. कनाडा की संघीय सरकार ने प्रवासी नियमों में बदलाव किए और विविधता को स्वीकार करने के लिए दरवाज़े खोल दिए.
इसका असर यह हुआ कि भारतीय मूल के लोगों की आबादी में तेज़ी से बढ़ोतरी हुई. भारत के कई इलाक़ों से लोगों ने कनाडा आना शुरू कर दिया. यहां तक कि आज भी भारतीयों का कनाडा जाना बंद नहीं हुआ है.
आज की तरीख़ में भारतीय-कनाडाई के हाथों में संघीय पार्टी एनडीपी की कमान है. कनाडा में पंजाबी तीसरी सबसे लोकप्रिय भाषा है. कनाडा की कुल आबादी में 1.3 फ़ीसदी लोग पंजाबी समझते और बोलते हैं.