सऊदी, ईरान और इसराइल आपस में दुश्मन पर भारत के दोस्त कैसे

भारत की विदेश नीति दशकों तक गुटनिरपेक्ष प्रतिबद्धता के साथ रही. शीत युद्ध के दौरान भारत न तो पश्चिमी देशों के गुट में शामिल हुआ था और न ही सोवियत संघ के नेतृत्व वाले गुट में.
भारत उन देशों के साथ था जो किसी भी गुट में नहीं थे. इसे कथित रूप से तीसरी दुनिया भी कहा गया.
अब भी भारत अपने इस दर्शन को बुनियादी तौर पर अपनाता रहा है. आज की तारीख़ में मध्य-पूर्व में भारत के सऊदी, ईरान और इसराइल तीनों के साथ अच्छे संबंध हैं. दूसरी तरफ़ इन तीनों देशों के संबंध आपस में अच्छे नहीं हैं.
ईरान की सऊदी और इसराइल से दुश्मनी किसी से छुपी नहीं है. ईरान और सऊदी की दुश्मनी भी जगज़ाहिर है.
मध्य-पूर्व से भारत की ऊर्जा ज़रूरतें पूरी होती हैं. दूसरी तरफ़ खाड़ी के देशों में भारत के लाखों लोग काम करते हैं. भारत खाड़ी के देशों के साथ बहुत सतर्कता से क़दम बढ़ाता है.
मध्य-पूर्व दुनिया का वो इलाक़ा है जहां ताक़तवर देशों की खेमेबंदी बहुत तगड़ी है. रूस और अमरीका के साथ चीन की भी सक्रियता काफ़ी है.

सऊदी अरब और ईरान के बीच आधुनिक प्रतिद्वंद्विता 1979 में ईरानी की क्रांति के ठीक बाद शुरू हुई थी. तब ईरान ने सभी मुस्लिम देशों में राजशाही को हटा धर्मशासन लागू करने का आह्वान किया था.
ईरान में क्रांति से सऊदी के शाही शासन में डर फैल गया था कि कहीं यहां भी सुन्नी समूह बग़ावत ना कर दें.
1981 में इराक़ का ईरान पर ख़ूनी हमला हुआ. सऊदी अरब और बाक़ी के खाड़ी देशों की ईरान से दुश्मनी तब से ही है. अभी सऊदी अरब यमन में ईरान समर्थित हूती विद्रोहियों के ख़िलाफ़ युद्ध लड़ रहा है.
सीरिया में ईरान राष्ट्रपति बशर अल-असद के साथ है तो सऊदी सुन्नी लड़ाकों के साथ. 2017 के जून महीने में सऊदी के नेतृत्व वाले सहयोगी देशों ने क़तर पर नाकेबंदी लगा दी. सऊदी ने आरोप लगाया कि क़तर ईरान समर्थित विद्रोहियों को मदद पहुंचा रहा है.
सऊदी नहीं चाहता है कि उसके पड़ोसियों की दोस्ती ईरान से रहे.
सऊदी और ईरान के बीच की दुश्मनी से भारत का द्वंद्व बढ़ना लाज़िमी है. ऐसा इसलिए भी है कि भारत के दोनों देशों से हित जुड़े हुए हैं.
बहरीन, कुवैत, ओमान, क़तर सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात के नेतृत्व वाले संगठन गल्फ़ कोऑपरेशन काउंसिल (जीसीसी) से भारत का व्यापार 2005 में 5.5 अरब डॉलर का था जो 2014-15 में 137.7 अरब डॉलर का हो गया.

जीसीसी के देश मध्य-पूर्व में भारत के सबसे बड़े ट्रेड पार्टनर हैं. इस दौरान भारत से चीन का व्यापार 70 अरब डॉलर का था. 2014 में भारत का ईरान के साथ व्यापार 16 अरब डॉलर का था. ओबामा प्रशासन ने ईरान से प्रतिबंध हटा दिए थे और इसी दौरान दोनों देशों के व्यापार में बढ़ोतरी शुरू हो गई थी.
सऊदी और ईरान के बीच अगर कोई सीधा टकराव होता है तो भारत के हित ज़ाहिर तौर पर प्रभावित होंगे. भारत के व्यापार मार्ग प्रभावित होंगे. अगर ईरान से भारत के संबंध ख़राब होते हैं तो इस इलाक़े के तेल और गैस के 30 अरब डॉलर का कारोबार बर्बाद हो सकता है. ज़ाहिर है व्यापार के लिहाज से देखें तो जीसीसी के देशों से भारत के संबंध काफ़ी अहम हैं.
खाड़ी के देशों में बड़ी संख्या में भारतीय प्रवासी हैं. मध्य-पूर्व में कोई टकराव होता है तो इस मोर्चे पर भी भारत को झटका लग सकता है. जीसीसी के छह देशों में 55 लाख से ज़्यादा भारतीय प्रवासी रहते हैं. 2015 से 2016 के बीच इन्होंने 36 अरब डॉलर अपने परिजनों को भेजे हैं.
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अगर ईरान और सऊदी में युद्ध होता है तो भारत को बड़ी संख्या में अपने नागरिकों को वहां से निकालना होगा. यह संख्या गल्फ़ वॉर से भी ज़्यादा होगी. तब कुवैत से क़रीब एक लाख भारतीयों को निकाला गया था.
युद्ध की स्थिति में तेल और गैस का उत्पादन भी प्रभावित होगा और इससे इसकी क़ीमत बढ़ेगी. भारत अपनी ज़्यादातर ऊर्जा ज़रूरतें जीसीसी देशों से पूरी करता है. केवल सऊदी अरब से ही भारत हर दिन सात लाख 50 हज़ार बैरल तेल ख़रीदता है. युद्ध से यह आपूर्ति प्रभावित होगी और यह भारत की अर्थव्यवस्था के लिए काफ़ी ख़तरनाक होगा.
2016 में भारत की ऊर्जा आपूर्ति में तेल का योगदान 25 फ़ीसदी था और परिवहन सेक्टर में 40 फ़ीसदी ऊर्जा की आपूर्ति तेल से ही हुई. सेना के आधुनीकीकरण में तेल और गैस की अहम भूमिका है. भारत की नौसेना के लिए फ़ारस की खाड़ी और अरब सागर काफ़ी अहम है.
भारत की तुलना में इस इलाक़े में चीन बहुत बड़ी ताक़त है. चीन का इन इलाक़ों में बेशुमार निवेश है. ये निवेश चीन की महत्वाकांक्षी परियोजन वन बेल्ट वन रोड के तहत हुए हैं. भारत की कोशिश है कि ईरान चीनी पाले में ना जाए.
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इसकी बड़ी वजह ये है कि ईरानी पोर्ट से भारत पाकिस्तान को बाइपास कर फ़ारस की खाड़ी और मध्य एशिया में पहुंच बना सकता है.
2016 में भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अफ़ग़ानिस्तान और ईरान के साथ मिलकर चाबाहर पोर्ट को विकसित करने का समझौता किया था. विशेषज्ञों का मानना है कि नई दिल्ली ईरान के साथ खुलकर इसलिए भी नहीं आ पाता है क्योंकि जीसीसी देशों और अमरीका दबाव रहता है.
इन सबके बावजूद भारत का संबंध ईरान और सऊदी दोनों से अच्छे हैं. मोदी दोनों देशों का दौरा कर चुके हैं. ईरानी राष्ट्रपति भी पिछले साल भारत के दौरे पर आए थे. क़तर को लेकर भी भारत का रुख़ बहुत ही सतर्क रहता है. भारत का कहना है कि यह इन देशों का आंतरिक मामला है.
भारत को ईरान और सऊदी में दुश्मनी के बीच इसराइल से भी संबंधों को गहरा करने का मौक़ा मिल गया. हाल के दशकों में भारत इसराइल से संबंधों को खुलेआम तौर पर दिखाने या स्वीकार करने में हिचकता रहा है. भारत को हमेशा से डर रहा था कि इसराइल से दोस्ती के कारण खाड़ी के देशों में रह रहे भारतीयों को समस्या हो सकती है. मोदी इसराइल जाने वाले पहले भारतीय प्रधनमंत्री बने.

आज की तारीख़ में सऊदी अरब, यूएई, बहरीन और कुवैत का ध्यान इसराइल-फ़लस्तीनी विवाद को सुलझाने से ज़्यादा ज़ोर ईरान के प्रभाव रोकने पर है. उसी तरह इसराइल भी ईरान को रोकने के लिए कुछ भी करने को तैयार दिखता है.
मोदी पिछले साल जुलाई में जब इसराइल गए थे तो उन्होंने फ़लस्तीनी और इसराइली संघर्ष का ज़िक्र तक नहीं किया था. मोदी ने ऐसा कर भारत की पारंपरिक विदेशी नीति की लाइन को तोड़ा था.
भारत ऐशिया में अग्रणी भूमिका चाहता है इसलिए मध्य-पूर्व में इसराइल की उपेक्षा नहीं कर सकता. भारत को इसराइल के साथ अच्छे संबंध बनाने में ईरान से दोस्ती के बावजूद कामयाबी मिली है.
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