क्विक अलर्ट के लिए
नोटिफिकेशन ऑन करें  
For Daily Alerts
Oneindia App Download

ग़ज़ल धालीवाल हैं 'इक लड़की को देखा तो' की असल हीरो- ब्लॉग

मुझे ग़ज़ल का 2015 में दिया इंक टॉक्स का वो भाषण याद है जिसमें उन्होंने कहा था, "लोग आमतौर पर अच्छे होते हैं. कई बार कुछ चीज़ों का ख़ौफ़ उनके मन में होता है जो उनसे बुरे काम करवाता है. ख़ौफ़ कुछ ऐसी चीज़ों का जिन्हें वो समझते नहीं है. इससे निपटने का एक तरीका है इन अंजान चीज़ों और लोगों के बारे में कहानियाँ लोगों को सुनाई जाएँ. एक बॉलीवुड लेखक होने के नाते मैं ऐसा कर सकती हूँ. पर क्या मेरे लिए ऐसा करना आसान होगा? शायद नहीं. जब तक मेरे नाम पर कोई 100 करोड़ की फ़िल्म नहीं होगी. लेकिन मैं डटी रहूंगी."

By BBC News हिन्दी
Google Oneindia News
movie , film ,cinema , bollywood , mumbai

ये हौसला कैसे झुके

ये आरज़ू कैसे रुके

मंज़िल मुश्किल तो क्या

धुंधला साहिल तो क्या

तन्हा ये दिल तो क्या..

ये हौसला कैसे झुके

कुर्ता और चूड़ीदार पहने आत्मविश्वास से भरी वो लड़की मुझे आज भी याद है जो 2014 में आमिर ख़ान के शो सत्यमेव जयते में आई थी और ऊपर लिखी पंक्तियाँ हौले-हौले अपनी ख़ूबसूरत आवाज़ में गाईं थीं. उनका नाम था ग़ज़ल धालीवाल.

और मुझे उन दर्शकों के चेहरे पर अचंभे और हैरत का भाव भी याद है जब ग़ज़ल ने बताया था कि उनका जन्म बतौर लड़का हुआ था. ग़ज़ल ने लोगों को अपनी बचपन की तस्वीर भी दिखाई थी जिसमें वो एक सिख लड़का हैं और पगड़ी पहने हुई हैं.

इन्हीं ग़ज़ल धालीवाल ने फ़िल्म 'इक लड़की को देखा तो ऐसा लगा' की कहानी लिखी है जो दो औरतों की प्रेम कहानी है. ग़ज़ल ख़ुद ट्रांसवुमेन हैं यानी सर्जरी के बाद मर्द से अब औरत बन गई हैं और उन्होंने भी लंबा संघर्ष किया है.

ख़ुदकुशी करने की योजना बनाई

ग़ज़ल धालीवाल का जन्म पंजाब के पटियाला शहर के एक आम मिडल क्लास परिवार में हुआ. कई सार्वजनिक आयोजनों में ग़ज़ल अपनी ज़िंदगी की कहानी साझा कर चुकी हैं.

सत्यमेव जयते में उन्होंने बताया था, "जब मैं पाँच साल की थी, तब भी मैं ख़ुद को लड़की जैसा महसूस करती थी जबकि मैं लड़का थी. उम्र के साथ-साथ ये अहसास और बढ़ता गया. मैं लड़कियों जैसा बनना संवरना चाहती थी, मुझे लगता था कि मैं मर्द के शरीर में क़ैद होकर रह गई हूँ. मेरी रूह औरत की है."

डॉक्टर इसे जेंडर डिसफ़ोरिया का नाम देते हैं यानी उस इंसान का पैदाइशी लिंग कुछ और होता है पर वो ख़ुद को किसी दूसरे लिंग से जुड़ा हुआ महसूस करता है. इस वजह से इस व्यक्ति को जिस्मानी और मानसिक तौर पर कई तरह के दवाब से गुज़रना पड़ता है.

मसलन ग़ज़ल ने इंक टॉक्स के आयोजन में बताया था कि बचपन में वो ख़ुद को समाज के ढाँचे में फिट नहीं कर पा रही थी और 12 साल की उम्र में उन्होंने नींद की गोलियों से ख़ुदकुशी करने की योजना तक बनाई थी.

ग़ज़ल ने जब पिता से पहली बार बताया तो उन्होंने बात को दरकिनार तो नहीं किया पर ये कहा कि शायद ये अस्थायी दौर है जो गुज़र जाएगा.

पटियाला जैसी जगह में, मध्यमवर्गीय समाज में सबको ये बता पाना कि वो है तो लड़का पर लड़की की तरह रहना चाहती हैं आसान नहीं था.

लड़की बनकर फिल्मों में काम करने का सपना

अपनी दोहरी ज़िंदगी से परेशान होकर ग़ज़ल किशोर अवस्था में घर छोड़कर भाग गई थी. हालांकि पटियाला से दिल्ली जाते हुए ट्रेन में वो इसका अंजाम सोचकर सहम गई और एसटीडी से घर फ़ोन किया और वापस लौट आई. तब उनके पिता को भी अहसास हुआ कि ये अस्थायी दौर नहीं है जो गुज़र जाएगा.

ग़ज़ल ने इसके बाद इंजीनियरिंग पूरी की और इंफ़ोसिस में नौकरी करने लगी. लेकिन मन में लड़की बनने और फ़िल्मों में काम करने की ख़्वाहिश ज़िंदा थी. फ़िल्मों का शौक ग़ज़ल को बचपन से ही था.

फ़िल्मों में काम करने की तमन्ना ही ग़ज़ल को मुंबई लाई जहाँ उन्होंने ट्रांसजेंडर लोगों पर एक फ़िल्म बनाई. इस फ़िल्म को बनाते वक़्त वो कई ट्रांस लोगों से मिलीं जिनमें से कुछ ने सेक्स बदलवाया था.

जब ये फ़िल्म ग़ज़ल ने अपनी माँ-बाप को दिखाई तो उनका पहला सवाल यही थी कि तुम अपनी सेक्स चेंज सर्जरी कब करवा रही हो. ये बातें सत्यमेव जयते में भी ग़ज़ल ने सांझा की है.

मां-बाप ने खुद पड़ोसियों को बताया

ग़ज़ल के पित भजन प्रताप सिंह और माँ सुकर्नी धालीवाली ने ख़ुद ये ज़िम्मा उठाया कि वो अपनी पड़ोसियों को जाकर बताएँ कि जिसे अब तक वो लड़के के तौर पर जानते आए हैं वो अब लड़की बन रही है और सब उनकी बेटी का समर्थन करें.

माँ-बाप के मज़बूत समर्थन की वजह से बहुत जल्द पंजाब में उनके नाते रिश्तेदारों ने समय के साथ उनकी नई पहचान को स्वीकार कर लिया.

2006 के बाद से ग़ज़ल ने सेक्स बदलवाने की प्रक्रिया शुरू की और मुंबई में 2009 लौटकर एक नई ज़िंदगी की शुरुआत की.

अपनी नई पहचान के साथ, ग़ज़ल ने फ़िल्मी दुनिया में काम ढूँढने का सिलसिला शुरु किया और इसमें उन्हें तनुजा चंद्रा और अंलकृता श्रीवास्तव जैसी महिला निर्देशकों का साथ मिला.

धीरे धीरे उन्हें काम मिलने लगा. 2016 में उन्हें अमिताभ बच्चन की फ़िल्म वज़ीर में अतिरिक्त डायलॉग लिखने का मौका मिला.

अंलकृता श्रीवास्तव की फ़िल्म लिपस्टिक अंडर माई बुर्क़ा में डायलॉग लिखने के बाद लोगों ने उन्हें जानना शुरू किया. जिसके बाद 2017 में क़रीब क़रीब सिंगल का स्क्रीनप्ले भी ग़ज़ल ने लिखा. लेकिन असली पहचान उन्हें मिली है शैली चोपड़ा धर की फ़िल्म 'इक लड़की को देखा तो ऐसा लगा' की लेखक के रूप में.

दो समलैंगिक लड़कियों की कहानी जिसे एक ट्रांसवुमेन ने लिखा है जिसने ख़ुद भी अपनी नई सेक्शुएलिटी को अपनाया है.

मुझे ग़ज़ल का 2015 में दिया इंक टॉक्स का वो भाषण याद है जिसमें उन्होंने कहा था, "लोग आमतौर पर अच्छे होते हैं. कई बार कुछ चीज़ों का ख़ौफ़ उनके मन में होता है जो उनसे बुरे काम करवाता है. ख़ौफ़ कुछ ऐसी चीज़ों का जिन्हें वो समझते नहीं है. इससे निपटने का एक तरीका है इन अंजान चीज़ों और लोगों के बारे में कहानियाँ लोगों को सुनाई जाएँ. एक बॉलीवुड लेखक होने के नाते मैं ऐसा कर सकती हूँ. पर क्या मेरे लिए ऐसा करना आसान होगा? शायद नहीं. जब तक मेरे नाम पर कोई 100 करोड़ की फ़िल्म नहीं होगी. लेकिन मैं डटी रहूंगी."

और ग़ज़ल वाकई डटी रहीं. आख़िरकार उन्होंने एक ऐसी कहानी लिखी जिस पर समाज में बात नहीं होती.

फ़िल्म 'इक लड़की को देखा तो ऐसा लगा' पर लोगों की अलग-अलग राय हो सकती है लेकिन फ़िल्म से परे एक ट्रांसवुमेन के नाते ग़ज़ल की कहानी ज़रूर दिल की छू जाती है.

BBC Hindi
Comments
देश-दुनिया की ताज़ा ख़बरों से अपडेट रहने के लिए Oneindia Hindi के फेसबुक पेज को लाइक करें
English summary
Ghazal Dhaliwal is the real hero of Ek ladki ko dekha to blog
तुरंत पाएं न्यूज अपडेट
Enable
x
Notification Settings X
Time Settings
Done
Clear Notification X
Do you want to clear all the notifications from your inbox?
Settings X
X