क्या कन्हैया के डर से नवादा नहीं छोड़ना चाहते गिरिराज?
नई दिल्ली- बिहार के बहुचर्चित बीजेपी नेता ओर केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह इसबार अपनी संसदीय सीट को लेकर सुर्खियों में हैं। अक्सर पाकिस्तान और राष्ट्रवाद के मसले पर चर्चा में रहने वाले गिरिराज इसबार अपनी लोकसभा सीट बदले जाने से इतने नाराज हैं कि सार्वजनिक तौर पर पार्टी की फजीहत करा रहे हैं। उनका दर्द है कि उन्हें बिना विश्वास में लिए नवादा से हटाकर बेगूसराय से चुनाव लड़ने के लिए भेज दिया गया। खास बात ये है कि 2014 में बेगूसराय से चुनाव लड़ने को लेकर ही वे अड़े हुए थे। ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि क्या वे वहां अपने विरोधी उम्मीदवार का नाम सुनकर डर गए हैं? क्योंकि सीपीआई ने बेगूसराय से जेएनयू स्टूडेंट्स यूनियन के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार को वहां से मैदान में उतारा है।
क्या बेगूसराय में हार का डर सता रहा है?
बेगूसराय संसदीय सीट पर भूमिहार मतदाताओं का दबदबा माना जाता है। गिरिराज को ये डर हो सकता है कि कहीं कन्हैया के आने से भूमिहारों का वोट बंट न जाए। क्योंकि, गिरिराज और कन्हैया दोनों ही भूमिहार हैं और दोनों ही स्थानीय भी हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में यहां से बीजेपी के वरिष्ठ नेता भोला सिंह 58 हजार से ज्यादा मतों से जीते थे। वे भी भूमिहार ही थे। लेकिन, उनके निधन के बाद यह सीट खाली हो गई थी। एक आंकड़े के मुताबिक वहां 4.50 लाख से ज्यादा भूमिहार मतदाता हैं। इसके अलावा करीब 2.5 लाख मुसलमान, 2 लाख कुर्मी-कोइरी और लगभग 1.5 लाख यादव वोटर हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में भोला सिंह को लगभग 4.30 लाख, आरजेडी के तनवीर हसन को करीब 3.70 लाख और सीपीआई के राजेंद्र प्रसाद सिंह को लगभग 1.92 लाख वोट मिले थे। हालांकि, तब सीपीआई को जेडीयू का समर्थन था, जिसका कुर्मी और कोइरी वोटरों पर ज्यादा प्रभाव माना जाता है। यानि, पिछलीबार के मुकाबले इसबार बेगूसराय का जातीय गणित पूरी तरह से उलट-पुलट हो चुका है और इसलिए शायद गिरिराज इसे सेफ नहीं मान पा रहे हैं।
कन्हैया कुमार और 'लेनिनग्राद' फैक्टर
दरअसल, सीपीआई ने कन्हैया को बेगूसराय से टिकट दिया है, तो इसके पीछे कारण यह है कि उसे बिहार का लेनिनग्राद कहा जाता रहा है। दिलचस्प पहलू ये है भी कि बेगूसराय में 'लाल सलाम' को बुलंद करने वालों के अगुवा भी भूमिहार जाति के ही लोग रहे हैं। यहां शुरुआती दिनों से ही सीपीआई को भूमिहारों से समर्थन मिलता आया था, हालांकि ये भी सच है कि लोकसभा चुनाव में उसे सफलता सिर्फ 1967 में ही हाथ लग पाई थी। लंबे समय तक इसपर कांग्रेस का कब्जा रहा और आगे चलकर यह सीट एनडीए के खाते में आने लगी। ऐसे में शायद गिरिराज के सामने यह डर भी है कि कहीं कन्हैया उस 'लाल क्रांति' को बिहार के 'लाल'गढ़ में फिर से सुलगाने में कामयाब न हो जाएं? जो साठ के दशक में महसूस की गई थी। शायद कन्हैया भी गिरिराज का ये दर्द समझते हैं, इसलिए वे उनपर ट्विटर के जरिए तंज भी कस रहे हैं। उन्होंने लिखा है, "बताइए, लोगों को ज़बरदस्ती पाकिस्तान भेजने वाले ‘पाकिस्तान टूर एंड ट्रेवेल्स विभाग' के वीज़ा-मन्त्री जी नवादा से बेगूसराय भेजे जाने पर हर्ट हो गए। मन्त्री जी ने तो कह दिया "बेगूसराय को वणक्कम"
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क्या नवादा सीट उनके लिए ज्यादा सेफ है?
पिछलीबार गिरिराज पार्टी के फैसले से ही नवादा चुनाव लड़ने पहुंचे थे, क्योंकि तब बेगूसराय सीट भोला सिंह को मिली थी। तब गिरिराज की इच्छा बेगूसराय से ही लड़ने की थी। लेकिन, मोदी लहर में गिरिराज सिंह ने नवादा में 1,40,157 मतों से जीत दर्ज की थी। जहां तक भूमिहार मतदाताओं की बात है तो नवादा में भी उनकी संख्या लगभग 30% बताई जाती है। इसके अलावा वहां बीजेपी का अपना जनाधार है और जेडीयू-एलजेपी के साथ गठबंधन होने से गिरिराज शायद उसे अपने लिए सेफ सीट समझ रहे थे। एक बात और है कि नवादा सीट पर 10 साल से बीजेपी का कब्जा है।
प्रदेश नेतृत्व के रवैये से नाखुशी की वजह?
खबरें हैं कि गिरिराज वाकई बिहार के पार्टी नेतृत्व से नाराज हैं। उन्हें लग रहा है कि वहां पर उतनी तबज्जो नहीं मिल रही है, जिसके वे हकदार हैं। कहीं न कहीं वे राज्य में पार्टी पर अपना दबदबा बढ़ाना चाहते हैं, ताकि बिहार में सत्ता से लेकर संगठन तक में आगे बड़ी जिम्मेदारी संभाल सकें। लेकिन, सुशील कुमार मोदी के रहते हुए, वहां दूसरे नेताओं के लिए ज्यादा दबदबा बनाना आसान नहीं है। क्योंकि, मोदी संगठन में किसी पद पर रहें या न रहें बिहार में पार्टी पर उनकी पकड़ बेहद मजबूत रहती है और उसे तोड़ पाना फिलहाल किसी के लिए आसान नहीं लग रहा है।
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