लालू-नीतीश ने सूझ-बूझ से किया भाजपा का मुकाबला
पटना (मुकुंद सिंह)। चुनाव परिणाम हमेशा लोगों को आकर्षित करने वाले होते हैं। जब वोट ईवीएम मशीन के बदले बैलेट बॉक्स में कैद रहते थे, तब मतगणना दो-तीन दिनों तक महत्वपूर्ण और दिलचस्प बनी रहती थी। आम जनता के लिए भी किसी उत्सव से कमतर नहीं हुआ करती थी। परंतु अब ईवीएम ने पूरे परिदृश्य को बदल दिया है। विधानसभा चुनावों में परिणाम आने में चार से पांच घंटे काफी होते हैं। लिहाजा राजनीतिक चर्चाओं के लिए समयाभाव अप्राकृतिक नहीं है।
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संभवत: यही कारण है कि मतगणना के पूर्व एक्जिट पोल की परंपरा शुरू हो गयी है। खासकर न्यूज चैनलों में तो इसे लेकर होड़ सी रहती है। वैसे यह देश में लोकतंत्र की गहरी होती जड़ों का सबूत है। आरएसएस के विशेष पैरोकार व प्राख्यात अर्थशास्त्री सुरजीत भल्ला कहते हैं भाजपा गठबंधन के वोट शेयर में न्यूनतम 4 फीसदी की कमी आयेगी। उनके मुताबिक बिहार में नीतीश कुमार की सरकार के खिलाफ जनाक्रोश नहीं था। जितने भी मुद्दे भाजपा गठबंधन द्वारा उठाये गये, उन सभी मामलों में लालू-नीतीश ने बड़ी सुझ-बूझ के साथ मुकाबला किया।
श्री भल्ला के कहते हैं कि जनता द्वारा अबतक दिखाये गये रुझानों की मानें तो बिहार विधानसभा चुनाव 2015 का विजेता लालू-नीतीश की युगलबंदी है, जिसने पिछड़ा और अतिपिछड़ा वर्ग एवं मुसलमानों को एक सूत्र में बांध दिया। हालांकि कई विधानसभा क्षेत्र अपवाद की श्रेणी में आ सकते हैं, लेकिन अधिसंख्य क्षेत्रों में लालू-नीतीश की एकता का असर धरातल पर दिखा है।
बिहार विधानसभा चुनाव 2015 चुनाव पूर्व के चुनावों से बिल्कुल अलग साबित हुआ। पहली बार केंद्रीय सत्ता में शामिल नेताओं ने किसी सूबाई सियासत पर अपना अधिकार करने के लिए जमीन-आसमान एक किया। इसके अलावा यह संभवत: पहला चुनाव है जिसमें मुद्दे चरण-दर-चरण बदलते रहे। पहले गोमांस और आरक्षण का मामला फिर दाल की कीमत और जातिवादिता। हालांकि जो राजनीतिशास्त्र जानते-समझते हैं वे इस बात को मानते हैं कि केवल जाति के आधार पर लोकतांत्रिक राजनीति में किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा जा सकता है। आवश्यक पूर्व के चुनाव की राजनीतिक ट्रेंड हैं।
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बिहार विधानसभा चुनाव 2015 भी इससे अलग नहीं है। वहीं वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में जब राजद, कांग्रेस और जदयू एक नहीं थे तब यह बहुदलीय लड़ाई थी। इस चुनाव में सबसे अधिक फायदा भाजपा गठबंधन को मिला था। वह 243 विधानसभा क्षेत्रों में से 172 पर जीतने में कामयाब रही थी। इसकी एक वजह यह भी रही कि बहुदलीय लड़ाई होने से गैर भाजपाई दलों के वोटों की हिस्सेदारी में कमी आयी। बिहार के लिहाज से यह माना जाता है कि एक प्रतिशत वोट घटने या बढ़ने का मतलब कम से कम आठ सीटें घटना और बढ़ना होता है।