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बिहार विधानसभा चुनाव 2020: वोटिंग का जातीय गणित क्यों है इतना खास? समझिए इस बार का समीकरण

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नई दिल्ली। बिहार में विधानसभा चुनाव की तैयारियां जारी हैं। अब बिहार में चुनाव हों और जाति की बात न हो तो चर्चा ही बेमानी है। जैसे-जैसे चुनावी माहौल बन रहा है जातीय गोलबंदी तेज होती जा रही है। हो भी क्यों न, बिहार में चुनाव लड़ने वाली दो प्रमुख राष्ट्रीय पार्टियों भाजपा और कांग्रेस को छोड़ दें तो सभी पार्टियों की अपनी एक जाति की राजनीति है। बिहार में सत्ता का रास्ता जाति की चौखट से होकर जाता है। अगर कुर्सी चाहिए तो जाति का समीकरण बिठाना आना ही चाहिए।

बिहार में लालू यादव का राष्ट्रीय जनता दल हो या नीतीश की जनता दल यूनाइटेड या फिर राम विलास पासवान की पार्टी लोजपा, ये सभी पार्टियां जाति की राजनीति पर ही अपनी जगह बनाए हुए हैं।

बिहार में राजनीति का जातीय गणित

बिहार में राजनीति का जातीय गणित

लालू यादव की आरजेडी के साथ अगर यादव और मुस्लिम मतदाता का पुराना वोटबैंक है तो नीतीश की पार्टी को कुर्मी जाति का समर्थन प्राप्त है। इसके साथ ही नीतीश ने अंत्यंत पिछड़ा वर्ग अपनी नजर लगा रखी है। पासवान बिहार में दलित नेता के तौर पर अपनी पहचान रखते हैं लेकिन अब इस वोटर में पूर्व मुख्यमंत्री और हम (एस) के नेता जीतन राम मांझी भी अपनी एंट्री सुनिश्चित करना चाहते हैं। इसी तरह उपेंद्र कुशवाहा और मुकेश सहनी की भी राजनीति जाति पर ही टिकी है।

बिहार में अगर जाति के गणित की उलझन को आप आसानी से समझना चाहते हैं तो 2015 का विधानसभा चुनाव याद कर लीजिए। जब नीतीश कुमार और भाजपा अलग हुए उस समय मोदी लहर चल रही थी। केंद्र में भाजपा इसी लहर पर सवार होकर पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आई लेकिन नीतीश, लालू और कांग्रेस ने महागठबंधन के रूप में जातिगत समीकरण का ऐसा जाल बिछाया जिसकी काट भाजपा के पास नहीं थी। मोदी का विजय रथ का पहिया बिहार में बुरी तरह फंस गया। भाजपा ने सिर्फ चुनाव हारी बल्कि सीटों के मामले में तीसरे नंबर की पार्टी बनकर रह गई।

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बिहार में मजबूत है एमवाई समीकरण

बिहार में मजबूत है एमवाई समीकरण

बात करें अगर लालू प्रसाद यादव की आरजेडी की तो इसकी सबसे बड़ी ताकत एमवाई (मुस्लिम + यादव) समीकरण है। राज्य में इन दोनों वर्गों की आबादी करीब 30 फीसदी है। 1990 से 2005 तक लालू यादव ने इसी गठबंधन के बल पर प्रदेश पर 15 साल राज किया। अभी हाल फिलहाल ये समीकरण लालू से कहीं दूर जाता नहीं दिख रहा है। यही वजह है कि 2015 के चुनावों में जब नीतीश भी लालू के साथ मिले तो भाजपा के पास इस वोटबैंक की कोई काट नहीं थी। पार्टी ने छोटे-छोटे नए दलों से गठबंधन तो किया लेकिन उसका वो फायदा नहीं मिला जिसकी भाजपा ने उम्मीद की थी। नीतीश इस बार विधानसभा में फिर से भाजपा के साथ हैं तो भाजपा की उम्मीदें भी तेज हैं। वजह है जाति का बदला समीकरण।

लालू की पार्टी इस बार भी एमवाई समीकरण पर फोकस रखना चाहती है। साथ ही उपेंद्र कुशवाहा, मुकेश सहनी जैसे नेता उसके साथ हैं। कुशवाहा जिस कोइरी समुदाय से आते हैं उसकी आबादी राज्य में लगभग 6.5 प्रतिशत है। वहीं मुकेश सहनी मल्लाह जाति से आते हैं। ये दोनों नेता अभी महागठबंधन का हिस्सा हैं। बिहार में ओबीसी जाति समूहों की आबादी 52 फीसदी है जबकि 16 फीसदी दलित मतदाता हैं। 16 फीसदी मुस्लिम हैं। सवर्ण मतदाता भी 20 फीसदी के ऊपर हैं।

पिछड़ी जातियों का पैटर्न है निर्णायक पहलू

पिछड़ी जातियों का पैटर्न है निर्णायक पहलू

बिहार में पिछड़ी जातियां 90 के दशक में लालू के साथ ही रहा करती थीं लेकिन 2005 के बाद नीतीश ने इन जातियों में अत्यंत पिछड़ा वर्ग को अलग रेखांकित किया और उनके विकास के लिए योजनाओं को क्रियान्वित किया। जिसके बाद से ओबीसी में भेद लगाने में नीतीश सफल रहे। अंत्यंत पिछड़ा वर्ग की आबादी लगभग 23 फीसदी हैं। ये वर्ग नीतीश के साथ चलता रहा है। वहीं कुर्मी और कोइरी की 10 से 11 प्रतिशत आबादी को नीतीश अपने साथ जोड़े रखना चाहते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि यादव मतदाता उनके साथ नहीं आएंगे। 2015 में भाजपा के साथ रहे और अब राजद नीत महागठबंधन का हिस्सा उपेंद्र कुशवाहा भी कोइरी जाति की राजनीति ही करते हैं।

16 फीसदी दलित मतदाताओं पर पासवान की लोजपा का असर ज्यादा होता है लेकिन राज्य में पासवान और मजबूत दलित जातियों के वर्चस्व को हटाने के लिए महादलित का कांसेप्ट लाया गया। इसके तहत अति पिछड़ी दलित जातियों को विकास की दौड़ में आगे लाने पर काम करने की बात की गई थी। इन महादलित जातियों की संख्या 10 प्रतिशत है। यानि अब दलित जातियों में भी बिखराव हुआ है। बाकी 6 प्रतिशत पर तो लोजपा का गहरा असर है लेकिन महादलित वोटर पर मांझी अपनी पकड़ बनाने में लगे हैं। वहीं विकासशील इंसान पार्टी के मुकेश सहनी भी मल्लाह जाति के वोटर को साध रहे हैं।

2015 के विधानसभा में ये रहा है चुनाव का प्रतिशत

2015 के विधानसभा में ये रहा है चुनाव का प्रतिशत

2015 के चुनाव में महागठबंधन ने बाजी मारी थी। नीतीश और लालू साथ आए तो भाजपा टिक नहीं पाई। महागठबंधन को 43 प्रतिशत वोट मिले। आरजेडी को 18.4 प्रतिशत, जेडीयू को 16.8 और कांग्रेस को 6.7 प्रतिशत वोट मिले। वहीं एनडीए को 33 प्रतिशत वोट ही मिले जिसमें बीजेपी को 24.4, लोजपा को 4.8 प्रतिशत, उपेंद्र कुशवाहा की रालोसपा को 2.4 और मांझी की नई बनी हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा को 2.2 प्रतिशत वोट मिले। वहीं 2015 में मुकेश सहनी भाजपा के लिए प्रचार कर रहे थे इस बार समीकरण बदले हैं मांझी ने एनडीए से हाथ मिला लिया है तो उपेंद्र कुशवाहा राजद के साथ हैं। मुकेश सहनी भी 2019 के लोकसभा चुनाव में राजद वाले महागठबंधन में थे।

सवर्ण और बनिया मतदाता भी हैं महत्वपूर्ण

सवर्ण और बनिया मतदाता भी हैं महत्वपूर्ण

बात सवर्ण मतदाता की करें तो भूमिहार 6, ब्राह्मण 5, राजपूत तीन, कायस्थ 1 और बनिया 7 प्रतिशत है। बनिया को छोड़कर सवर्ण मतदाता कभी कांग्रेस का वोटर हुआ करता था लेकिन बीजेपी की नई हिंदुत्ववादी राजनीति में सवर्ण भी बड़ी संख्या में भाजपा की तरफ झुके हैं। बनिया और सवर्ण वोटरों की भाजपा के पक्ष में गोलबंदी को लेकर भाजपा आश्वस्त नजर आती है।

तो हर बार की तरह इस बार भी बिहार की राजनीति जाति के गणित के साथ ही चलती नजर आ रही है। हर गठबंधन अपने साथ जाति के बड़े खिलाड़ियों के साथ ही छोटे दलों को भी जोड़ने में लगा है। इन दोनों गठबंधनों में सफलता इस बात पर भी निर्भर करेगी कि सीटों का बंटवारा किस तरह होगा और जातिगत समीकरण को साधने में कौन कितनी सफलता पाएगा।

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English summary
caste politics effect in bihar assembly elections 2020
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