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'अल्पसंख्यक आयोग पर भाजपा का ट्रैक रिकॉर्ड पैदा करता है शक'

अल्पसंख्यक आयोग की नियुक्तियों में 'आलस' क्या सरकार की मंशा पर सवाल खड़े करता है?

By कुलदीप मिश्र - बीबीसी संवाददाता
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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी
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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी

दिल्ली हाई कोर्ट से जवाब तलब होने के बाद आख़िरकार केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग में पांच सदस्यों की नियुक्ति कर दी है.

यूपीए के समय नियुक्त किए गए सभी सदस्यों का कार्यकाल सितंबर 2015 से मार्च 2017 के बीच एक-एक करके ख़त्म हो गया था. मार्च से आयोग के सभी पद ख़ाली थे.

अल्पसंख्यक आयोग में अध्यक्ष और उपाध्यक्ष समेत कुल सात सदस्य होते हैं. इनमें से पांच सदस्यों का अल्पसंख्यक समुदायों से होना अनिवार्य है. भारत में मुसलमान, सिख, ईसाई, पारसी, बौद्ध और जैन समाज को अल्पसंख्यक दर्ज़ा प्राप्त है.

पिछले हफ़्ते दिल्ली हाईकोर्ट ने इस मामले पर एक अर्ज़ी की सुनवाई करते हुए केंद्र सरकार से जवाब मांगा था. इसी साल मार्च में विपक्ष ने इस मसले पर सदन में विरोध किया था, जिससे राज्यसभा की कार्यवाही बाधित हुई थी.

नियुक्ति में हुए इस 'आलस' को अल्पसंख्यकों के हितों की अनदेखी के तौर पर भी देखा जा रहा है.अल्पसंख्यक आयोग के काम, इसके इतिहास, प्रासंगिकता और राजनीति पर बीबीसी ने वरिष्ठ पत्रकार सीमा चिश्ती से बात की.

पढ़ें: अल्पसंख्यकों पर कड़े सवालों के क्या जवाब देगा भारत?

पढ़ें: जम्मू-कश्मीर के मुसलमान अल्पसंख्यक हैं या नहीं सरकार तय करे- सुप्रीम कोर्ट

सीमा मानती हैं कि इस देरी ने कई शुबहे पैदा किए हैं. उन्होंने कहा कि ऐसा सुनने में आया है कि अब कुछ नियुक्तियां हुई हैं, लेकिन इससे पहले ख़ाली जगहों को भरने का कोई प्रयास दिख नहीं रहा था. जबकि कार्यकाल ख़त्म होने जैसी चीज़ें पहले से पता होती हैं और उनके लिए पहले से तैयारी की जानी चाहिए थी.

तो क्या इसे अल्पसंख्यक आयोग के विचार के लिए सरकारी उदासीनता की तरह देखा जाए?

सरकार अल्पसंख्यक आयोग को बनाए रखना चाहती है या नहीं, ये इनके ट्रैक रिकॉर्ड से पता चलता है.

1995-96 में जब भाजपा-शिवसेना गठबंधन सरकार महाराष्ट्र में आई थी तब वहां अल्पसंख्यक आयोग ख़त्म कर दिया गया था. 1998 में भाजपा के चुनावी घोषणापत्र में कहा गया कि अल्पसंख्यक आयोग की ज़रूरत नहीं है, क्योंकि लोगों को अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक के नज़रिये से देखना ही ग़लत है.

यह भाजपा की राजनीति रही है. तो जब आयोग के पद खाली हैं तो ऐसा लगता है कि शायद बीजेपी की यही मंशा रही होगी.

मुख़्तार अब्बास नकवी
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मुख़्तार अब्बास नकवी

क्या इस से पहले की सरकारों में अल्पसंख्यक आयोग का बहुत अच्छा इस्तेमाल होता था? तब भी तो उनकी सिफ़ारिशों की अक्सर अनदेखी कर दी जाती थी?

अगर इसे संवैधानिक संस्था बनाया जाता तो इसका कार्यक्षेत्र बढ़ता, यह प्रभावी होता और सिस्टम को फ़ायदा पहुंचाता. इसलिए आपका कहना सही है कि शायद इसका वैसा इस्तेमाल नहीं हुआ.

लेकिन तमाम जगहों पर आयोग फैक्ट फाइंडिंग कमेटियां भेजता था, जांच-पड़ताल की जाती थी, सुनवाई होती थी. हर आदमी तो अदालत जा नहीं सकता, वहां ख़र्च भी होता है. तो इसलिए यह ज़रूरी है.

एक स्वस्थ लोकतंत्र में अल्पसंख्यक आयोग के सुचारू रूप से काम करते रहना क्यों ज़रूरी है ?

देखिए, संविधान में बहुत ऊंचे लक्ष्य रखे गए हैं. अलग-अलग तरह के लोगों के लिए जो बराबरी का वादा किया गया है, वह पूरा कैसे होगा. उसके लिए सरकार, संसद और न्यायपालिका होती है. उसी में अल्पसंख्यक आयोग और मानवाधिकार आयोग जैसी संस्थाओं का भी स्थान होता है. यही संस्थाएं हैं उन ऊंचे लक्ष्यों को संभव बनाती हैं.

इसलिए एक ऐसी संस्था का- जो सरकारी हो, जिसके कान खुले हों और जो लोगों की पहुंच में हो- एक संसदीय और बहुलतावादी लोकतंत्र में बहुत सांकेतिक और वास्तविक महत्व रहता है. यहां हर तरह के लोग रहते हैं. कुछ ख़ुशहाल अल्पसंख्यक हैं और कुछ ऐतिहासिक-राजनीतिक कारणों से पीड़ित महसूस करते हैं. यह फ़र्क़ मिटाने के लिए सिस्टम कई संसाधनों का इस्तेमाल करता है. अल्पसंख्यक आयोग इसी तरह की एक बॉडी है.

यह एक ऐसा पता, ऐसा फोन नंबर, ऐसा ईमेल आईडी है, जहां लोग अपनी संवैधानिक बराबरी को साकार कर सकते हैं. एक आम आदमी के लिए वह शिकायत करने और अपनी बात रखने की जगह है. हर शख़्स सुप्रीम कोर्ट नहीं जा सकता.

विरोध प्रदर्शन
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विरोध प्रदर्शन

अगर संवैधानिक संस्था का दर्ज़ा मिल जाता तो क्या बदलाव आते?

संवैधानिक बॉडी होगी तो उसकी रिपोर्ट सीधे संसद में जाएगी और संसद के लिए उसकी जवाबदेही होगी. सीधे संविधान के निर्देशन से काम होगा. तब आयोग पूछताछ के लिए जिसे समन करेगा, उसकी मान्यता ज़्यादा होगी.

अल्पसंख्यक आयोग को संवैधानिक दर्जा दिलाने के कब-कब प्रयास हुए?

जिस तरह से एससी-एसटी आयोग को संवैधानिक दर्जा मिला है, अल्पसंख्यक आयोग के लिए भी ऐसे प्रयास कई दफ़े हुए. 70 के दशक में मोरारजी देसाई सरकार में कोशिश हुई. बाद में वीपी सिंह सरकार के समय भी नाकाम कोशिश हुई. रामविलास पासवान तब मंत्री थे. बीजेपी सरकार को समर्थन दे रही थी. 1992 में पासवान के एक बयान के मुताबिक, अल्पसंख्यक आयोग को बढ़ावा देने की बात भाजपा को नागवार गुज़री थी.

2004 में यूपीए सरकार के समय भी कोशिश हुई थी. लेकिन अल्पसंख्यक राज्य के आधार पर तय किए जाएं या देश के आधार पर, इस पर बहस छिड़ गई थी. इसके कई आयाम और असर थे और उसी पर मामला बिल्कुल बिखर गया था और यह कोशिश भी नाकाम रही.

भारतीय मुसलमान
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भारतीय मुसलमान

भारत में मानवाधिकार आयोग और अनुसूचित जाति-जनजाति आयोग की मौजूदगी दिखती है. लेकिन अल्पसंख्यक आयोग की वैसी सक्रियता नहीं दिखती. इसकी क्या वजह हो सकती है?

अल्पसंख्यक आयोग ऐसी स्थिति में था, कि लोगों को न निगलते बनता था, न उगलते. यह गले की हड्डी बन गई थी.

दरअसल समस्या को स्वीकार करने पर उसे एक शक़्ल, एक कहानी मिल जाती है. इसलिए शायद अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ होने वाले भेदभाव को सरकारों ने खुलकर स्वीकार नहीं किया.

जैसे अभी आप देख लें तो जिसे 'ऑल इंडिया रेडियो' और 'दूरदर्शन' पर 'छिटपुट हिंसा' कहकर ख़ारिज़ कर दिया जाता है, अगर आयोग अपना काम ठीक से करे और इसमें एक पैटर्न देख सके तो इससे इन घटनाओं को वज़न मिलता है. अंततराष्ट्रीय स्तर पर वो बात उठ सकती है. इसलिए सरकारें शायद डिफेंसिव रही हों कि इस तरह की संस्था को ज्यादा बढ़ावा ही न दिया जाए.

और ऐसा नहीं है कि मानवाधिकार आयोग ने बहुत आगे बढ़कर काम किया. हां ये ज़रूर है कि गुजरात दंगों के बाद जब जस्टिस जेएस वर्मा चेयरमैन थे तो मानवाधिकार आयोग के काम की विश्व में सराहना हुई. और चूंकि भारतीय मानवाधिकार आयोग ने वो काम किया, इसलिए संयुक्त राष्ट्र ने वो बातें नहीं उठाईं. क्योंकि भारत अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यह संदेश दे पाया कि हम ख़ुद अपने लोगों का ख़्याल रख सकते हैं. इस तरह से हर बार अल्पसंख्यक आयोग अपनी बात नहीं रख पाया.

( सीमा चिश्ती की कुलदीप मिश्र से बातचीत पर आधारित)

BBC Hindi
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English summary
'BJP rack record makes doubt on minority commission'
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