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बिहार चुनाव 2020: महागठबंधन के भरोसे कांग्रेस कितने पानी में है- विश्लेषण

बिहार चुनाव में महागठबंधन के घटक दल के तौर पर कांग्रेस कुल 70 सीटों पर चुनाव लड़ रही है.

By मणिकांत ठाकुर
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सोनिया गांधी, नीतीश कुमार और लालू यादव
Getty Images
सोनिया गांधी, नीतीश कुमार और लालू यादव

बिहार में दशकों तक सत्ता की बागडोर 'अगड़ी' जातियों (सवर्ण) की पकड़ में रही, वह कांग्रेस का ज़माना था.

फिर सियासी चक्र ऐसा घूमा कि 'पिछड़ी' जातियाँ फ्रंट पर आ गईं और कांग्रेस का सामाजिक आधार खिसक कर राजनीति के हाशिए से जा लगा.

अब राज्य के सत्ता शीर्ष तक पहुँचाने में जातीय संख्या-बल की निर्णायक भूमिका तो यही कहती है कि 'अगड़ों' के वो कांग्रेसी दिन यहाँ लौटने से रहे.

ख़ैर, जो भी हो. लौटते हैं बिहार में इस बार हो रहे चुनाव से जुड़े कांग्रेस के कुछ मुद्दों पर. इसे लेकर सबसे आश्चर्य भरा प्रश्न यही सामने आया है कि कांग्रेस सत्तर सीटों पर लड़ रही है!

राज्य विधानसभा चुनाव के प्रमुख राजनीतिक दलों में कांग्रेस यहाँ शुमार तो है, पर बीमार क्यों दिखती है जैसे सवाल भी उसे लेकर है.

सत्ता-समीकरण

इस राज्य में सियासी जनाधार खोते जाने वाली उसकी यह बीमारी उसे तीन दशक पहले से लगी हुई है, क्योंकि संगठन और नेतृत्व संबंधी कमज़ोरियों ने उसे सशक्त हो चुके अपने प्रतिद्वंद्वी दलों से मुक़ाबले के लायक़ ही नहीं छोड़ा है.

हालाँकि बीच में दो बार संयोगवश ऐसे भी सत्ता-समीकरण बने, जब राज्य सरकार में साझीदार होने का मौक़ा उसे हाथ लगा.

ग़ैर-कांग्रेसी, या कहें समाजवादी जमातों के कर्पूरी ठाकुर जैसे ज़मीनी नेताओं ने सबसे पहले यहाँ कांग्रेसी सत्ता को झटका देना शुरू किया था.

फिर लालू यादव के उदय वाले नब्बे के दशक से लेकर नीतीश कुमार के मौजूदा शासनकाल तक कांग्रेस यहाँ गठबंधन आश्रित पिछलग्गू पार्टी की भूमिका में ही सिमटी रही है.

ऐसी सूरत में क्या कांग्रेस उन सत्तर विधानसभा सीटों को संभाल पाएगी, जो राष्ट्रीय जनता दल की अगुआई वाले महागठबंधन के घटक होने के नाते उसे चुनाव लड़ने के लिए मिली हैं?

राहुल गांधी और तेजस्वी यादव
PARWAZ KHAN/HINDUSTAN TIMES VIA GETTY IMAGES
राहुल गांधी और तेजस्वी यादव

आरजेडी, कांग्रेस और वामपंथी दल

सीधा-सा जवाब यही हो सकता है कि नहीं संभाल पाएगी.

मुख्य कारण हैं - साफ़ दिख रही लचर/बीमार सांगठनिक स्थिति, जन समर्थन जुटाने लायक़ समर्थ प्रादेशिक लीडर का अभाव और जिताऊ सामर्थ्य के बिना भी ज़्यादा सीटों पर चुनाव लड़ने की खोखली ज़िद.

आरजेडी, कांग्रेस और वामपंथी दलों के 'महागठबंधन ' के लिए भी यह प्रश्न दिन-ब-दिन भारी होता जा रहा है कि आख़िर किस विवशता ने कुल 243 सीटों में से 70 को इतने कमज़ोर हाथों में सौंप दिया?

ऐसे किसी चमत्कार की संभावना तो दूर-दूर तक दिख भी नहीं रही है कि कांग्रेस को कम करके आँकने वालों को चुनावी परिणाम चौंका देंगे?

नीतीश कुमार और राहुल गांधी
PTI
नीतीश कुमार और राहुल गांधी

कांग्रेस को लेकर जेडीयू की रणनीति

लेकिन हाँ, ऐसा सोचा जा सकता है कि 2015 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने 41 में से 27 सीटें जीत कर जिस तरह चौंकाया था, वैसा इस बार भी न हो जाए!

पर, ऐसा सोचने से पहले तत्कालीन चुनावी समीकरण के तमाम पहलुओं को मद्देनज़र रखना होगा. ख़ासकर आरक्षण-विवाद पर 'पिछड़ों' की फिर से आक्रामक एकजुटता का जो माहौल लालू यादव ने बना दिया था, वैसा इस बार कहाँ है?

दूसरी बात कि उस समय आरजेडी और नीतीश कुमार की पार्टी जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू) के साथ महागठबंधन में कांग्रेस थी और जानकारों को पता है कि आरजेडी का वर्चस्व घटाने के इरादे से नीतीश ने कांग्रेस को अंदर-ही-अंदर ताक़त देने की रणनीति अपनाई थी.

मतलब 'पिछड़ों'-दलितों का परिस्थितिजन्य समर्थन कांग्रेस के लिए 27 सीटों पर जीत का सबब बना. इस बार वैसे हालात नहीं हैं और सीटों पर उम्मीदवारी तय करने में ही पार्टी ने ऐसे-ऐसे रंग दिखाए हैं कि उसकी पूरी छवि ही बदरंग नज़र आने लगी है.

पिछड़ा-मुस्लिम-दलित रुझान

टिकट बेचने संबंधी आरोप के अलावा उम्मीदवार चयन में कई अन्य गड़बड़ियों के आरोप पार्टी जनों ने ही इस क़दर उछाले कि दल के केंद्रीय नेतृत्व को हस्तक्षेप करना पड़ा.

राष्ट्रीय स्तर की यह पार्टी अगर मुख्य विपक्षी गठबंधन में शामिल रह कर भी मौजूदा चुनावी विमर्श में उल्लेखनीय या चर्चा-योग्य महत्व नहीं पा रही है, तो इसे क्या कहेंगे?

फिर भी, बात ऐसी भी नहीं है कि इस चुनाव में कांग्रेस की भूमिका ज़िक्र से भी परे हो. अपने कोटे की 70 सीटों में से 32 पर 'अगड़ी' जातियों के उम्मीदवारों को चुनाव-मैदान में उतारना ग़ौरतलब तो है ही.

अपनी 110 सीटों में से 50 सीटों पर सवर्णों को टिकट देने वाली बीजेपी के बाद कांग्रेस ने ही यहाँ अपना पुराना सवर्ण-प्रेम दिखाया है. आरजेडी और वामपंथी दलों के पिछड़े-मुस्लिम-दलित रुझान को देखते हुए संतुलन के लिए कांग्रेस को यह ज़रूरी लगा होगा.

बावजूद इसके, पार्टी ने 12 मुस्लिम और 10 दलित उम्मीदवार खड़े कर के अपनी सर्वजातीय छवि को बिगड़ने नहीं देने की कोशिश की है.

कांग्रेस
SANCHIT KHANNA/HINDUSTAN TIMES VIA GETTY IMAGES
कांग्रेस

कांग्रेस का जनाधार लौटेगा?

पर, क्या ऐसे प्रयासों से बिहार में कांग्रेस के खिसके हुए जनाधार और मंद या कुंद पड़े हुए प्रदेश नेतृत्व में सुधार की कोई गुंजाइश बनती है? मेरे ख़याल से तब तक बिल्कुल नहीं, जब तक पार्टी का मौजूदा रवैया बरक़रार रहेगा.

इस पार्टी का पहले जैसा जनसमर्थन जब टूटने-बिखरने लगा, तब से लेकर अब तक यही लगता रहा है कि मृतप्राय बिहार कांग्रेस में नई जान फूंकना उसके केंद्रीय नेतृत्व की प्राथमिकता-सूची में है ही नहीं.

यह भी, कि जब राष्ट्रीय स्तर पर अपेक्षाकृत सशक्त दिखने लगी कांग्रेस के मनमोहन शासनकाल में बिहार कांग्रेस की स्थिति नहीं सुधारी जा सकी, तब नरेंद्र मोदी शासनकाल में क्या उम्मीद की जाए?

अगर यह पार्टी बिहार में यही सोचती रहे कि बीजेपी छोड़ अन्य किसी भी गठबंधन की पिछलग्गू बन कर किसी तरह सत्ता में छोटा ही सही, एक हिस्सा मिल जाया करे, तो फिर ऐसे ही पार्टी यहाँ चलती रहेगी.

मतलब अभी से राजनीतिक प्रेक्षक यह क़यास लगाने लगे हैं कि चुनाव परिणाम आ जाने के बाद अगर बहुमत के अभाव जैसा कोई पेंच फँसा, तो सेवा में उपलब्ध रहेगी कांग्रेस.

BBC Hindi
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English summary
Bihar Assembly Elections 2020: How much power in Congress on the basis of Grand Alliance
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