BBC SPECIAL-गुजराती और बाहरी के बीच की दरार की असली वजहें
गुजरात में हिंदीभाषी लोगों को लेकर स्थानीय लोगों के रवैए की पड़ताल करती एक ग्राउंड रिपोर्ट. उनका कहना था, "जो लोग फैक्टरियों में काम कर रहे हैं उनमें से 90 प्रतिशत गुजराती नहीं हैं. जो बाहर के लोग हैं उसको भी रखो, हमने कब मना किया है. लेकिन हमारा जो लोकल आदमी है, अहमदाबाद, सूरत या बड़ौदा में उसका क्या. स्थानीय लोगों को पहले रखना चाहिए".
सुबह के साढ़े दस बज रहे हैं और एक पतली से गली के मुहाने में दो महिलाएं बैठ कर कढ़ाई का काम कर रही है.
इधर साड़ियों पर ज़री लग रही है और दूसरे चबूतरे पर बेसन फेंटा जा रहा है जिसे बगल रखे कतरे हुए प्याज़ और हरी मिर्च में मिलकर पकौड़े बनेंगे.
आस-पास की दुकानों में गुड़ से लेकर सत्तू सब बिक रहा है और हलवाई करारी जलेबियाँ छान कर दही के साथ बेच रहे हैं.
ये बिहार या यूपी का कोई शहर नहीं बल्कि गुजरात के अहमदबबाद का अमराइवाड़ी इलाक़ा है जहाँ सैंकड़ों उत्तर भारतीय दशकों से रहते आए हैं.
ज़्यादातर गुजराती में ही बात करते हैं लेकिन हिंदी सुन कर इनकी आँखों में एक चमक ज़रूर दिखाई देती है.
बेचैनी
भीतर बनी कॉलोनी में मुलाक़ात पूनम सिंह सेंगर और पति उपेंद्र से हुई.
"70 साल पहले मेरे माता-पिता उत्तर प्रदेश के इटावा से यहाँ रोज़गार की तलाश में आए थे. मेरा जन्म यहीं हुआ और शादी भी", पेशे से स्कूल टीचर, पूनम ने बताया.
पति उपेंद्र 45 वर्ष पहले यहाँ आकर बस गए थे और अब अपने को गुजराती ही समझते हैं.
लेकिन पूनम के मन माइन इन दिनों एक अजीब सी बेचैनी भी है.
उन्होंने कहा, "मैं स्कूल जाती हूँ जहाँ गुजराती और गैर-गुजराती दोनों के बच्चे पढ़ते हैं. अकसर सुनाई पड़ता है कि ये हिंदी बोलता है तो भैयाजी है, इसके साथ नहीं बोलना चाहिए. शहर के बाहर भी रोज़गार के लिए यूपी-बिहार के बहुत से लोग काम कर रहे हैं और उनके बच्चे यहाँ पढ़ते हैं. उनका डर ये है कि खुद तो यहाँ सेट हो गए, अब ऐसा कुछ माहौल बन जाएगा तो बच्चों को लेकर कहाँ जाएँगे".
मामला
28 सितंबर को गुजरात के साबरकांठा ज़िले में एक बच्ची के बलात्कार के बाद कोहराम मच गया था.
बच्ची स्थानीय ठाकोर समुदाय की थी और आरोपी बिहार से आया एक मज़दूर.
क़रीब दो हफ़्ते तक उत्तर भारतीयों पर दो दर्जन से ज़्यादा हमले हुए जिसका नतीजा हुआ आनन-फ़ानन में पलायन.
हिंसा से उत्तर गुजरात के चार जिले सबसे ज़्यादा प्रभावित हुए जिसमें मेहसाणा और साबरकांठा प्रमुख रहे.
अनुमान है कि भय के चलते 15 दिन के भीतर प्रदेश से कम से कम 10, 000 लोग यूपी, बिहार, मध्य प्रदेश और राजस्थान चले गए थे.
असर
अहमदाबाद से ज़्यादा दूर नहीं है सानंद ज़िला जिसे अब गुजरात का 'इंडस्ट्रियल हब' कहा जाता है.
टाटा नैनो से लेकर फ़ोर्ड और कोका कोला तक के प्लांट यहाँ के बोड़गांव इलाक़े में चौबीसों घंटे चलते हैं.
250 से ज़्यादा फ़ैक्ट्रियों वाले इस विख्यात इलाके में इन दिनों सन्नाटा सा पसरा हुआ है.
बोड़गांव के पंचायत भवन के ठीक सामने गिरिडीह, झारखंड के रहने वाले डीके मिश्रा एक चाय-पकौड़े की दुकान चलाते हैं.
नम आँखों से उन्होंने बताया, "मैं ढाई साल पहले आया हूँ और यहाँ की कम्पनी में सेक्यूरिटी गार्ड था. मैं ज़्यादा हिंदी बोलने लगा था, अपनी कवालिफ़िकेशन दिखाने लगा था लेकिन कुछ लोग ऐसे हैं जो हिंदी बोलो तो मारता है. आखिरकार मेरी नौकरी चली ही गई. हालांकि यहाँ के सभी गुजराती एक जैसा नहीं सोचते, लेकिन कुछ लोग हमें नापसंद करते हैं".
कुछ दिनों पहले तक बोड़गांव इलाके में उत्तर भारत के 15,000 से भी ज़्यादा मज़दूर काम करते थे लेकिन हाल की हिंसा के बाद कम से कम 5,000 रातों रात घर लौट गए.
हालांकि गुजरात चेंबर ऑफ़ कॉमर्स ऐंड इंडस्ट्री के प्रमुख जयमिन वासा के मुताबिक़, "चीज़ें सामान्य हो रही हैं. ये सही है कि उत्तर भारत से आए मज़दूरों में थोड़ा भय दिखा है".
ख़ुद गुजराती मूल के लोग भी एकाएक भड़की हिंसा और उसके बाद हुए प्रवासी उत्तर भारतीयों के पलायन से आहत हैं.
सानंद के एक छोटे से अस्पताल में बतौर नर्स काम करने वालीं पायल ठाकोर के अनुसार, "जो हुआ वो बिलकुल गलत था".
उन्होंने कहा, "अस्पताल में जितने मरीज़ थे अब उसके 20% भी नहीं हैं. मॉल, सब्ज़ी मंडी और किराने की दुकान में सब लोग नुक़सान में हैं. जो गुनहगार हैं उसे सज़ा दो न, सभी को नहीं न. वो लोग यहाँ कमाने के लिए आए थे तो उनको ऐसे तुरंत तो नहीं निकला सकते न".
वजह
गुजरात में पिछले दो दशकों के दौरान नए-नए औद्योगिक क्षेत्र बनाए गए और किसानों से ज़मीनें अच्छी रक़म में खरीदी गई.
नई फ़ैक्ट्रियों के लिए मज़दूरों की ज़रुरत पड़ी तो प्रवासी उत्तर भारतीयों के यहाँ आकर काम करने की संख्या में इज़ाफ़ा हुआ.
पिछले वर्षों में प्रदेश की आबादी छह करोड़ से ज़्यादा हो चुकी है और इसमें प्रवासियों की कुल तादाद क़रीब 10% बताई जाती है.
विकास और औद्योगिकरण के साथ प्रदेश में रोज़गार ढूँढने लोग दूर-दराज़ से पहुँचे हैं.
ज़ाहिर है, नौकरियों-तनखवाहों को लेकर खींचतान भी बढ़ी है.
गुजरात युनिवर्सिटी में समाजशास्त्र विभाग के प्रमुख प्रोफ़ेसर गौरांग जानी की मानें तो, "मनमुटाव बढ़ने की एक बड़ी वजह ये भी है".
उन्होंने बताया, "बाहर के मज़दूरों से काम सस्ते में होता है क्योंकि सालाना मज़दूरी के ठेके दे दिए जाते हैं. बाहरी लोग काम भी ज़्यादा करते हैं और दिहाड़ी भी कम लते हैं. जबकि गुजरात में स्थानीय से आठ घंटे काम करनाने में एक तय मिनिमम वेज या दिहाड़ी देनी ही पड़ती है".
उत्तर गुजरात के साबरकांठा ज़िले के सडा गाँव में हमारी मुलाक़ात पूर्व सरपंच राजेंद्र सिंह राठौड़ से हुई.
उनका कहना था, "जो लोग फैक्टरियों में काम कर रहे हैं उनमें से 90 प्रतिशत गुजराती नहीं हैं. जो बाहर के लोग हैं उसको भी रखो, हमने कब मना किया है. लेकिन हमारा जो लोकल आदमी है, अहमदाबाद, सूरत या बड़ौदा में उसका क्या. स्थानीय लोगों को पहले रखना चाहिए".
हाल ही में प्रदेश सरकार की तरफ से भी इस तरह के बयान आए हैं कि, "नौकरियों में कम से कम 80% लोगों को स्थानीय होना चाहिए".
प्रोफ़ेसर गौरांग जानी के मुताबिक़, "इन सब चीज़ों से माहौल बेहतर नहीं बल्कि और ख़राब हो सकता है".
उन्होंने कहा, "चाहे वो शाकाहारी-माँसाहारी खाने की बात हो, चाहे वो धर्म की बात हो, चाहे वो सम्प्रदाय की बात हो, गुजरात में असहिष्णुता का जो वातावरण है वो एक लगातार चलने वाला प्रॉसेस है. दिखता नहीं है बाहर कहीं पर, लेकिन जब ऐसी छोटी-मोटी घटनाएं होती हैं तो उसका बहुत बड़ा मुद्दा बन जाता है".
हाल ही में भड़के मामले पर राजनीति भी हुई है और दिलासे भी आए हैं.
प्रदेश सरकार ने सैंकड़ों को हिरासत में लिया है और प्रवासियों को सुरक्षा देने की गारंटी भी दी है.
प्रवासी उत्तर भारतीय जब यहाँ से भागे थे तो पीछे घर-बार सब छोड़ गए थे.
अब इंतज़ार छठ-पूजा और दिवाली ख़त्म होने का है. तभी पता चलेगा कितने उत्तर भारतीय वापस लौटते हैं और कितने नहीं.
चलने से पहले वरिष्ठ पत्रकार भार्गव पारीख ने कहा, "गुजरात ने पहले भी विवाद देखा है. लेकिन इस बार जो हुआ उससे इस राज्य को अपनाने आए लोगों के मन में ठेस पहुंची है".
ये भी पढ़िए-
- 'पीटने वाले कह रहे थे, गुजरात खाली करो'
- गुजरात: प्रवासियों की मुश्किलों का ठाकोर सेना कनेक्शन
- ग्राउंड रिपोर्ट: नशाबंदी वाले गुजरात से हिंदीभाषी लोगों के पलायन का सच
- कार्टून: गुजरात वाले यूपी में
- गुजरात: डर के साये में कैसे जी रहे हैं प्रवासी मज़दूर
- 'पड़ोसी पूछते हैं, तुम मुस्लिम हो क्यों गरबा खेलती हो'