हिमाचल के डॉक्टर ने 17 साल रिसर्च के बाद खोजा रेबीज का सस्ता इलाज, WHO से मिली मान्यता
शिमला। हिमाचल प्रदेश के एक डॉक्टर ने अपने 17 साल के अनुसंधान के बल पर रेबीज के शिकार लोगों के लिये सस्ता इलाज संभव कर मेडिकल क्षेत्र में एक नई क्रांति ला दी है। उनके शोध को अब डब्ल्यूएचओ विश्व स्वास्थ्य संगठन से भी मान्यता मिल गई है जिससे अब पूरे विश्व में इस नई व सस्ती दवा का इस्तेमाल रेबीज के शिकार लोगों के लिये होगा। हलांकि इससे पहले रेबीज का इलाज आसान नहीं था। हिमाचल प्रदेश में हर साल बंदरों व कुत्तों के काटने के चार पांच हजार मामले सामने आते रहे हैं। यानी रेबीज के शिकार होने वालों की अच्छी खासी तादाद है। इसका इलाज कराना अब तक इतना आसान नहीं रहा है। मंहगा इलाज होने की वजह से कई बार रेबीज के शिकार लोग मौत के मुंह में भी जाते रहे हैं। शिमला के दीन दयाल उपाध्याय अस्पताल के इंट्राडर्मल एंटी रेबीज़ क्लीनिक एंड रिसर्च सेंटर में कार्यरत डॉक्टर ओमेश भारती की रेबीज के रोकथाम की खोज को विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने भी मान्यता दे दी है जिससे अब यह नई दवा मरीजों को सस्ती व आसानी से मिलेगी।
269 मरीजों पर किया प्रयोग
डॉ भारती ने बताया कि उन्होंने शिमला में रहते हुए अपनी रेबीज के निवारण की प्रक्रिया को 269 मरीज़ों पर प्रयोग किया जिसके सभी परिणाम सकारात्मक आए। उनके इस निवारण की प्रक्रिया को डब्ल्यूएचओ द्वारा मान्यता प्राप्त होने के बाद अब पूरे विश्व भर में अपनाया जायेगा। बकौल उनके पूरे विश्व में प्रत्येक वर्ष रेबीज़ से 59,000 लोगों की मौत हो जाती है। वहीं भारत में 20,000 लोग रेबीज़ से अपने जीवन से हाथ धो बैठते हैं । डॉ भारती के अनुसार, किसी जानवर के काटने पर पीड़ित व्यक्ति का समय रहते इलाज न हो और अगर वह रेबीज़ का शिकार हो जाए तो उसकी दर्दनाक मृत्यु हो जाती है। वह बताते हैं कि इसमें न व्यक्ति जीता है और न ही मरता है। इससे पीड़ित मरीज़ों की मौत उन्हें सौ बार फांसी देने के बराबर है। उनकी मौत का कारण अक्सर समय रहते जानवर के काटने पर इलाज ना कराना होता है। पागल जानवर के काटने का इलाज, इससे पहले बहुत महंगा पड़ता था और हर इंसान इसका इलाज कराने की क्षमता नहीं रखता है। आपको बता दें कि किसी पागल जानवर के काटने पर रेबीज़ का सिर्फ रोकथाम हो सकता है। चिकित्सा जगत में रेबीज़ का आज भी कोई इलाज नहीं है।
क्यूँ होता है रेबीज़ का उपचार महंगा?
अगर किसी व्यक्ति को पागल कुत्ता या अन्य जानवर काट देता है तो उस मरीज़ को दो तरह के इंजेक्शन लगते हैं । एक वैक्सीन और दूसरा सीरम । पहले वैक्सीन नहीं मिलती थी तो इस वजह से लोग मर जाते थे। इसके लिए वैक्सीन को सस्ता किया गया। फिर ये देखा गया कि मरीज़ वैक्सीन तो लगा रहें हैं पर सीरम के इंजेक्शन नहीं लगा रहे हैं। सीरम घोड़े अथवा इन्सान के खून से बनता है और इसको बनाने की प्रक्रिया भी बहुत जटिल होती है। महंगा होने के कारण कुछ चुनिंदा अस्पताल ही इसे आवश्यक मात्रा में खऱीद पाते थे। कई बार एक ही मरीज़ में इतना सीरम लगा दिया जाता था कि बाकी मरीज़ों के लिए बच नहीं पाता था। इस कमी के कारण काला बाज़ारी को भी प्रोत्साहन मिलता था जिसके कारण 5,000 में बिकने वाला सीरम रूपये 9,000 में बिकता था । डॉ भारती के अनुसार, "इस कारण लोगों ने 50,000 रूपये से लेकर 60,000 रूपये तक भी रेबीज़ के निवारण पर खर्च किये हैं; और जो लोग इस कीमत को नहीं चुका पाते थे, वे मौत की भेंट चढ़ जाते थे।
रेबीज का इलाज हुआ सस्ता
कई वर्षों की मेहनत, समय, समीक्षा, पढ़ाई और अनुसंधान के बाद डॉ भारती ने पाया कि अगर सीरम को मांसपेशियों में ना लगाकर, सीधा घाव पे लगाया जाए और वैक्सीन के इंजेक्शन को भी सीधा त्वचा पर लगाया जाए तो अधिक सार्थक और सस्ता हो सकता है। डॉ भारती ने बताया,इस वजह से पहले के मुकाबले वैक्सीन पांच गुना, और सीरम 10 गुना कम इस्तेमाल होने लगा है। उनकी खोज के बाद अब पूरे निवारण की कीमत में 100 गुना की कमी आई है । जिससे रेबीज़ के निवारण की लागत 35,000 रूपये से घट कर मात्र 350 रुपये रह गई है।
WHO ने दी मान्यता
वह बताते हैं कि अनुसंधान पूरा होने के बाद इस प्रक्रिया का दस्तावेजीकरण किया गया और उस शोध-पत्र को ‘ह्यूमन वैक्सीन एंड इम्यूनोथेरेपियुटिक्स' नामक चिकित्सकीय पत्रिका में प्रकाशन किया गया । इसका प्रकाशन होने के बाद डब्ल्यूएचओ का इस पर ध्यान गया । डॉ भारती के अनुसार, काफी विचार विमर्श और जाँच के बाद ही डब्लयूएचओ की टीम ने विशेषज्ञ समूह बनाया । पूरे विश्व भर से 15 विशेषज्ञों की समिति को वो शोध-पत्र दिया गया । इसके बाद कई बैठकें हुई, मुझसे पूरे तथ्य मंगवाए गए। इतना कुछ होने के बाद ही पिछले महीने डब्ल्यूएचओ ने पूरी दुनिया को यही इलाज करने की सिफारिश की है।
डॉक्टर भारती आगे कर रहे हैं रिसर्च
सन 2000 में जब डॉ भारती ने रेबीज़ के निवारण पर अनुसंधान करना शुरू किया था, तब उन्हें पता नहीं था कि ये सफलता उन्हें इस स्तर तक मिलेगी और रेबीज के निवारण के लिए उनके द्वारा बनाया गया यह प्रोटोकॉल डब्ल्यूएचओ पूरी दुनिया के मरीज़ों के लिए इस्तेमाल करने की सलाह देगा। डॉ भारती, इसके अलावा भी कई अन्य प्रोजेक्ट्स पर अनुसंधान कर रहे हैं, जैसे सर्पदंश, कुष्ठ रोग और थैलीसिमिया। वे बताते हैं कि ,ये रिसर्च अभी शुरूआती दौर में चल रहे हैं।