Madrasa Education: भारत में मदरसों का इतिहास, शिक्षा देने से लेकर आतंकवाद बढ़ाने तक रही है भूमिका
Madrasa Education, उत्तर प्रदेश सरकार ने मदरसों के सर्वेक्षण का जो काम शुरू किया था, वह अब पूरा हो चुका है। आगामी 15 नवंबर तक सर्वे की पूरी रिपोर्ट विभिन्न जिलों के जिलाधिकारियों के जरिए राज्य सरकार को भेजी जाएगी।
इस सर्वेक्षण में यह भी पता चला है कि उत्तर प्रदेश में 7500 से अधिक इस्लामिक मदरसे ऐसे हैं, जो सरकार से मान्यता प्राप्त नहीं है। इन मदरसों में दारुल उलूम देवबंद और मजाहिर उलूम जैसे विश्वविख्यात संस्थान भी शामिल हैं, जो सरकार से कोई सहायता नहीं लेते और न ही वे किसी भी मदरसा बोर्ड से संबंधित हैं। इसके अतिरिक्त 16513 मदरसे उत्तर प्रदेश मदरसा शिक्षा बोर्ड में पंजीकृत हैं। केंद्रीय अल्पसंख्यक मंत्रालय के अनुसार 2019 तक भारत में कुल 24,010 मदरसे पंजीकृत थे।
30 अक्टूबर 2022 को दारूल उलूम देवबंद ने देश भर के इस्लामिक मदरसों से संबंधित अध्यापकों, प्रबंधकों और उच्च कोटि के उलेमाओं का जो अधिवेशन बुलाया था, उसमें एक प्रस्ताव द्वारा यह स्पष्ट किया गया है कि इस्लामिक मदरसों को किसी भी बोर्ड से न तो संबंधित होने और न ही सरकार से किसी भी तरह की सहायता लेने की जरूरत है।
प्रस्ताव में कहा गया है कि अगर मदरसों के पाठ्यक्रम में कोई संशोधन किया गया तो उससे इन इस्लामिक मदरसों की स्थापना का उद्देश्य और लक्ष्य ही समाप्त हो जाएगा, इसलिए हमें किसी भी तरह का पाठ्यक्रम में संशोधन स्वीकार नहीं है।
इस अवसर पर जमीयत उलेमा के राष्ट्रीय अध्यक्ष मौलाना अरशद मदनी ने अपने संबोधन में कहा कि यह देश भर के मदरसों के प्रतिनिधियों का सम्मेलन है। उन्होंने कहा कि जिस तरह से मुल्क को डॉक्टरों, विधिवेत्ताओं और इंजीनियरों की जरूरत है। इसी तरह से हमारी कौम को बेहतर से बेहतर मुफ्ती और आलम-ए-दीन की जरूरत है और यह सिर्फ मदरसे ही पूरी कर सकते हैं।
मदनी ने कहा कि मदरसों को किसी बोर्ड से मान्यता प्राप्त करने की कोई जरूरत नहीं। मदरसों के शिक्षा स्तर को सरकार नहीं, हम सुधारेंगे। हमें लैपटॉप वाले नहीं, बल्कि कुरान वाले धार्मिक लोग चाहिए, जो देहातों, जंगलों और शहरों में नमाज पढ़ा सकें और दीन सीखा सकें।
हालांकि 18 सितंबर 2022 को दारूल उलूम देवबंद में हुए एक सम्मेलन में जमीयत उलेमा ने मदरसों के सर्वेक्षण में उत्तर प्रदेश सरकार को सहयोग देने की घोषणा की थी।
उधर उत्तराखंड की पुष्कर सिंह धामी सरकार ने भी सभी मदरसों के प्रबंधकों को यह निर्देश दिया है कि वे एक महीने के अंदर अपना पंजीकरण करवा लें। अगर उन्होंने निर्धारित समय में मदरसों का पंजीकरण नहीं कराया तो सरकार उन मदरसों को बंद कर सकती है। उत्तराखंड मदरसा बोर्ड में 419 मदरसे पंजीकृत हैं, जिनमें से 192 मदरसों को केंद्र और राज्य सरकार से अनुदान मिलता है। इसके अतिरिक्त राज्य में 400 से अधिक ऐसे मदरसे हैं, जो पंजीकृत नहीं हैं।
क्या है भारत में मदरसों का इतिहास?
मदरसा अरबी भाषा का शब्द है, जिसका मतलब होता है 'पढ़ने का स्थान'। मूल रूप से यह हिब्रू भाषा से अरबी में आया, जिसे हिब्रू में 'मिदरसा' कहा जाता है।
इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में पहला मदरसा 1191-92 ई. में अजमेर में खोला गया था। उस समय मोहम्मद गौरी का शासन हुआ करता था। हालांकि यूनेस्को 13वीं शताब्दी में भारत में मदरसों की शुरुआत बताता है और उदाहरण के लिए ग्वालियर का मदरसा पेश करता है।
इसके बाद लगातार मदरसों की संख्या भारत में बढ़ती गई और अकबर के शासनकाल में मदरसों में इस्लामिक शिक्षा के अलावा भी अन्य शिक्षा देने की शुरुआत हुई। भारत में अंग्रेजों ने भी मदरसे खोले, वारेन हेस्टिंग्स ने 1780 में कोलकाता में अंग्रेजी सरकार का पहला मदरसा खोला था।
पुराने समय में मदरसा इस्लामिक ज्ञान का प्रतीक माना जाता था। यहां बड़े पैमाने पर लोगों को शिक्षा प्रदान की जाती थी। इस दौर के मदरसे की ये खासियत थी कि ये धर्मनिरपेक्ष स्वरूप के थे और यहां गैर मुस्लिम समुदाय के बच्चे भी शिक्षा के लिए आते थे। 19वीं सदी के अंत तक मदरसों की धर्मनिरपेक्षता बरकरार रही थी।
स्वतंत्रता पूर्व काल में मदरसों की भूमिका महत्त्वपूर्ण थी। भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, समाज सुधारक राजा राम मोहन राय और मुंशी प्रेमचंद ने भी अपनी शुरुआती शिक्षा मदरसों में ही प्राप्त की थी।
दरअसल, 1844 से मदरसे में बदलाव आना शुरू हुआ। मदरसे से पास हुए छात्रों के लिए सरकारी नौकरियों के दरवाजे बंद कर दिए गए। इससे मुस्लिम समुदाय में बड़े गुस्से का माहौल बना, क्योंकि उस दौर में अचानक से अंग्रेजी को स्वीकार करना इतना आसान नहीं था। अंग्रेजों ने मुसलमानों की पारंपरिक शिक्षा की रीढ़ तोड़कर रख दी और शिक्षा व्यवस्था को धार्मिक और गैर धार्मिक श्रेणी में बांट दिया।
किस तरह चलती है मदरसा व्यवस्था?
प्रारम्भ में मदरसा व्यवस्था आम लोगों के दान से चलती थी और इसमें सभी छात्रों को मुफ्त में शिक्षा दी जाती थी। समय बदलने के साथ ही कुछ मदरसे तो स्वायत्त बने रहे, लेकिन कुछ मदरसों ने सरकार के साथ अपना संबंध स्थापित कर लिया।
कैसा है मदरसों का पाठ्यक्रम?
मदरसों में मुंशी, मौलवी, आलिम, कामिल, फ़ाज़िल, अरबी, फारसी, उर्दू, हिंदी, अंग्रेजी के साथ ही सामाजिक विज्ञान, विज्ञान, नागरिक शास्त्र और कंप्यूटर विषय विकल्प के तौर पर पढ़ाए जा रहे हैं।
बेशक इस्लामिक शिक्षा के प्रसार में मध्यकाल से ही मदरसों की महती भूमिका रही है। इनसे निकलकर अनेक प्रतिष्ठित मौलवी, इमाम, इस्लाम के व्याख्याकार व सिद्धांतकार हुए है, लेकिन मूलतः मदरसा शिक्षा ने अपने आप को 'दीनी तालीम' तक ही सीमित रखा। यह समय की नब्ज को पकडऩे में असफल रहा।
इसने आधुनिक तर्क, विज्ञान, कला आदि से अपने को परे ही रखा, जिसका परिणाम शैक्षिक, आर्थिक पिछड़ेपन और धार्मिक कट्टरता के रूप में भी सामने आया। इस तरह की एकतरफा शिक्षा ने इस्लाम का एक वैश्विक राजनैतिक दर्शन तो विकसित कर लिया, लेकिन सार्वभौमिक सह अस्तित्व के मूल्य तिरस्कृत हो गए।
दारुल उलूम देवबंद की कब हुई स्थापना?
भारत का मशहूर मदरसा दारुल उलूम देवबंद की स्थापना 1866 में हुई थी। दारूल उलूम देवबंद का संबंध वहाबी संप्रदाय से है। वहाबी संप्रदाय की शुरुआत इमाम मोहम्मद बिन अब्दुल वहाब ने की थी। इसका लक्ष्य इस्लाम में व्याप्त गलत रीति-रिवाज को समाप्त करने और इस्लाम को मूल रूप में पेश करना था।
भारत में वहाबी विचारधारा की शुरुआत शाह वलीउल्लाह देहलवी ने की। शाह वलीउल्लाह का लक्ष्य भारत को 'दार-उल-हर्ब' (जहां गैर मुस्लिम हुकूमत हो) से बदलकर 'दार-उल-इस्लाम' (इस्लाम का किला) में परिवर्तित करना था।
जमीयत उलेमा-ए-हिन्द की स्थापना
1919 में दिल्ली में आयोजित खिलाफत कांफ्रेंस में मौलाना महमूद हसन ने दिल्ली में जमीयत उलेमा की स्थापना की और इसका पहला अध्यक्ष मुफ्ती आजम मौलाना किफायतुल्लाह को मनोनीत किया गया।
खिलाफत कमेटी की स्थापना
जमीयत उलेमा के नेताओं ने ही खिलाफत कमेटी की स्थापना की थी। 1919 में दिल्ली में जारी खिलाफत घोषणापत्र की तीन मुख्य मांगें थीं। पहला, उस्मानी साम्राज्य का विघटन न किया जाए। दूसरा, खलीफा के पद को बरकरार रखा जाए और तीसरा, मक्का मदीना का नियंत्रण खलीफा के हाथ में रहे। इसी खिलाफत कमेटी ने बाद में जमीयत उलेमा का रूप लिया था।
देश के विभाजन के बाद जमीयत उलेमा में विभाजन हुआ और एक बड़ा वर्ग पाकिस्तान चला गया। वहां पर मौलाना शब्बीर अहमद उस्मानी ने जमीयत उलेमा-ए-इस्लाम नामक नया संगठन स्थापित किया। इस संगठन से जुड़े हुए चार मुख्य आतंकवादी संगठन हैं, जिनमें लश्कर-ए-झंगवी, तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान, सिपाह-ए-सहाबा और अफगान तालिबान शामिल हैं। इससे साफ है कि तालिबान के साथ देवबंदी जमात के तार जुड़े हुए हैं।
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आतंकवादियों से रिश्ते
पाकिस्तानी तालिबान के एक प्रमुख नेता मौलाना फजलुर रहमान रहस्यमय ढंग से अनेक बार देवबंद का दौरा करते रहे हैं। खास बात यह है कि रहमान ने कभी भी दारुल उलूम देवबंद में शिक्षा प्राप्त नहीं की। इसके बावजूद वे जब भी भारत आए हमेशा जमीयत उलेमा के अध्यक्ष मौलाना अरशद मदनी के मेहमान के रूप में दिल्ली और देवबंद में ठहराए गए।
उनके सम्मान में अरशद मदनी ने कई बार दिल्ली के पांच सितारा होटलों में स्वागत समारोह का आयोजन किया। फजलुर रहमान की गिनती पाकिस्तान के आतंकवादी नेताओं में होती है। उनके हाफिज सईद और यूनाइटेड जिहाद काउंसिल के प्रमुख सलाहुद्दीन से गहरे रिश्ते हैं।
जमीयत उलेमा ने गुलजार आजमी के नेतृत्व में एक 'डिफेंस कमेटी' बना रखी है, जिसका मुख्य काम उन संदिग्धों को संरक्षण देना है, जो सुरक्षा एजेंसियों द्वारा आतंकवाद के आरोप में पकड़े जाते हैं। इस कमेटी की ओर से आतंकवादियों के परिवारजनों को आर्थिक सहायता प्रदान करने के साथ-साथ उनको बचाने के लिए मुफ्त वकीलों की फ़ौज खड़ी की जाती है।
गत कुछ वर्षों में देशभर से अनेक ऐसे आतंकवादी पकड़े गए है जो देवबंद, जमीयत उलेमा अथवा किसी अन्य मदरसा चलाने वाली संस्था से जुड़े हुए थे। अफगानिस्तान के तालिबान तो पाकिस्तान के मदरसों में ही तैयार किए गए थे। आज भी दुनिया भर में आतंक फैलाने में मदरसों से निकले कट्टरपंथियों की प्रमुख भूमिका रहती है।