Lokrang Festival Bhopal: विमुक्त एवं घुमंतू समुदाय की सांस्कृतिक-कला परंपरा पर भोपाल में लोकरंग
लोकरंग के माध्यम से देश में पहली बार घुमंतू, अर्धघुमंतू और विमुक्त समुदायों की जीवन शैली, उनकी कला और ज्ञान परंपरा का प्रदर्शन किया जाएगा।
Lokrang Festival Bhopal: सुंदरलाल पारधी की उम्र कोई अस्सी बरस है, उनके पैर ठीक से सीधे नहीं हो पाते, बांस की छड़ी का सहारा लेकर वे चलते हैं। उन्हें पता है कि कैसे भी हो, चलते जाना ही जीवन है। वे अपने जीवन की मुश्किलों पर भी बहुत सरलता से बात रखते हैं और सरल बातों पर गहरे जवाब दे जाते हैं। जब उनसे पूछा गया कि क्या उन्हें झंडा फहराना आता है?
उनकी आंखें फैलकर चौड़ी हो गई, "क्यों? क्या मैं इस देश का नागरिक नहीं हूं?"
वे झंडा फहराने की प्रक्रिया बताने लगे... वे आश्वस्त थे कि वे झंडा ठीक से फहरा सकते हैं। वे पढ़े लिखे नहीं हैं, जंगलों में अपनी आधी से ज्यादा जिंदगी निकाली है। घुमक्कड़ जीवन जीया है, हर पंद्रह-बीस दिन में डेरा उठ जाया करता था और नये सफर की तैयारियां शुरू हो जाया करती थीं। जिन्होंने गांव-दर-गांव नापे हैं इतने बरस, उन्हें इस बात का पूरा एहसास है कि देश उनके सामने आजाद हुआ, 26 जनवरी, 1950 को देश का संविधान लागू हुआ।
एहसास इस बात का भी है कि उनके समुदाय को और उन जैसे करीब डेढ़ सौ समुदायों को असली मुक्ति संविधान लागू होने के भी करीब ढाई बरस बाद मिली। अंग्रेजों के काले कानून ने इन समुदायों को जन्मजात अपराधी घोषित कर रखा था। यह कानून अगस्त, 1952 में निरस्त हुआ, पर जन मानस की धारणाएं इतनी आसानी से निरस्त नहीं होतीं। यही वजह है कि अंग्रेजों का अत्याचार झेलने वाले ये जुझारू समुदाय मुख्यधारा का हिस्सा कभी बन ही नहीं सके।
गुरुवार की सुबह जब सुंदरलाल पारधी 74वें गणतंत्र दिवस के अवसर पर बतौर मुख्य अतिथि भोपाल स्थित जनजातीय संग्रहालय में झंडा फहरा रहे थे, तो उनकी आंखों में गजब का आत्मविश्वास था। यही चमक बाकी सभी घुमंतू समाज के लोगों की आंखों में दिखाई दी। महिलाएं तो इस अवसर पर इतनी भावुक दिखाई दीं कि उन्होंने तिरंगे के आगे अपना माथा टेका और फिर हाथ जोड़कर प्रार्थना की।
सभी लोग जानते थे कि अभी यहां से उन्हें अपने डेरे में जाना है, डेरे जो कि भोपाल के रवींद्र भवन में लगे हैं। अवसर लोकरंग के आयोजन का है। मध्य प्रदेश के संस्कृति विभाग की ओर से गणतंत्र दिवस पर हर बरस लोक रंग का आयोजन किये जाने की परंपरा रही है। इस बार इस परंपरा को जनजातीय संग्रहालय की ओर से एक खास अंदाज दिया गया है, जिसके तहत घुमंतू, अर्द्ध घुमंतू और विमुक्त समुदायों के जीवन के विभिन्न पक्ष दिखाये जायेंगे। शुरुआत ध्वज फ़हराने से की गई। सुंदरलाल पारधी को चुने जाने की खास वजह यह रही कि वे लोक रंग में शामिल होने वाले घुमक्कड़ समुदायों के सभी सदस्यों में सबसे उम्रदराज हैं।
हमसे बेहतर हैं घुमक्कड़ समुदाय
जनजातीय अकादमी के निदेशक डॉ. धर्मेंद्र पारे का कहना है कि जो जिंदगी भर चलते रहे, उनके पास सिखाने को बहुत कुछ होता है। "संग्रहालय का उद्देश्य है कि अब इन समुदायों से हम सब कुछ सीखें, उनकी कला, उनके परंपरागत ज्ञान, जीवन को सहज बनाने के तरीके...। उन्होंने बताया, मेरा बचपन कुचबंदिया समाज के बीच बीता, मैं उनके साथ खेलता था। पारधी लोग मेरे गांव दुलिया (हरदा जिला) के पास रहते थे, झिरी, झल्लार, गुठानिया आदि गांवों में इनकी काफी आबादी थी। मेरा इनके बीच खूब आना जाना रहा, अध्ययन भी खूब हुआ। बाद में देखा कि इन लोगों को लेकर पुलिस में अलग राय है, समाज में अलग। पुरानी अंग्रेजी किताबों में पढ़ा तो वहां कुछ अलग राय थी, जो उनकी गरिमा और गौरव के विपरीत थी। इनके बीच रहकर मैंने यह जाना कि ये लोग अपने से तो ज्यादा बेहतर ही हैं। लोक रंग के आयोजन ने अवसर दिया कि अनुभवों से जो हमने जाना, हमारे साथियों ने जाना, उसे रेखांकित किया जाए। हमारा प्रयास है कि इन समुदायों का योगदान सबके सामने आए।"
देश में पहली बार किसी आयोजन में दिखेंगे घुमंतुओं के डेरे
जनजातीय संग्रहालय के अध्यक्ष अशोक मिश्र ने बताया कि लोकरंग के माध्यम से देश में पहली बार घुमंतू, अर्धघुमंतू और विमुक्त समुदायों की जीवन शैली, उनकी कला और ज्ञान परंपरा का प्रदर्शन किया जाएगा। इस अवसर पर पांच समुदायों, बागरी, पारधी, बेडिय़ा, कुचबंदिया और कालबेलिया समाज के डेरे भी दर्शाये जायेंगे। आयोजन के पहले दिन कालबेलिया समुदाय के जीवन पर केंद्रित चरैवेति चरैवेति नृत्य नाटिका की प्रस्तुति रहेगी।
उन्होंने बताया कि संग्रहालय की ओर से लगातार इन समुदायों पर संगोष्ठियां आयोजित की जाती रही हैं, जिनका उद्देश्य इन समाजों को लेकर जो गलत धारणाएं बनी हुई हैं, उन्हें दूर करना है। इस बार लोक रंग के जरिए हम समाज के सही चेहरे को सामने लाने का प्रयास कर रहे हैं। उनकी कला देखने को मिलेगी, सीखने-समझने को मिलेगी, साथ ही कला व संस्कृति पर आधारित पुस्तकों की प्रदर्शनी भी लगेगी। भोपाल में लोकरंग का आयोजन तीस जनवरी तक चलेगा।
यह भी पढ़ें: Organic Farming: भारत में बढ़ रही है जैविक खेती की लोकप्रियता